विशेष :

रणचण्डी महारानी लक्ष्मीबाई

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maharani Laxmi Baiभारतीय रक्त की एक महत्वपूर्ण विशेषता की तरफ महाकवि कालिदास ने इंगित करते हुए कहा था-
क्षमा प्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेजः।
स्पर्शानुकूला इव सूर्यकान्तास्तदन्यतेजोऽभिभवाद्व मन्ति॥
भारतवर्ष क्षमाशील भी है और उसके हृदयकुण्ड में प्रतिशोध की प्रलयंकारी ज्वाला भी है। शंकर के तृतीय नेत्र की कल्पना इसी भारत ने की है। अब उसके हृदय का ज्वालामुखी फूटने वाला है। उद्दण्ड एवं उत्पीड़क राजसत्ता उस ज्वालामुखी में भस्म हो जायेगी, इसमें सन्देह नहीं है।)

1857 के वातावरण में उनकी यह उक्ति सही होती नजर आ रही थी। अमर वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का स्थान इस दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण रहा है कि उसने तात्कालिक परिस्थितियों में जीते रहकर भी संघर्ष करके जन-जीवन में स्वातन्त्र्यलिप्सा की एक हूक जागृत की। उनका पुण्य स्मरण ही भारतीय स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाले देशभक्तों के लिए अनन्त प्रेरणा का स्रोत बन गया। देशभर में लोक गीतों, काव्य रचनाओं, आल्हाओं आदि के माध्यम से उनका शाश्‍वत महत्व हो गया और वे कोटि-कोटि नर-नारियों की श्रद्धा केन्द्र बन गईं।
देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए छटपटाहट शुरू हो गई थी और महारानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को गोद ले लिया था। उसे अवैधानिक बताकर अंग्रेजों ने महारानी को चुनौती दे ही दी थी। उन्होंने अंग्रेजों की 5 हजार रुपया प्रतिमाह की पेन्शन को ठुकराकर उन्हें बताया था कि वे जरा भी नहीं झुकेंगी।
उधर 1857 का स्वातन्त्र्य आन्दोलन छिड़ा तो उसके नेताओं की योजनाओं की उन्हें बराबर सूचनायें प्राप्त होती रहीं। तभी एक स्वर्ण अवसर उपस्थित हुआ। संयोग से ही झांसी के किले में स्थित भारतीय सेना ने उनसे अनुरोध किया कि वे उनका नेतृत्व करें और रानी ने मात्र 21 वर्ष की आयु में सेनानायिका के रूप में अपने आपको राष्ट्रहित के लिए समर्पित कर दिया।
वे स्वातन्त्र्य संग्राम की मनस्वी नेत्री के रूप में उभरीं और देखते ही देखते अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन उठीं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विन्सैण्ट ए. स्मिथ ने स्वीकारा कि महारानी का व्यक्तित्व विद्रोही नेताओं में सर्वाधिक सुयोग्य था। उनकी नेतृत्व कुशलता की ही देन थी कि उत्तर में यमुना के मध्य और दक्षिण में विन्ध्याचल तक का सम्पूर्ण प्रदेश ब्रिटिश तानाशाही से स्वाधीन करा लिया गया था। इस सबके पीछे लक्ष्मीबाई की स्वातन्त्र्यनिष्ठा, सैनिक नेतृत्व की शक्ति, अमित उत्साह और साहस निहित था। “क्या मैं अपनी झांसी छोड़ दूंगी? नहीं, कदापि नहीं। आए, जिसमें साहस हो’’ ऐसी गौरव भरी हुंकार भरकर उन्होंने क्रान्ति के नेतृत्व को संभाला था और झांसी पर पुनः अपनी सत्ता प्राप्त कर ली थी।
वीर सावरकर ने इस देवी का पुण्य स्मरण करते हुए बड़ी मार्मिक श्रद्धांजलि अर्पित की है जो कि एक उत्पे्ररक शब्द चित्र है- “रानी लक्ष्मीबाई रणचण्डी थी। उसने अपना लक्ष्य पूरा किया, अपना ध्येय सिद्ध किया और अपनी महत्वकांक्षा सफल की। रानी लक्ष्मीबाई जैसा एक जीवन एक पूरे राष्ट्र की सार्थकता के लिए पर्याप्त है। वह समस्त सद्गुणों का सार थीं। कहने के लिए नारी, मुश्किल से तेईस वर्ष की आयु, गुलाब जैसी सुन्दर, स्वर्ण की भांति शुद्ध, फिर भी उसमें संगठन और पराक्रम की ऐसी शक्ति थी जो ऐतिहासिक पुरुषों में भी यदाकदा ही पाई जाती है। उसके हृदय में देशभक्ति की अग्नि शिखा निरन्तर प्रज्ज्वलित रहती थी। देश के सम्मान का उसमें जितना गर्व था, उतनी ही वह अपने पराक्रम में अद्वितीय थी। किसी भी देश को उस जैसी देवकन्या तथा रानी पर गर्व हो सकता है।’’ एक सफल नेतृत्वकारी में जो भी गुण होने चाहिएं, वे महारानी में स्पष्ट नजर आते थे। युद्धकाल में भी वे संयत मन हो किस प्रकार जूझती रहीं, इसकी एक झलक हमें श्री डी.बी. पारास्नी लिखित ‘लाइफ ऑफ लक्ष्मीबाई’ मेें मिलती है। वे लिखते हैं- “आठवें दिन अंग्रेजी सेना शंकर दुर्ग की ओर बढ़ी। अंग्रेजों के पास आधुनिक ढंग की दूरबीनें थीं, जिनकी सहायता से उन्होेंने दुर्ग के भीतर पानी के तालाब पर गोले बरसाना प्रारम्भ कर दिया। पानी के लिए आए हुए छह-सात व्यक्तियों में से चार मारे गये। पश्‍चिम दिशा, दक्षिणी दिशा के गोलन्दाजों ने शंकर दुर्ग को लक्ष्य करती हुई अंग्रेजों की तोपों को शान्त कर दिया। तब कहीं नागरिकों को भोजन-पानी के लिए जल मिल सका। इस मार-काट में रानी लक्ष्मीबाई स्वयं हर कार्य की देखभाल के लिए उपस्थित रहतीं। वे हर स्थल पर स्वयं जातीं और सैनिकों को उत्साहित करतीं। झांसी ने इतना प्रबल प्रतिरोध उपस्थित कर दिया कि नितान्त सुसज्जित सेनाओं के बावजूद अंग्रेज 31 मार्च तक दुर्ग में प्रवेश न कर सके।’’
इस प्रकार यह अकाट्य सत्य है कि रानी में श्रेष्ठ नेतृत्वकारी गुण थे जो कि आन्दोलन की नींव मजबूत करने में काफी महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। अंग्रेजों की साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के खिलाफ संघर्ष करते हुए रानी ने अपनी आहुति दे दी और श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी अमर कृति में श्रद्धांजलि अर्पित की- जीओ रानी याद करेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी। लेनिक आज जो स्थिति नजर आ रही है, वह बड़ी विचित्र है। देश की लगभग 95 फीसदी पढ़ी-लिखी जनता को लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस कब है यह भी नहीं पता है! यह स्थिति उन दिव्य नक्षत्रों के लिए है जिनके गुण गाते वक्त हम गाते हैं शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले। हमारी यह मनोवृत्ति हमारी उपेक्षा को ही उजागर करती है। काश! इस पुण्यात्मा के प्रति हम अपने कर्त्तव्य को याद रख पाते। इस धधकती ज्योति किरण से प्रकाश पाकर हर अन्याय के प्रतिरोध के लिये आगे आ पाते।
कुछ चरित्र अपने प्रबल त्याग, उत्कट देशभक्ति, कर्मठता, आदर्शों के लिए सतत प्रयत्नशीलता आदि के कारण उभरते हैं और जनजीवन में अपनी छाप लगा जाते हैं। ऐसे पवित्र चरित्रों में ‘लक्ष्मीबाई’ का नाम अग्रणी रहेगा। 18 जून को महारानी की पुण्यतिथि है। आइए! हम उनके जीवन की उज्ज्वल रेखाओं से कुछ ज्योति ग्रहण करके आगे बढ़ने की प्रक्रिया अपनाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करें। - दुर्गाशंकर त्रिवेदी

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