गतांक से आगे......
14 जनवरी 1761 मकर संक्रान्ति का युद्ध
अब्दाली ने सेना भेजकर मराठों द्वारा जीता गया कुंजपुरा पुनः हथिया लिया और भाऊ के पीछे का मार्ग भी रोक दिया। अब उत्तर से सिख सहायता मराठों को बन्द हो गई। दक्षिण में स्वयं अब्दाली डटा था, इसलिये मराठों का दिल्ली से भी सम्पर्क टूट गया था। दोनों सेनाओं में प्रतिदिन मुठभेड़ें होने लगीं। सात दिसम्बर को एक मुठभेड़ में मराठा सेनापति बलवन्तराव मारा गया।
अब मराठा सेना में भर्ती किये गये 2000 अफगान व उत्तरप्रदेश से भर्ती किये गये 7000 मुसलमान अब्दाली की गुप्त मदद को सक्रिय हो गये। अब्दाली अपने बीमार-घायल घोड़े-ऊँट मराठा शिविर की ओर खदेड़ देता और मराठा उन्हें पकड़ ले जाते तथा विजय का जश्न मनाते। किन्तु ये अनुपयोगी पशु मराठा चारा भण्डार को नष्ट करने में कारण बने गये।
20 दिसम्बर को गोविन्द पन्त मारे गये- गोविन्द पन्त गंगा यमुना के मध्यक्षेत्र से अनाज चारा व धन की वसूली कर रहा था। उसे जेता गूजर नामक हिन्दू डाकू मिल गया। गोविन्द पन्त ने डाकू को पकड़ उससे मुक्ति धन की मांग की। डाकू ने कहा- ब्राह्मण देवता ! मैं कोई जमींदार-जागीरदार नहीं हूँ, मेरे पास जो भी रुपया है मैं मुसलमान जमींदार-जागीरदारों से लूटता हूँ। फिर मैं हिन्दू हूँ, मुसलमान जागीरदारों पर हमला करके मराठों का काम ही कर रहा हूँ। मेरे पास जो है आप ले लीजिये बाकी पठानों से लूटूँगा तभी तो आपको दे सकूँगा। मुझे मुक्त कर दीजिये। किन्तु गोविन्द पन्त मुक्ति धन लेने पर अड़ गया। जेता गूजर ने 5-7 दिन का समय मांगा और अपना एक साथी डाकू अब्दाली के शिविर में भेज दिया और अपनी सहायता की प्रार्थना की।
अब्दाली ने अताईखाँ की कमान में 5000 अफगानों को व मार्ग बताने के लिये कुछ पैदल रुहेले जेता गूजर की मदद को भेज दिये। आश्चर्य की बात थी कि ऐसे संकट के समय एक हिन्दू दूसरे हिन्दू से मुक्ति धन मांग रहा था और एक विदेशी मुसलमान हिन्दू की मदद कर शत्रु देश में अपना एक समर्थक तैयार कर रहा था। यमुना के पूर्वी किनारे बागपत कस्बे के निकट मराठे भोजन की तैयारी कर रहे थे। गोविन्द पन्त स्वयं स्नान कर पूजा में बैठा था। मराठों को धोखे में रख मारने की योजना में अब्दाली के 5000 गुड़सवार भगवाध्वज लगाकर आ रहे थे। गोविन्द पन्त ने दूर से देख समझा कि या तो ये दिल्ली में बैठे पन्त के मुगल सैनिक हैं या सदाशिव भाऊ की सेना के नये भर्ती किये अफगान। उन्हें देख मराठे सतर्क नहीं हए, अपने कार्यों में लगे रहे। कोई स्नान कर रहा था, कोई पूजन कर रहा था, कोई भोजन बना रहा था, तो कोई टहल रहा था। घोड़े खूटों से बन्धे चारा खा रहे थे।
अचानक अफगानों ने मराठा शिविर के निकट आ जोर से नारा लगाया- “नारा ए तकबीर अल्ला हो अकबर’’ और यमुना तट पर टहल रहे मराठों के सिर उड़ाना शुरू कर दिये। फिर तो अफरा-तफरी मच गई, सारे शिविर में होहल्ला मच गया। कोई मराठा अपनी जान बचाने शिविर के भीतर भाग रहा था, कोई यमुना में छलांग रहा था। किसी को काठी लगे घोड़े मिल गये तो वह जान बचाकर भाग निकला। गोविन्द पन्त भी जान बचाने के लिये पूजा अधूरी छोड़ भागा। सामने उसका बिना काठी का घोड़ा खड़ा था। सेवक ने उसे घोड़े पर बिठाया, किन्तु रकाब काठी के अभाव में फिसलकर गिर पड़ा। गोविन्द पन्त को तीन बार घोड़े पर बिठाया गया किन्तु तीनों बार फिसल कर गिर पड़ा। अब तो तीन-चार अफगान सिर पर आ गये थे। गोविन्द पन्त का बेटा बालाजी उसे घोड़े पर भागता दिखा.... वह जोर से चिल्लाया बाला रे ! बालारे !! किन्तु कौन किसका बाप, सभी को अपनी जान बचाने की पड़ी थी। पुत्र ने पिता की ओर एक बार देखा व दिल्ली के मार्ग पर भाग निकला। 22 दिसम्बर 1760 को गोविन्द पन्त का सिर काट भाऊ को भेंट में भेज दिया गया। मराठों के शिविर में जेता गूजर रस्सियों से बान्धा हुआ मिला जिसे अफगानों ने मुक्त कराया। गोविन्द पन्त के मारे जाने से यमुना पार उत्तरप्रदेश से मराठा सेना को भेजे जाने वाले अन्न चारे की आपूर्ति रुक गई।
मराठा वसूलीकर्ता मारे गये- 7 दिसम्बर को बलवन्तराव, 20 दिसम्बर को गोविन्द पन्त और दो दिन बाद 22 दिसम्बर को कृष्णराव बल्लाल के नेतृत्व में 300 सैनिक उत्तरप्रदेश से लूट का धन लेकर भाऊ के शिविर की ओर जा रहे थे। प्रत्येक के पास 500 रुपये थे। मराठा शिविर के दक्षिण में अलाव जलता देख व घोड़ों से उतर पड़े और अलाव तापने लगे। सोचा कि यह भाऊ का शिविर है और अलाव ताप रहे मुसलमान भाऊ द्वारा नये भर्ती किये अफगान हैं। अलाव तापते वसूली कर्ता मराठी में बातें करने लगे। चौकन्ने अफगानों ने तुरन्त तलवारें निकाल उनके सिर उड़ाना शुरू किये। मात्र एक मराठा जान बचाकर भाऊ के शिविर में पहुँचा। (शेजवलकर पृष्ठ 126, 127, 128)
मराठे फँसे चूहे दानी में- सभी दिशाओं में अब्दाली के सैनिक लगातार गश्त लगाते मराठा शिविर की घेराबन्दी कसते जा रहे थे। कहीं से भी मराठों को अन्न-चारा नहीं मिल पा रहा था। 1 जनवरी 1761 को अब्दाली ने अली मर्दान नहर काटकर मराठा शिविर के पश्चिम भाग की जल आपूर्ति रोक दी। उत्तरप्रदेश के मुल्ला मौलवियों ने गाँव-गाँव घूमकर मुसलमानों में जिहाद के नारे लगाये। हजारों मुसलमान ग्रामीण अपनी बन्दूकें ले यमुना के उस पार सात मील लम्बाई में डट गये। ये रात दिन पहरा देते, इनकी महिलाएँ घरों से भोजन लेकर आती रहतीं। यदि कोई मराठा यमुना किनारे दिख जाता तो दूसरे किनारे बैठे मुसलमान गोलियाँ दागने लगते। अब पानीपत के बाहर दो कुएँ ही प्यासे मरते मराठों का सहारा थे।
एक जनवरी की रात मराठा शिविर के चारा-लकड़ी भण्डारों में आग गई जो प्रत्येक रात लगती रही और मराठों का सारा लकड़ी-चारा जलकर स्वाहा हो गया। अब पशु खायें क्या और लकड़ी के अभाव में भोजन बने कैसे? 7 जनवरी को भाऊ के आदेश से 20,000 मराठे चारा काटने पानीपत शहर के उत्तर के जंगलों में गये। अब्दाली ने सभी को घेरकर कत्ल कर दिया। फिर किसी ने शिविर के बाहर निकलने की हिम्मत नहीं की। (शेजवलकर पृष्ठ 129)
7 जनवरी की रात शीतकालीन मावठे की जोरदार बरसात प्रारम्भ हुई जो 8 जनवरी दिन भर बरसती रही। जनवरी की कड़ाके की ठण्ड, ऊपर से भरी बरसात, अलाव तापने को लकड़ी नहीं। शिविर के भीतर परस्पर सटे मराठे परस्पर शरीर की गर्मी से प्राण बचा रहे थे। मराठे दिल्ली से अक्टूबर में निकले थे तब गर्मी थी, इस कारण ऊनी वस्त्र नहीं लाये थे और नवम्बर में सर्दी पड़ते ही पानीपत में 2 माह से घिरे पड़े थे। 9 जनवरी को प्रातः हजारों मराठे और पशु भीषण ठण्ड न सह पाने के कारण मर गये। गीली भूमि में दफना सकते नहीं थे और जलाने की लकड़ी थी नहीं। सभी मानव-पशु लाशें उफनती यमुना में फैंक सड़ाँध से बचा गया।
भाऊ का दया का पत्र- 8 जनवरी को भाऊ का एक प्रार्थना पत्र शुजा के माध्यम से अब्दाली को मिला। भाऊ ने सरहिन्द तक का प्रदेश अब्दाली को देना मान लिया, दिल्ली भी अब्दाली के प्रभाव में स्वीकार कर ली। जो चाहे वह हरजाना देना स्वीकार लिया, बस मराठा शिविर को सकुशल दक्षिण लौट जाने की अनुमति चाही। भाऊ ने हिन्दू देवी-देवताओं की शपथ खाकर नीचे और जो भी शर्तें चाहें जोड़कर लिखने के लिये स्थान छोड़कर हस्ताक्षर कर दिये, किन्तु अब्दाली ने पत्र ठुकरा दिया। (शेजवलकर पृष्ठ 129, 130)
अब्दाली ने कहा कि मैं हिन्दुओं की तरह बेवकूफ नहीं हूँ जो हाथ में आये शत्रु को छोड़ देते हैं। मैं और मेरे सैनिक काबुल से जिहाद करने भारत आये हैं। ढाई लाख काफिर मेरी मुट्ठी में हैं। इन्हें मारकर गाजी कहलाऊँगा, इस्लाम की सेवा करूँगा।
9 जनवरी 1761 को भाऊ ने शिविर की ब्राह्मण महिलाओं के गहनों के बदले पानीपत के मुसलमानों से चावल खरीदा और पानीपत शहर के बागों के सारे वृक्ष काट उनकी पत्तियों व छालों से मराठा शिविर के घोड़ों, ऊँटों, बैलों, हाथियों की जान बचाई। हरे वृक्षों की लकड़ियों को जैसे-तैसे जला चावल उबालकर ब्राह्मण खाने लगे और घोड़ों को मार उनके माँस को इन्हीं लकड़ियों पर भून मराठे पेट भरने लगे।
12 जनवरी 1761- आज प्रातः मराठा सैनिकों ने भाऊ का शिविर घेर लिया और कहा कि हम भूखों रहकर लड़ते हुए नहीं मरना चाहते हैं। युद्ध करने का निर्णय हो गया। किन्तु इन 20,000 महिलाओं और 1 लाख यात्री ब्राह्मणों को किसके भरोसे छोड़ें? मल्हारराव की सेना में कोटा के कुछ राजपूत थे। उनका सुझाव था कि “प्रत्येक ब्राह्मण को मराठा सैनिकों के अतिरिक्त शस्त्र थमा दिए जाएँ और सेना के पीछे-पीछे चलने को कहा जाए। हम जीतोड़ लड़ेंगे और अब्दाली की सेना में मार्ग बना दिल्ली पहुँचेंगे। यदि यह सम्भव नहीं हुआ तो हजारों अफगानों को मारकर मर जाएँगे। रही महिलाएँ। इनसे पूछिये कौन-कौन महारानी दुर्गावती बन मुसलमानों से लड़ने को तैयार है? इन्हें तलवार-भाला हाथ में दे साथ रखिए। जो लड़ने में असमर्थ है उन्हें उफनती नदीं में कूद जल समाधि लेने का कहिए। जो महिलाएँ यह भी न करें तो मुसलमानों के हाथों में पड़ने से अच्छा है इन्हें काटकर यमुना में बहा दिया जाए। फिर मोह माया से मुक्त हो हम कालभैरव बन मुसलमानों पर टूट पड़ें, मारें या मर जाएँ।’’
किन्तु सुझाव इब्राहिम गार्दी का माना गया। उसने कहा कि मैं हलकी तोपों से गोले बरसाता आगे चलूँगा। तोपों के पीछे मेरे 15000 गार्दी सैनिक (बाद में भरती किए गये भी) गोली वर्षा करते चलेंगे। हमारे पीछे दमाजी गायकवाड़, यशवन्तराव पँवार, विट्ठल शिवदेव, अन्ताजी मनकेश्वर, शमशेर बहादुर की टुकड़ियाँ चलेंगी। इनके पीछे भाऊ अपनी निजी हुजरत सेना के साथ चलेंगे। असैनिक लोग व महिलाएँ सबसे अन्त में चलेंगी। शिन्दे होलकर सेना के दाहिने भाग की रक्षा करते चलेंगे, पूर्व में यमुना नदी से रक्षा होगी।
युद्ध के नगाड़े बज उठे- नगाड़ों की आवाज सुन मराठे नित्य कर्म से निवृत्त हो कतारों में खड़े हो गये। प्रातः 9 बजे ऊँचे मंचों पर रखी गारदी की भारी तोपों ने गोले बरसाना प्रारम्भ किया। अब्दाली ने तुरन्त अपनी सेना को गोलों की मार से पीछे हट जाने को कहा। अब गार्दी अपनी हल्की तोपों को धकेलते गोले बरसाते आगे बढ़ा और उसकी सेना अब्दाली के अफगानों से जा टकराई। गार्दी के पीछे हर-हर महादेव का घोष कर रहे मराठा घुड़सवार संयम नहीं रख सके और व्यूह रचना तोड़ गार्दी की तोपों के आगे निकल अफगानों पर टूट पड़े। अब दोनों ओर की तोपें शान्त थी। अब्दाली ने अपने 1000 ऊँटों पर रखी छोटी तोपें (जम्बूरके) चलाना शुरु किया, जिनसे मराठा सैनिक मारे जाने लगे। सभी मराठा घुड़सवार पलटकर भागे और गार्दी की तोपों के पीछे जा खड़े हुए।
भाऊ की हुजरत सेना हमले के हुक्म के इन्तजार में खड़ी थी। नजीब ने अपने पास रखे सभी 2000 राकेट हुजरत सेना पर एक साथ दाग दिए। भारी धमाकों और धुएँ के कारण आमने-सामने देखना कठिन हो गया। भारू ने हुजरत घुड़सवारों को हमले का हुक्म दिया। हुजरत अब्दाली की सेना में एक मील तक घुसती चली गई। हाथी के होदे पर बैठे विश्वासराव को जम्बूरके का गोला लगा। वे होदे में मर कर गिर पड़े। अपने भतीजे विश्वासराव के मरने की खबर पाते ही भाऊ विचलित होकर हाथी से उतरकर अपने घोड़े पर सवार हो तलवार चलाता अफगान सेना में घुस गया। फिर उसका कोई पता नहीं लगा।
युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व भाऊ ने वीसाजी कृष्णा जोग को 2000 सैनिकों के साथ महिलाओं की सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया और कहा कि पराजय की स्थिति में सभी महिलाओं को मार दिया जाए। मल्हारराव होलकर को अपनी पत्नी पार्वतीबाई की सुरक्षा का भार सोंपा। मल्हारराव ने 500 धनगर सैनिकों के साथ जानू भिन्ताड़े को पार्वतीबाई की सुरक्षा में लगा दिया।
हार का समाचार सुनकर महिलाओं की सुरक्षा में लगे 2000 मराठों ने महिलाओं को मुसलमानों के हाथों में पड़ने से बचाने के लिए तलवारें निकाल 2-4 को घायल किया ही था कि जान बचाने महिलाएँ भाग खड़ी हुईं और गार्दी का भाई मुजफ्फर अल्लाहो अकबर के नारे लगाता मराठा सेना में भर्ती हुए 2000 अफगानों के साथ महिलाओं के रक्षक मराठों पर टूट पड़ा। बीसाजी कृष्णा जोग और सभी दो हजार मराठे मारे गए। केवल होलकर सेना का जानू भिन्ताड़े भाऊ की पत्नी पार्वतीबाई को हाथी से उतार घोड़े पर बैठा पश्चिम में खड़ी मल्हारराव की सेना की ओर भागा।
दोपहर 3 बजे तक युद्ध समाप्त हो गया था। अब तो भागते हुए हिन्दुओं को घोड़े दौडा पीछा कर मारते अब्दाली सैनिक ही दिख रहे थे। जनवरी का सूरज जल्दी डूब गया था। किन्तु अष्टमी का चन्द्रमा रात देर तक प्रकाश फैलाता रहा और अफगान सैनिक रात्रि 10-11 बजे तक भागते हिन्दुओं का कत्लेआम करते रहे। ढाई लाख मराठों में से 6000 ने शुजा व काशीराज के तम्बुओं में शरण ली। होलकर के 15000 सैनिक पश्चिम दिशा की ओर भागकर जान बचा पाये। हजारों घायल थके मराठे बन्दी बनाकर कड़कती ठण्ड में मैदान में घेरकर बिठाये गये।
प्रातः 10 बजे कुँजपुरा में 5000 जीवित छोड़े गए गये अफगानों के साथ छोड़े गये नजावत खाँ का पुत्र दिलेरखाँ और कुतुबशाह का पुत्र अब्दाली के सामने जा खड़े हुए और 15 जनवरी को हिन्दुओं के कत्लेआम की इजाजत मांगी। अब्दाली ने 5 घण्टे का समय दिया और दोनों अपने सैनिकों के साथ अब्दाली शिविर में कैद 35000 मराठों पर टूट पड़े। इन्हें मार ये पानीपत पहुँचे। हजारों मराठों ने नगर में शरण ले रखी थी। अफगानों और पानीपत के मुसलमानों ने सभी को काट दिया। मात्र काशीराज (शुजा का देशस्थ ब्राह्मण सरदार) के शिविर में शरण लिये मराठों को बैरागी सेनापति अनूप गिरि ओर उमराव गिरि ने बचाया। कहीं जिहाद के जोश में अफगान हमारे शिविर पर हमला न कर दें, इसलिये काशीराज की हिन्दू बैरागी 10,000 सेना 6000 मराठों को लेकर लखनऊ चल दी।
20,000 ब्राह्मण महिलाओं व कपड़े धोने, बर्तन मांजने वाली 2000 गैर ब्राह्मण महिलाओं को घेर इब्राहिम गार्दी का भाई मुजफ्फर अब्दाली के शिविर में आया और महिलाएँ भेंट कर दीं। 15 जनवरी को दिनभर चले हत्याकाण्ड में सारे पानीपत के गांव हिन्दू शून्य हो गये। गाँवों से 45000 जवान महिलाएँ भी पकड़कर लाई गईं। प्रत्येक अफगान को एक हिन्दू स्त्री लूट के इनाम में मिली। दिल्ली में सैनिकों ने 4-4 रुपये में सुन्दर महिलाएँ बेची। लूट में अब्दाली को 300 तोपें, 50,000 घोड़े, 300 हाथी, 300 ऊँट, 1 लाख बैल, 25000 रायफलें, 1 लाख तलवारें-भाले-ढाल, 1 लाख खंजर- फर्स-छुरे-बरछे मिले। 20 मार्च 1761 को जब अब्दाली काबुल लौटा तब उसके साथ 67,000 जवान सुन्दर महिलाएँ थीं। (शेजवलकर पृष्ठ 150 से 180, सरदेसाई पृष्ठ 401 से 420, प्रतापसिंह के आधुनिक भारत के पृष्ठ 12-17, विश्वास पाटिल के पृष्ठ 543 एवं से 586 अन्य कई लेखकों के आधार पर)
अब्दाली की नाकेबन्दी के कारण साढे तीन माह से भाऊ और पेशवा के बीच संवाद बन्द था। इसलिये चिन्तित पेशवा 19 अक्टूबर 1760 को पूना में दशहरा मना 30,000 घुड़सवार लेकर उत्तर की ओर चला। नाना साहेब पेशवा को विलासी जीवन पसन्द था और वह हमेशा अपने सरदारों से 8-10 वर्ष की सुन्दर लड़कियों की मांग करता रहता था। अभियान में भी उसके साथ 8-10 वर्ष की कई लड़कियाँ थीं। दो माह उसे महाराष्ट्र छोड़ने में लगे। 27 दिसम्बर 1760 को पेठण के समीप उसने नारोबा नाइक की 9 वर्षीय कन्या से विवाह किया और मना करने पर भी अपने दो मित्रों आबा पुरन्दरे और वीरेश्वर दीक्षित मनोहर का विवाह 8 वर्षीय कन्याओं से जबरन कराया।
नाना पेशवा को 24 जनवरी 1761 को विदिशा पड़ाव पर साहूकार का एक पत्र मिला- दो मोती गल गये, 25 सोने की मोहरें खो गई, चाँदी-ताम्बे की तो गिनती ही नहीं। पेशवा आगे बढ़ पचोर (म.प्र.) आया। यहाँ उसे पानीपत विनाश के पूरे समाचार मिले। यहाँ मल्हारराव उसे मिला और कहा कि भरतपुर में सूरजमल के 30,000 जाट रक्षा के लिये तैयार हैं, पानीपत से भागे 20,000 मराठे मेरे साथ हैं, 30,000 घुड़सवार आपके पास हैं, ये 80, 000 सैनिक दिल्ली पर टूट पड़ें तो 67,000 हजार महिलाएँ छुड़ाई जा सकती हैं। किन्तु पेशवा दो माह पचोर में पड़ा रहा और 20 मार्च को अब्दाली के काबुल लौटने का समाचार मिलते ही 22 मार्च 1961 को पूना लौट गया। (सरदेसाई पृष्ठ 223-224, शेजवलकर पृष्ठ 203-204, मराठी शोधपत्र पृष्ठ 71, सरदेसाई पृष्ठ 423)
जाटों का अहसान- सूरजमल जानते थे कि दिल्ली होकर भागने वाले प्रत्येक मराठे को स्वयं बादशाह के सैनिक व दिल्ली के मुसलमान मार देंगे। घायल-थके मराठे भरतपुर में ही जीवित आ सकेंगे। उन्होंने 500 वैद्य और जर्राह (सर्जन) 2000 जाट महिलाएँ चक्कियों के साथ, हजारों थान सूती मलमल का कपड़ा (घावों पर बान्धने के लिए) घावों को किटाणु रहित करने को मनो शहद इकट्ठा कर रखा था। सूरजमल के शिविर में विश्राम भोजन कर मार्ग खर्च ले मराठा सैनिक महाराष्ट्र लौटे।
खालसा सिखों का पराक्रम- खालसा सिखों और जम्मू के रणजीत देव ने लौटती अब्दाली की सेना पर लगातार हमले कर 60,000 महिलाओं को छुड़ा लिया। मात्र 5000 चित्तपावन महिलाएं ही अब्दाली काबुल ले जा सका।
पानीपत हार के कारण- 1. दिल्ली अभियान के समय सदाशिव भाऊ को 20,000 महिलाओं और 1 लाख तीर्थयात्रियों को साथ लेकर नहीं जाना था। ये मराठा सेना पर बोझ बन गये।
2. पानीपत अभियान के 6 माह पूर्व मराठा सेनाएँ राजस्थान को लूटती रहीं और राजपूतों को दुश्मन बना लिया।
3. राजपूतों, जाटों, बुन्देलों, सिखों व गोरखों का हिन्दू संघ बनाना था और पानीपत युद्ध को हिन्दू-मुस्लिम के रूप में लड़ना था।
4. जयपुर 25000, उदयपुर 25000, जोधपुर 25000 तथा कोटा-बून्दी, बीकानेर के 25000 कुल 1 लाख सैनिक तटस्थ हो गये।
5. सूरजमल जाट का अपमान करने से 30000 जाट भरतपुर लौट गये।
6. बाजीराव के साले मस्तानी के भाई जगतराज से मुगलों के लिये जबरन चौथ वसूलने के कारण 50,000 बुन्देले घर बैठ गए।
7. दिल्ली में 2000 व कुंजपुरा में 5000 मुसलमानों को जीवित छोड़ देने से और मुगल बादशाह के पीछे हाथी पर मुगलों का राज्य चिन्ह लेकर बैठने से गुलाम पेशवा का साथ देने से सिखों ने मराठों का साथ नहीं दिया।
8. मुगल राजकुमार को दिल्ली के तख्त पर न बैठाकर उदयपुर के महाराणा को भारत का सम्राट बनाना था।
9. मुस्लिम किलों पर लगातार हमला करने वाले गोरखा सेनापति नेपाल के वेणी बहादुर को सारे गोरखों के साथ मराठा सेना में नौकरी देनी थी। वेणी बहादुर को लखनऊ के सुजाउद्दोला ने सेनापति बना दिया और वह शुजा अब्दाली के पक्ष में लड़ा।
10. राजनांदगांव के उमरावगिरि ओर अनूपगिरि की 10,000 बैरागी सेना को हिन्दू एकता का नारा देकर अपनी ओर मिलाना था। इन्हें भी लखनऊ नवाब ने नौकरी दी। ये बैरागी दत्ताजी शिन्दे की मृत्यु में आगे रहे थे और पानीपत में अब्दाली की ओर से लड़ने आये थे।
11. 2000 अफगानों और उत्तरप्रदेश के 7000 मुसलमानों को मराठा सेना में शामिल नहीं करना था। इन 9000 लोगों ने एन युद्ध के समय गड़बड़ी फैलाई जो हार का कारण बनी।
19 अक्टूबर 1760 को सेना लेकर पूना से निकले नाना पेशवा को शीघ्र पानीपत पहुँच मराठा सेना की मदद करनी थी। किन्तु पेशवा स्वयं के विवाह और अय्याशी में लगा रहा और 18 जनवरी को विदिशा पहुँचा, तब तक युद्ध हार चुके थे। तीन माह नष्ट किए। मराठों की लगातार भूलों से हम पानीपत हारे।
उपाध्यक्ष- भारतीय इतिहास संकलन समिति म. भा., 498, महात्मा गान्धी मार्ग, मल्हारगंज, इन्दौर (म.प्र.) - रामसिंह शेखावत
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