अलाउद्दीन खिलजी की निगाह में हिन्दू राज्य काँटे की भाँति खटकते रहते थे। वह अवसर देखा करता था कि कब और कैसे हिन्दू राजाओं को बरबाद किया जाए। हिन्दू नारियों का अपहरण करने में वह अपने को प्रवीण समझता था। इसी सिलसिले में उसने राजस्थान के बदनौर क्षेत्र को चुना। एक दिन वह बड़ी सेना लेकर बदनौर पर टूट पड़ा। फिर क्या था, दुर्ग पर चान्द तारे वाला झण्डा फहराने लगा।
अब बदनौर के यशस्वी शासक सूरसेन निर्वासितों का सा जीवन जीने को विवश हो गए। उनकी एक छोटी कन्या थी। उसका नाम था तारा। वह सूरसेन के आखों का तारा ही थी। सूरसेन उसे अपने प्राणों से अधिक प्यार करते थे। तारा के लालन-पालन में वे पिछली बातें भूल जाना चाहते थे। धीरे-धीरे तारा पन्द्रह वर्ष की हो गई। उसे पिता की विपत्ति का पता चल गया था। बड़ी लगन से अपने पिता से उसने युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। इधर उसके सौन्दर्य की चर्चा भी दूर-दूर तक फैल गई थी।
अनेकानेक राजपूत युवक तारा से विवाह की कामना लेकर आते। पर तारा अपना सुस्पष्ट निश्चय सबको बता देती- “मेरे पिता का राज्य वापिस दिलाने वाला युवक ही मेरे साथ पाणिग्रहण संस्कार कर सकता है।’’
शर्त बहुत कठिन थी। अलाउद्दीन के टिड्डी दल के समक्ष डटना साधारण बात नहीं थी। अधिकांश युवक उदास-निराश वापस लौट आए।
जयपाल नामक एक राजपूत युवक ने तारा के लिए बदनौर उद्धार की प्रतिज्ञा की और सूरसेन के पास रहने लगा। एक दिन तारा को एकान्त में पाकर उसने कुचेष्टा की ही थी कि तारा ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
फिर चित्तौड़ का राजकुमार पृथ्वीराज आया। यह राजकुमार भी निर्वासित था। उसने अपनी वीरता का बड़ा बखान किया। तारा ने उससे कहा कि- “वीरता के गुणगान सुनते-सुनते मेरे कान पक गए हैं। मैं तो बदनौर के शासक के रूप में पिताजी को प्रतिष्ठित देखना चाहती हूँ।’’ पृथ्वीराज ने दृढ़ प्रतिज्ञा की- “निश्चय ही मैं आपके पिता का राज्य वापिस दिलाऊँगा।’‘
अवसर पाकर पृथ्वीराज ने सूरसेन के चरणों का स्पर्श करके आशीष प्राप्त किया और मात्र पाँच सौ चुने हुए वीर सैनिकों को लेकर बदनौर की ओर चल दिया। उसके हर्ष की सीमा नहीं थी, जब उसने देखा कि सैनिकों के वेष में स्वयं तारा उसके साथ चल रही थी। उसकी लम्बी तलवार कमर में लटक रही थी।
दुर्ग के ऊपर बैठा अफगान ला इलाहा सड़क पर निकलते जुलूस को देखने में मग्न था। अच्छा अवसर था। पृथ्वीराज ने अपना पैना तीर चलाया। वह सनसनाता हुआ उसके वक्षस्थल में फँस गया। अफगान वहीं पर लुढ़क गया।
इस घटना से मुसलमानों में खलबली मच गई। पृथ्वीराज और तारा अपने सैनिकों से मिलने पीछे भागे। मुसलमानों ने पीछा किया। युद्ध छिड़ गया। यवनों को अस्त्र उठाने के पूर्व ही समाप्त कर दिया गया। जो जहाँ था, उसे वहीं पर मौत की नींद सुला दिया गया। तारा ने भी अपनी वीरता दिखाते हुए तीक्ष्ण तलवार से अनेक यवनों का संहार किया।
इस प्रकार बदनौर का दुर्ग पुनः सूरसेन के हाथों में आ गया और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तारा ने पृथ्वीराज के साथ धूमधाम से विवाह किया। - विजय प्रकाश त्रिपाठी
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