ओ3म् तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥ ऋग्वेद 10.9.3॥
शब्दार्थ- अपने आस-पास को आप्लावित करने देने वाले जलो! तुम यस्य = जिसके क्षयाय = रहन-सहन के लिए जिसको जिन्वथ = तृप्त, लाभान्वित करते हो तस्मै = उस उद्देश्य की सिद्धि के लिए वः = तुम सेवनीय जलों को अरं गमाम = हम सजाते हैं, अपने लाभों को प्राप्त करने के लिए समुचित प्रयोग करते हैं, तुमको प्रदूषित होने से बचाते हैं। चः= और आपः= हे जलो ! तुम नः = जल का सेवन करने वाले हमको जनयथ = प्रकट करो, अपने प्रयोगजन्य लाभों से प्रभावित करो। हमारे कृषिजन्य उत्पादों की तरह हमको भी प्रभाव युक्त करो।
व्याख्या- इस मन्त्र में आई दो क्रियाएँ विशेष ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम क्रिया है- अरं गमाम। इसका अर्थ है सजाना, सुन्दर बनाना। यह उत्तम पुरुष के बहुवचन में है, जिससे यह सन्देश सामने आता है कि जल का सेवन करने वाले जल को आश्वासन देते हैं कि हम जल का उचित ढंग से प्रयोग करेंगे, जिससे वह प्रदूषित न हो। क्योंकि प्रदूषित जल सेवन करने वालों के लिए हानिकारक बन जाता है। तब हम स्वतः जल के लाभों से वंचित हो जाते हैं।
जल एक प्राकृतिक देन है। वह स्वाभाविक रूप से शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल होता है। पर्वत के ऊपरी भाग और जंगलों में होने वाली वर्षा का जल स्वतः निर्मल होता है। झरनों तथा पार्वतेयी नदियों का जल और वहाँ हुई वर्षा अमृत रूप में होती है। पर आजकल जल को नगरों के कारखानों और अन्य ढंगों से दूषित पर दूषित किया जा रहा है। अतः गंगा जैसी नदियों का जल पान की तो बात ही क्या स्नान, सिंचाई योग्य होने में भी शक हो रहा है। जब जल को हम अपने दुर्व्यवहारों से प्रदूषित कर रहे हैं, तब हमको ही जल को निर्मल बनाने के लिए हर तरह से यत्नशील होना होगा। अन्यथा पछतावे के सिवाय कुछ हाथ न लगेगा।
मन्त्र में दूसरी क्रिया है- जनयथ, जो कि जनि प्रादुर्भावे से बनती है। इसका अर्थ है प्रकट करना, जन्म, वृद्धि में कारण बनना। जल के ये गुण, लाभ, प्रभाव कृषिजन्य उत्पादों में बिल्कुल स्पष्ट रूप में सामने आ रहे हैं। वहाँ जल के कारण यह क्रिया किस प्रकार चरितार्थ होती है, यह सर्वत्र प्रसिद्ध है। तभी जो जब किसी बाग में फूलों की सजावट, फलों की शोभा और खेतों में फसल का लहराना होता है, तो वह सबको आकर्षित करता है। यहाँ अन्य तत्वों के साथ सिंचाई का अपना अनूठा असर होता है। सजावट और उत्पादनकर्ता में जल का योगदान भुलाए नहीं भूलता। तभी तो कहते हैं कि जड़ से सींचो। क्योंकि जड़ के सींचने से ही हरा-भरापन और आगे का सर्वविध विकास होता है। कृषि के आधार पर शरीर और व्यवहार की वस्तुओं में आने वाली सजावट व हरियाली को समझा जा सकता है।
विशेष- वेद में अनेकत्र दो, तीन वर्णयुक्तपद का अन्तिम वर्ण दीर्घ हो जाता है, जैसे इस मन्त्र में जनयथा प्रयुक्त हुआ है। आप्लृ व्याप्तौ के भाव को जैसे-जैसे गहराई से हम जल में स्पष्ट समझते हैं, वैसे-वैसे ईश्वर की व्यापकता, कण-कण में समायापन समझ में आने लगता है। जल से आप्लावित होने वाले की तरह जब एक उपासक उपासना से अपने आपको प्रभु से आप्लावित अनुभव करता है, तब वह आत्मविभोर होकर इन मन्त्रों के माध्यम से कह उठता है कि-
हे सर्वव्यापक प्रभो! आप ही तो पूर्णतः सर्वथा-सर्वदा आनन्द के धाम हो। अतः हमें इस शक्ति से सम्पन्न करो, जिससे हम सुख की साँस ले सकें और आपका साक्षात् अनुभव-दर्शन कर सकें।
प्रभो! आपका जो सर्वोत्कृष्ट आनन्द रूपी रस है, वह हमें प्राप्त कराओ। माता के समान अपनी उपासना की अनुभूति से आत्मविभोर बना दो। हम अपनी उपासना की साधना से आपके गुणों को अपने में भरने का भरसक प्रयास करते हैं, जिससे हमारे प्रत्येक कार्यकलाप आपके रंग में रंग जाएं। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | दलित आरक्षण - सबका साथ सबका विकास | समझो गरीब दलित की भावना को भी | Creamy Layer