मनुष्य को दोनों प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिए। दोनों प्रकार की शिक्षा को वर्तमान परिभाषा में कहें तो, एक वह शिक्षा जिससे संसार में सुखपूर्वक रहा जा सके और दूसरी वह शिक्षा जिससे इस संसार से ऊपर उठने के साधन प्राप्त हो सकें। आज भारत में अविद्या की शिक्षा यथासम्भव दी जाती है। यह भी पर्याप्त नहीं। क्योंकि इस शिक्षा का आधार भी तो मन और बुद्धि हैं। यदि मन और बुद्धि उन्नत नहीं होंगे तो अविद्या भी पूर्ण रूप से नहीं दी जा सकेगी।
दूसरी प्रकार की शिक्षा, जिसे वेद में विद्या कहा है, उसका तो भारत की वर्तमान शिक्षा-पद्धति में लेश मात्र भी स्थान नहीं हैं। वर्तमान सरकार अपने को सेक्यूलर कहने से दूसरी प्रकार की शिक्षा देने से डरती है। वह विचार करती है कि यदि किसी स्कूल कॉलेज में ब्रह्म-विद्या दी जाने लगी तो सरकार का सेक्यूलर रूप नहीं रहेगा। यद्यपि सरकार का यह भय अकारण है, इस पर भी शिक्षा, विद्या और अविद्या दोनों को सरकार के अधीन नहीं होना चाहिए।
लोग धर्म के फल= सुख की तो इच्छा करते हैं, किन्तु धर्म का आचरण नहीं करना चाहते। इसी प्रकार पाप के फल = दुःख को कोई नहीं चाहते, किन्तु पाप पूरी शक्ति के साथ करते हैं। धर्माचरण बिना कठिनाई के हो तो उसकी भी उपेक्षा लोग करते हैं और पापाचरण पूरी कोशिश से करते हैं। संसार में यह बड़ी विचित्र बात है कि लोग सहज-प्राप्त अमृत को ठुकराकर कठिनता से प्राप्त विष का प्याला पीते हैं।
संसार में विद्या का प्रकाश त्यागी तपस्वी विद्वानों के द्वारा हुआ है। धन के फेर में पड़ा हुआ व्यक्ति जानता हुआ भी सत्य बात नहीं कह सकता। वह देखता है कि बहुत प्रभावशाली व्यक्ति है। यदि इसके विरुद्ध कुछ भी कहा अथवा किया तो यह मेरे कारोबार में अनेक प्रकार से बाधाएं उपस्थित करेगा। इसलिए या तो वह मौन रहता है अथवा उसके दोषपूर्ण पक्ष का भी समर्थन करता है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | बलात्कारी को जिन्दा जला दो - धर्मशास्त्रों का विधान | राष्ट्र निर्माण वार्ता