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जीवन की अनिवार्य आवश्यकता जल

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jivan ki anivarya avshyakta jal

जीवन में वायु के अनन्तर जल का दूसरा स्थान है। क्योंकि इसके बिना प्यासा कुछ घण्टे ही जी सकता है। इसीलिए वेद में जल को एक सौ से अधिक नामों से पुकारा, परिचित कराया गया है। इन नामों में जहाँ स्थल, गुण के अन्तर से जल के भेद दर्शाए गए हैं, वहाँ उसके परिणाम, प्रभाव दर्शाने वाले भी कुछ नाम हैं। हाँ, प्रस्तुत प्रकरण की दृष्टि से जल के जीवन, अमृत जैसे नाम विशेष विचारणीय हैं। जल केवल पीने, भोज्यों के निर्माण का साधन ही नहीं है अपितु शरीर, व्यवहार्य वस्तुओं की शुद्धि और उपभोग्य अन्नों, दालों, फूलों, फलों आदि के सिंचन, वृद्धि का भी जल ही आधार है। अतएव वेद ने अनेक मन्त्रों में जल का वर्णन, स्तवन किया है।

यज्ञोपवीत अर्थात् अपना निकट का रिश्ता दर्शाते हुए आचार्य (क्योंकि भारतीय परम्परा में रक्त की तरह विद्या से भी वंश परम्परा चलती है) तथा वर-वधू को आशीर्वाद देते हुए माता-पिता विवाह विधि में जल के छींटे देते हैं। उनमें से पहला मन्त्र उस अवसर का यह है-
ओ3म् आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे॥ ऋग्वेद 10.9.1।

शब्दार्थ- हि= निश्‍चित रूप से आपः= अपने फैलाव से आधार बनने वाले जलो! तुम हमारे लिए मयोभुवः = सुख, शान्ति, स्निग्धता, शीतलता स्वरूप वाले ष्ठाः = स्था= हो ताः वे (ऐसे तुम) नः = हम जल का सेवन करने वालों को ऊर्जे= शक्ति, बल, ओज, द-धातन = धारण कराओ, युक्त करो, दो। इसके साथ महे रणाय= अत्यधिक रमण, आनन्द और चक्षसे = दर्शन शक्ति के लिए तुम उपयोगी हो।

विशेष- इस वर्णन से ऐसा लगता है कि जैसे जल सामने बैठे हों, तब उनको ऐसा कहा जा रहा है। इस शैली से वस्तुतः जल सेवन करने वालों को सम्बोधित करते हुए सचेत किया जा रहा है कि जल इतना उपयोगी है।

व्याख्या- यहाँ आपः शब्द स्त्रीलिंग और बहुवचन में है। अर्थात् संस्कृत भाषा में आप शब्द स्त्रीलिंग के बहुवचन में ही प्रयुक्त होता है। अतएव इन मन्त्रों में नामपद के आधार पर सर्वनाम, विशेषण भी स्त्रीलिंग तथा बहुवचन में ही हैं। आपः शब्द आप्लृ (व्याप्तौ) धातु से बनता है। इसका अर्थ है- फैलना, बहना। जैसे कि प्रसिद्ध है कि जल स्वाभाविक रूप से निम्न प्रदेश की ओर विशेष रूप से बहते, जाते हैं। वे अपने आसपास के स्थल, लकड़ी , अनेक तरह के पात्रों , द्रव्यों को अपने प्रभाव से प्रभावित, गीला, आर्द्र करते हैं। हमारे शरीर जल से सम्पृक्त होने पर शीतलता, ठण्डक, गीलापन अनुभव करते हैं। यहाँ तक कि जल के संयोग से आने वाली वायु भी शीतल लगती है तथा जल वाला प्रदेश भी शीतल होता है।

मयोभुवः - जल पीने के रूप में, शुद्धि, सफाई का साधन बनने पर और सिंचाई में किस प्रकार वृद्धि, बढ़ोतरी, जीवन देकर सुखप्रद होते हैं, यह सर्वत्र स्पष्ट तथा प्रसिद्ध है। ऊर्जे- जलों से जान, शक्ति, चेतना आ जाती है। गर्मी में हर व्यक्ति प्यास लगने पर अनुभव करता है कि जल पीते ही जान आ जाती है। ऐसे ही कृषि- उत्पादों में यह और भी स्पष्ट है। महेरणाय- गर्मी में तैरने पर विशेष रूप में तथा सामान्यतः स्नान में जल आनन्ददायक लगते हैं। सारी जलन, गर्मी, थकावट दूर हो जाती है। चक्षसे- देखने अर्थात् नेत्रों के लिए जल विशेष सहायक होते हैं।

जब हम आँखों पर जल के छींटे या जल में नेत्रों को डालकर स्नान कराते हैं तो आँखें जहाँ ठण्डक अनुभव करती हैं, वहाँ नेत्र ज्योति भी जगमगाती है। महे को रणाय से अलग करके भी लिया जा सकता है। अर्थात् जल किसी की बढ़ोतरी, वृद्धि के लिए बहुत ही उपयोगी होता है। शरीरों से भी अधिक खेती के अन्नों और फलों में इसका प्रभाव स्पष्ट सामने आता है। अतः जल के अभाव में सूखे का असर किसी से छिपा नहीं हुआ है। जब कभी कहीं सूखा पड़ता है तो उसका दुष्प्रभाव तड़पाता है। अर्थात् सूखा सुखा देता है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

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