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लक्ष्मी की सही पूजा

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Laxmi ki Sahi puja

किसी चीज की पूजा करने का तात्पर्य होता है, उस चीज का सदुपयोग करना अथवा उसकी प्राप्ति करना। यहाँ लक्ष्मी की पूजा का मतलब है, जिन कार्यों के करने से लक्ष्मी की प्राप्ति हो, उन कार्यों को करना। जैसे सरस्वती की पूजा या प्राप्ति पढ़ने से होती है, वैसे ही लक्ष्मी की पूजा या प्राप्ति सच्ची लगन से मेहनत, परिश्रम व पुरुषार्थ करने से होती है। लक्ष्मी को अर्जित करना हो तो आप बुद्धिपूर्वक लगन के साथ परिश्रम व मेहनत करो, आपको लक्ष्मी अवश्य प्राप्त हो जायेगी। अधिकतर लोग लक्ष्मी की प्राप्ति भाग्य से मानते हैं। उनका कहना है कि मेहनत और पुरुषार्थ से तो मनुष्य ज्यादा से ज्यादा पेट ही भर सकता है। लेकिन लक्ष्मी तो जिसके भाग्य में लिखी होती है उसको मिलती है। यानि यह ईश्‍वर की इच्छा पर निर्भर है, कर्म इसमें आड़े नहीं आता। यह उनका कहना वैदिक सिद्धान्तों से सही नहीं है।

हमने कितने ही लक्ष्मीपतियों को देखा है जो पहले एक साधारण व्यक्ति ही थे, फिर अपनी बुद्धिपूर्वक ईमानदारी के साथ मेहनत व पुरुषार्थ करने से धीरे-धीरे लक्ष्मीपति बन गये। उदाहरण के तौर पर छाज्जूराम जो हरियाणा के एक छोटे से गाँव अलखपुरा में एक इतने गरीब जाट परिवार में पैदा हुए थे, जिसको बचपन में पेट भरने के लिये दो समय की रोटी भी नसीब नहीं थी। उसने बड़ी कठिनाई से तीन-चार क्लास तक की पढ़ाई गाँव की ही पाठशाला से की और फिर चौदह-पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में ही उसको मकान बनाने वाले मिस्त्री के नीचे ईंट व मिट्टी पकड़ाने का काम करना पड़ा। एक दिन बच्चा होने के नाते उससे मिस्त्री को कुण्डी (जिसमें पानी व मिट्टी घुली हुई होती है) पकड़ाते समय कुछ घुली हुई मिट्टी नीचे गिर गई। मिस्त्री ने गुस्से में आकर न आव देखा न ताव करणी जो उसके हाथ में थी, उस छोटे बच्चे छाज्जूराम के माथे में मार दी। उसके मारते ही छाज्जूराम के मन में अपने इस अपमानित जीवन से घृणा उत्पन्न हो गई और यह भाव जागृत होते हुए कि इस बेईज्जत जीने से तो कहीं बाहर जाकर भूखों मरना ही अच्छा है।

वह काम से छुट्टी पाने के बाद अपनी माँ के पास जाकर दुखित भाव से बोला कि माताजी! आप किसी प्रकार से भी पन्द्रह-बीस रुपयों की व्यवस्था कर देवें, मैं कलकत्ता जाऊँगा और वहाँ जैसे मेरे गाँव के वैश्य भाई रुपये कमाते हैं तो क्या मैं नहीं कमा सकूँगा? ईश्‍वर ने मुझे भी तो बल व बुद्धि दी है। मैं अपनी पूरी मेहनत और ईमानदारी से कलकत्ता जाकर काम करूंगा तो ईश्‍वर मुझे भी अवश्य सफलता देंगे। पहले तो माता ने अपने लाड़ले बच्चे को प्यार से गले लगाया और फिर बच्चे का दृढ़ निश्‍चय देखकर माता ने एक-दो बर्तन बेचकर पन्द्रह-बीस रुपयों की व्यवस्था कर दी और अपने होनहार बच्चे को ईश्‍वर से प्रार्थना करते हुए कलकत्ता के लिये बिदा कर दिया। वह बच्चा इतना मेहनती, बुद्धिमान, सच्चा, ईमानदार व कर्त्तव्यपरायण निकला कि कलकत्ता आते ही किसी अंग्रेज अफसर को अपने विनम्र व्यवहार से खुश करके एक हैसियत जूटमील में चौकीदार का काम करना शुरु कर दिया। उसी दिन से उसके जीवनकाल का उत्थान होना आरम्भ हो गया। उसी अफसर की सहानुभूति से वह हैसियत का अच्छा बड़ा दलाल बन गया और देखते ही देखते अपनी कार्य कुशलता के बल पर कलकत्ता के अच्छे धनी-मानी लोगों में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। कलकत्ता महानगर में खूब अच्छा व्यवसाय करके खूब धन कमाया, गाड़ी ली, कई मकान बनाये, खूब प्रतिष्ठा प्राप्त की। दान की प्रवृत्ति होने से उसने अनेकों स्कूल, कॉलेज, पाठशाला, अनाथालय व गऊशाला खुलवाकर बड़ा यश कमाया। यही कहानी सभी धनी लोगों के जीवन में घटित होती है। बिड़ला व डालमियां भी एक साधारण परिवार में उत्पन्न होकर अपने परिश्रम, ईमानदारी, लगन व पुरुषार्थ से भारत के शीर्ष धनाढ्य लोगों में गिने गये।

जो व्यक्ति लक्ष्मी को भाग्य की बात मानते हैं, उनको यह मालूम होना चाहिये कि भाग्य भी तो इस जन्म व पूर्व जन्म में किये हुए शुभ कर्मों का संचय (संग्रह) ही होता है। इसको अपने आप बन जाना मानना सिर्फ पुरुषार्थहीन लोगों की कोरी कल्पना मात्र है।

ईश्‍वर अपनी इच्छा से किसी को भाग्यवान् या भाग्यहीन नहीं बनाता। वह तो जीव के अच्छे व बुरे किये हुए कर्मों का फल ही देता है। ईश्‍वर सब विषयों से परे होने के कारण उसकी न कोई इच्छा होती है और न किसी से राग (लगाव) और न किसी से द्वेष होता है। उसका हर काम न्याययुक्त और पक्षपातरहित होता है। जीव जैसा भी कर्म शुभ या अशुभ करेगा उसी के अनुसार ईश्‍वर फल देगा। बिल्कुल ठीक कहा गया है-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।

वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार तो ईश्‍वर भी अपने नियम व व्यवस्था से बन्धा हुआ है। वह जीव को अपनी इच्छा से कम या ज्यादा फल दे ही नहीं सकता। यदि ऐसा न करे यानि अपनी इच्छा से किसी को कम और किसी को ज्यादा फल देवे तो उसकी न्याय व्यवस्था में दोष आ जाता है। कई हमारे पौराणिक भाई कह देते हैं कि ईश्‍वर सर्वशक्तिमान होने से वह अपने भक्तों को खुश करने के लिये या उनका दुःख हरण करने के लिये नौकर, नाई आदि भी बनता है। यह भी असम्भव है। इससे भी ईश्‍वर की न्याय व्यवस्था को आघात पहुँचता है। वेदोद्धारक महर्षि दयानन्त जी महाराज ने सर्वशक्तिमान का अर्थ यह बतलाया है कि ईश्‍वर अपने काम में किसी दूसरे का सहयोग नहीं लेता। वह सब काम अपनी शक्ति व सामर्थ्य से स्वयं ही करता है। सत्य तो यह है कि भाग्य किसी का भी ईश्‍वर अपनी इच्छा से नहीं बनाता। भाग्य मनुष्य अपने कर्मों से स्वयं बनाता है और उसका फल ईश्‍वर की न्याय व्यवस्था के अनुसार जीव को स्वयं ही भोगना पड़ता है। कर्म करने में जीवन स्वतन्त्र है और फल ईश्‍वर अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार उसको देता है यानि जीव फल भोगने में परतन्त्र है।

लक्ष्मी या धन क्या चीज है, इस विषय में एक उदाहरण प्रस्तुत है। जैसे एक मजदूर एक दिन में सौ रुपये कमाता है। उसमें से वह पचास रुपये खाने-पीने-पहनने में खर्च कर देता है। बाकी पचास रुपये बचा लेता है। यही पचास रुपये एक साल में अठारह हजार रुपये बन जाते हैं। इन्हीं अठारह हजार रुपयों को हम उसकी लक्ष्मी, धन या पूँजी कहते हैं। सही रूप में देखा जाए तो यह एक साल का संग्रह किया हुआ श्रम ही है। यदि वह अपनी पूरी कमाई सौ रुपये प्रतिदिन खर्च कर देता तो क्या उसके पास अठारह हजार रुपये बचे रहते? यही बात व्यापार, नौकरी व खेती में लागू होती है। खर्च करने के बाद जो बचे हुए रुपये हैं, उसी को हम धन या लक्ष्मी कहते हैं। यह संग्रहित परिश्रम ही धन या लक्ष्मी होता है, इसके अलावा और कुछ नहीं। वैसे ही पूर्व जन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म करता है उसका फल कुछ तो उसी जन्म में उसको मिल जाता है और कुछ शुभ या अशुभ कर्मों का फल उस जन्म में जीव जो नहीं भुगत पाता, वही संचित शुभ या अशुभ कर्म अगले जन्म में सौभाग्य या दुर्भाग्य के रूप में उसे भुगतने पड़ते हैं।

यदि किसी मनुष्य के संचित शुभकर्म भुगतने बाकी रह जाते हैं तो वह सौभाग्यशाली कहलाता है और जिसके बुरे कर्म भुगतने बाकी हैं वह दुर्भाग्य वाला कहलाता है, जो उसको इस जन्म में भुगतने पड़ते हैं। यह शुभ या अशुभ कर्म जो हमारे ही किये होते हैं उनका हमें जो प्रतिफल मिलता है वही हमारा भाग्य कहलाता है, इसलिये यह भाग्य हमारे ही किये हुए कर्मों का फल हुआ न कि ईश्‍वर की इच्छा। वेद में कर्म का सिद्धान्त स्पष्ट है- कृतं मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहितः। ईश्‍वर जीव से कहता है कि तू दाहिने हाथ से कर्म व पुरुषार्थ कर तो बायें हाथ में विजय, सफलता या फल निश्‍चित है। मैं किसी से भी राग, द्वेष, अन्याय व पक्षपात नहीं करता। - खुशहालचन्द्र आर्य (दिव्ययुग- नवंबर 2012)

Those who believe Lakshmi to be a matter of luck, they should know that luck is also an accumulation (auspicious) of auspicious deeds done in this birth and previous birth. To believe it to be on its own is just a mere imagination of people without effort.