शरदऋतु की समाप्ति में (दीपावली अमावस्या के पश्चात्) केवल पन्द्रह दिन शेष रहते हैं। पन्द्रह दिन पीछे सर्वत्र हेमन्त ऋतु का राज्य होगा और शीत का शासन सबको स्वीकार करना होगा। शीत लगने पर जनता को कुछ विशेष समारम्भ (तैयारियाँ) करने पड़ते हैं। वर्षा ऋतु में घर-बार विकृत, मलिन और दुर्गंन्धित हो जाते हैं। बरसात के अन्त में उनकी संशुद्धि और स्वच्छता की आवश्यकता होती है। वायुमण्डल का संशोधन हवन-यज्ञ से होता है और घर-बार की स्वच्छता लिपाई-पुताई से की जाती है। इसी समय सावनी की फसल का आगमन होता है। किसान के आनन्द की सीमा नहीं है। उसका घर अन्न-धान, माष, मूंग, बाजरा, तिल और कपास से भरपूर होने को है। इस अवसर पर श्रौत और स्मार्त सूत्रों में गोभिलगृह्यसूत्र तृतीय प्रपाठक सप्तखण्ड 7-24 सूत्र, पारस्करगृह्यसूत्र द्वितीय काण्ड 17वी कण्डिका 1-17 सूत्र, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र 19 काण्ड, मानव गृह्यसूत्र तृतीय खण्ड तथा मनुस्मृति के अध्याय 4.26में नवसस्येष्टि या नवान्नेष्टि (नव=नवीन+सस्य=फसल वा खेती इष्टि=यज्ञ अर्थात् नवीन फसल के अन्न का यज्ञ) करने का विधान है। इन सब कार्यों के लिए कार्तिक बदि अमावस्या तिथि प्राचीन काल से नियत चली आती है, उसको दीपावली भी कहते हैं। वैसे तो प्रत्येक अमावस्या को दर्शेष्टि यज्ञ करना कर्मकाण्ड ग्रन्थों में विहित किया गया है। किन्तु कार्तिकी अमावस्या को दर्शेष्टि और नवसस्येष्टि दोनों इष्टियों का विधान है। क्योंकि उनसे इस अवसर पर वर्षा ऋतु में विकृत वातावरण की विशेष संशुद्धि अभीष्ट है। वर्षा के अवसान पर दलदलों के सड़ने, मच्छरों के आधिक्य तथा आर्द्रता (नमी) के कारण ऋतुज्वर (मौसमी मलेरिया बुखार) आदि रोग बहुत फैलते हैं। इसलिये इस ऋतु में शारदीय पूर्णिमा, विजयादशमी और दीपावली इन तीन पर्वो के होम-यज्ञों से उन रोगों का अनागत प्रतिकार भी अभिप्रेत है।
जैसे शारदीय आश्विन पूर्णिमा की चान्दनी वर्ष भर की बारह पौर्णमासियों में सर्वोत्कृष्ट होती है, उसी प्रकार कार्तिकीय अमावस्या के अन्धकार पर मृच्छकटिककार शूद्रक कवि की निम्नलिखित उक्ति पूरी उतरती है-
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि, वर्षतीवाञ्जनं नभः।
असतस्पुरुषसेवेव दृष्टिर्विफलतां गता॥
अर्थात् अन्धियारी अंगों पर पुत सी गई है, आकाश अञ्जन सा बरसा रहा है, दृष्टिशक्ति इस प्रकार निष्फल (बेकार) हो गई है जिस प्रकार असज्जन की सेवा व्यर्थ जाती है।
ऐसी घनी अन्धियारी रात्रि में नवीन सावनी सस्य के आगमन से प्रमुदित कृषि प्रधान भारतवर्ष में मानो सस्य (फसल) के स्वागत के लिए दीपमाला का उत्सव मनाया जाता है। यह दीपमाला भी गृहों की वर्षाकालीन आर्द्रता के संशोषण से उनके संशोधन में सहायक होती है।
आज राजप्रसाद से लेकर रंककुटीर तक की शोभा अपूर्व है। प्रत्येक नगर और ग्राम का प्रत्येक आर्य घर परिमार्जन और सुधा (कली और चूना) वा पिण्डोल मृत्तिका के लेपन से श्वेत रूप धारण किए हुए है। प्रत्येक अट्टालिका, आंगन और कक्ष्या (कोठरी) में दीपपंक्ति जगमगा रही है। धनियों के बहुमूल्य कांचमय प्रकाशोपकरणों से लेकर दीपों के दीवलों (मृण्मय तेल के छोटे-छोटे दीपकों) तक की कृत्रिम ज्योति प्रकृति के प्रगाढान्धकार से स्पर्द्धा (होडा-होडी) कर रही है। पुरुषोत्तमप्रिया के कृपापात्रों के भवन नाना व्यञ्जनों और विविध मिष्ठान्नों की सरल सुगन्ध से परिपूर्ण हैं, तो लक्ष्मी के कृपाकटाक्ष से रञ्जित दीनालय धान्य की खीलों से ही सन्तुष्ट हैं। संक्षेपतः आज प्रत्येक आर्य परिवार ने अपने गृह को अपने सामर्थ्य के अनुसार मनोहर बनाने का भरपूर प्रयत्न किया है।
आज वर्ष के प्रथम शस्य (श्रावणी शस्य) के शुभागमन के अवसर पर गृहों को शोभा और समृद्धि के आवास योग्य बनाना स्वाभाविक और समुचित ही था। यही लक्ष्मी की पूजा थी, क्योंकि पूजा का वास्तविक भाव योग्य को योग्य स्थान प्रदान ही है। आज नवशस्य के शुभागमनावसर पर शोभा और समृद्धि को उसका योग्य स्थान प्रदान (शोभा की समुचित स्थान और अवसर पर स्थापना) ही उसकी वास्तविक पूजा है। किन्तु तत्व के परित्याग और रूढि की आरूढता के युग पौराणिक काल में लक्ष्मी की पूजा का यह तत्त्वांश अन्तर्दृष्टि से तिरोहित हो गया और उसके स्थान में उलूकवाहना की षोडशोपचारपूजा प्रचलित हो गयी है। उसके वाहन (मूढ़ता के साक्षात् स्वरूप उल्लू महाराज) ने उसके उपासकों की बुद्धि पर ऐसा अधिकार जमाया कि वे अपनी उपास्या देवी के आगमन की प्रतीक्षा में दिवाली की सारी रात जागरण (रतजगा) करते हैं। प्रायः बुद्धि-विशारद भक्त शिरोमणि तो निद्रा के अपसारण के लिए रात्रि भर द्यूतक्रीडा में रत रहते हैं। मनःकल्पित लक्ष्मी की प्रतीक्षा करते हुए भी साक्षात् लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) को वे द्यूत द्वारा दुत्कारते हैं, तिरस्कारपूर्वक उसको घर से धक्का देते हैं तथा ‘अक्षैर्माःदीव्यः’ इस अथर्ववेद की कल्याणी वाणी का प्रत्यक्ष प्रतिवाद कर अनादर करते हैं।
किन्तु इस दीपमाला की महारात्रि का महत्व एक महाघटना ने और भी बढ़ा दिया। इसी के सायंकाल विक्रमी सं. 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर सन् 1883 ई. मंगलवार को वीर विक्रम की 20वीं शताब्दी के अद्वितीय वेदोद्धारक और वर्तमान आर्यसमाज के संस्थापक तथा आचार्य महर्षि दयानन्द की उच्च आत्मा ने अपने नश्वर शरीर का त्याग करके जगज्जननी के क्रोड में आश्रयण का आनन्द प्राप्त किया था। महापुरुषों का देहावसान साधारण मनुष्यों की मृत्यु के समान शोकजनक और रुलाने वाला नहीं होता। उनका प्रादुर्भाव और अन्तर्धान दोनों ही लोककल्याण और आनन्द प्रदान के लिए होते हैं।
महापुरुषों का इस लोक में आगमन तो लोकाभ्युदय के लिए ही होता है। किन्तु उनका इहलोक लीला-संवरण भी आनन्द का हेतु होता है। वे परोपकार में अपने प्राणों को अर्पण करते हैं, इसलिए जनता उनके बलिदान पर उनकी कीर्ति का कीर्तन और गुणगान करके एक प्रकार का आनन्दानुभव करती है। उनका बलिदान स्वयं जनता के लिए परोपकारार्थ देहोत्सर्ग का उत्तम आदर्श स्थापित करके जनता के अनुकरण हेतु उदाहरण प्रस्तुत करके सुख का संयोजन करता है। इस पाञ्चभौतिक शरीर को त्यागते हुए उनकी आत्मा स्वयं भी सन्तोष और आनन्द लाभ करती है। सन्तोष इसलिए कि वे अपने इस लोक में आने का उद्देश्य पूर्ण करते हुए अपने इस लोक के जीवन को परोपकार में विसर्जन कर रहे हैं। और आनन्द इसलिए कि उनका जीवात्मा इसलिए कि उनका जीवात्मा प्राकृतिक बन्धनों से मोक्ष पाकर परमपिता के संसर्ग का संयोग प्राप्त कर रहा है तथा साथ ही अपने प्रभु की इच्छा को पूर्ण कर रहा है। ‘प्रभो तेरी इच्छा पूर्ण हो’ महर्षि दयानन्द के अन्तिम शब्द यही थे। किसी उर्दू के कवि ने कहा है-
राजी हैं हम उसी में जिस में तेरी रजा है।
अतः आज महर्षि दयानन्द के गुणानुवाद का अवसर उपस्थित है। महर्षि दयानन्द के भारतीय जनता पर इतने असंख्य और अनन्त उपकार हैं कि लेखनी उनके लिखने में असमर्थ है। जिस प्रकार समुद्र की विस्तृत बालुका में असंख्य और अनन्त कण होते हैं और जिस प्रकार दिनकर की किरणावली की गणना नहीं हो सकती, उसी प्रकार महापुरुषों की गुणावली गणनातीत और महिमा अप्रेमय होती है। विचारक उस पर विचार और मनन करते रहते हैं। कवि उसका कीर्तन करते रहते हैं। गायक उसके गाने से स्वरचना को रसवती और पवित्र करते हैं और संसारी जन उनसे शिक्षा ग्रहण करके अपना जन्म सुधारते हैं। सच पूछिये तो इस संस्कृति सागर में महात्माओं की चरितावली ही तरणी है और उनके आदर्श कर्म ही ज्योतिस्तम्भ हैं, जो भूले-भटके बटोहियों को मार्ग दिखलाते और पार लगाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की जीवनी न जाने कितने कवीश्वरों के वाग्विलास का विषय बनी है। संस्कृत और हिन्दी काव्यों का प्रचुर भाग श्री रामचन्द्र के गुणानुवाद से ही व्याप्त हैं। रामकथा ने न जाने कितने पथिकों को सत्पथ दिखलाया है।
योगीराज श्रीकृष्ण की भगवद्गीता का कर्मयोग सहस्रों आलसियों और उदासियों को कर्ममार्ग में प्रवृत्त करके कर्मण्य और कर्मवीर बना रहा है। भगवान तथागत का जीवन करोड़ों नर-नारियों और राव-रंकों के लिए शान्तिप्रद बना है। कहाँ तक गिनाएं, संसार की सिरमौर भारत वसुन्धरा तो ऐसे अनेक महात्माओं के गुणगान से गुञ्जायमान है।
आज हमारे लिए भी एक महात्मा के गुणगान से अपने कर्णकुहरों को पवित्र करने और उनसे शिक्षा ग्रहण करने का सुयोग पुनरपि प्राप्त है। आओ! आज आचार्य दयानन्द के पवित्र चरित्र की कुछ विशेषताओं पर विचार करके अपने समय का सदुपयोग करें।
आदित्य ब्रह्मचारी दयानन्द के जीवन पर विचार करते हुए एक विचारक की दृष्टि से कर्मयोगी के नानारूप जिनमें उस कर्मवीर ने अपनी सारी आयु व्यतीत कर दी, तिरोहित (ओझल) नहीं रह सकते। निश्चित कार्य पद्धति को ग्रहण करके क्रमबद्ध कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर विविध रूपों में उस उपकारी ने जनता का उपकार किया है। - भवानी प्रसाद मिश्रा (दिव्ययुग- नवंबर 2012)
Maharishi Dayanand has so many and everlasting favors on the Indian public that his writing is unable to write. Just as the vast sand of the sea contains innumerable and everlasting particles, and just as Dinkar's rays cannot be counted, similarly the virtues of great men are countable and glorious.