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पानीपत क्यों हारे?

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Panipat kyu hare 0

14 जनवरी 1761 मकर संक्रान्ति का युद्ध
14 मार्च 1760 । 10 जनवरी 1760 को बरारी घाट में दत्ताजी शिन्दे की मृत्यु और मल्हारराव होलकर की 4 मार्च 1760 को सिकन्दराबाद में घोर पराजय के समाचार पेशवा को 13 मार्च को मिले। पेशवा से प्रार्थना की गई कि बिना किसी बड़ी सेना और तोपखाने के अब्दाली का सामना करना असम्भव है। अतः 14 मार्च 1760 को सदाशिवराव भाऊ पटदुर (महाराष्ट्र) नामक कस्बे से 30,000 घुड़सवार, इब्राहिम गार्दी के नेतृत्व में एक विशाल तोपखाना, गार्दी के 9000 पैदल सैनिक लेकर चला। गार्दी और उसका भाई आरमीनिया के ईसाई थे और कलकत्ते में बस्ती बसाकर रहते थे। फ्रांसीसी बुसी की कमान में निजाम की सेना में भरती हुए और निजाम के आग्रह पर मुसलमान बन गये। इब्राहिम के 9000 पैदलों में 2000 आरमिनियन ईसाई थे और बाकी 7000 हैदराबाद के मुसलमान थे।

मराठे पराजय साथ लेकर चले- महाराष्ट्र से जब यह सेना निकली तब पेशवा के चित्तपावन परिवारोें की 12,000 महिलाएँ मार्ग में पड़ने वाले तीर्थों के दर्शन-स्नान का पुण्य लेने साथ हो लीं। इनमें सरदारों और राजपरिवार की 700 महिलाएं तो पालकियों में चलती थीं। इनके भोजन, स्नान आदि के लिये 8000 अन्य सेविकाएँ भी रखी गईं जो सभी ब्राह्मण थीं। क्योंकि चित्तपावन ब्राह्मण महिलाएँ मराठा महिलाओं के हाथ का छुआ भोजन-पानी कुछ नहीं खाती थीं। इन 20,000 महिलाओं की पालकियों के कहार, बैलगाड़ियाँ, उनके चलाने वाले, मरम्मत करने वाले, चारा-पानी वाले सब मिलाकर 30,000 अन्य सैनिक भी साथ हो गये। भारी तोपों के लिये मार्ग समतल करने वाले, शिविर लगाने वाले, शिविर के सैनिकों के लिये बाजार लगाने वाले, अन्न खरीदकर शिविर तक पहुँचाने वाले बनजारे मिलाकर 50,000 अन्य लोग भी जुट आये। उस युग में चोर-डाकुओं से लुटने का डर और तीर्थों में धर्मांध मुसलमानों के आक्रमण के भय से तीर्थ-यात्रा करना याने मौत के मुँह में जाना था। मराठा सेना के कारण तीर्थ-यात्रा निर्विघ्न होनी थी और भोजन मुफ्त व सरलता से मिलना था। इस कारण 50,000 ब्राह्मण तीर्थयात्री भी सेना के साथ हो गये। इस प्रकार डेढ़ लाख असैनिक और 50,000 सैनिकों का यह विशाल नगर दिल्ली की ओर चला तथा साढे चार माह बाद 1 अगस्त 1760 को दिल्ली पर कब्जा किया। तीन माह उन्होंने ओंकारेश्‍वर, उज्जैन, मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना आदि सारे तीर्थों में स्नान-पूजन में बिताये।

बनजारे प्रतिदिन जो भोजन सामग्री लाते थे उसका तीन भाग तो ये तीर्थयात्री, महिलायें और उनके सेवक डकार जाते थे। दिल्ली पहुँचने तक मराठा सेना की सारी खाद्य सामग्री और चारा समाप्त हो गया। (शेजवलकर का पानीपत पृष्ठ 147)

दिल्ली में जाट सूरजमल, शिन्दे, होलकर की सेनाएँ भी इनसे आ मिलीं। दिल्ली नगर में मराठे और यमुना पार अब्दाली की सेनाएँ डेरा डाले हुए थीं। भाऊ को तुरन्त यमुना पार कर अब्दाली पर आक्रमण करना था, किन्तु वह दो महिने दिल्ली में पड़ा रहा। यहाँ उसे अन्न व चारे का अभाव झेलना पड़ा। दिल्ली पर कब्जे के समय अब्दाली के 2000 सैनिक पकड़े गये। दया की प्रार्थना करने पर इन्हें अपने सेनापति याकूब अली के साथ हथियारों सहित जाने दिया गया। इन्हें मार दिया जाता तो पानीपत युद्ध में दो हजार शत्रु तो कम होते और इनके शस्त्र-घोड़े मराठों को मिलते। (शेजवलकर का पानीपत पृष्ठ 82 और 84, विश्‍वास पाटिल का पानीपत पृष्ठ 256)

अन्न व चारे की व्यवस्था के लिये भाऊ ने दिल्ली के आसपास के प्रदेशों में प्रयास किया, किन्तु यहाँ बलोच व मुसलमान बसे थे। इन्होंने अन्न व चारा देने से इन्कार कर दिया। राजपूत व अहीरों से जबरन लेना चाहा तो वे चारे की गंजियों में आग लगाकर अपने परिवारों व अन्न को ले भरतपुर की ओर भाग गए। राजपूतों के असहयोग पर भाऊ ने एक पत्र अपने सरदारों को लिखा कि अभी इनसे मत उलझो, अब्दाली को हराने के बाद इन्हें देखेंगे। इस पत्र की भनक राजपूतों को लग गई। इस कारण सहयोग के लिये भाऊ ने जब जयसिंह के माधोसिंह, छत्रसाल के लड़के हिन्दूपत, कोटा-बून्दी के राजपूतों को लिखा तो उनमें से एक भी मदद को नहीं आया। (शेजवलकर का पानीपत पृष्ठ 73-131)

भाऊ को फारुख नगर में बसे इन बलोच मुसलमानों को मार डालना था और अन्न-चारा छीन लेना था। किन्तु बादशाह की प्रजा होने के कारण और बादशाह के सख्त हुक्म के चलते इन्हें नहीं मारा गया। पानीपत युद्ध की पराजय के बाद इन्हीं बलोचों ने अपने प्राण बचाकर भागते अन्ताजी मनकेश्‍वर और हजारों थके घायल मराठों को मार डाला था। (शेजवलकर का पानीपत पृष्ठ 170)

भाऊ ने उत्तर में सैनिक भरती करने का प्रयास किया, किन्तु मराठों की लूटमार से दुखी एक भी राजपूत, बुन्देला, अहीर भरती होने नहीं आया। तब उत्तर प्रदेश के मुसलमान भरती किये गये। अब्दाली को जब इस भरती का पता लगा तो उसने अपनी सेना के 2000 अफगान भाऊ की सेना में भरती होने भेज दिये। इन्हीं ने एन युद्ध के समय मराठा शिविर के पिछले भाग में हत्याकाण्ड प्रारम्भ कर गड़बड़ी फैलाई थी। (शेजवलकर का पानीपत पृष्ठ 96)

गुलामी की घोषणा- पिछले वर्ष मुगल बादशाह आलमगीर की हत्या हो गई थी। भाऊ ने राजकुमार अली गोहर को शाहआलम द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठाया। शाही सवारी का जुलूस जामा मस्जिद की ओर चला। हाथी पर बैठे बादशाह के पीछे मराठा सरदार सतवोजी जादव मयूर पंख का मुगल राजचिह्न हाथ में लेकर खड़ा हुआ। भाऊ ने बादशाह के नाम के सिक्के ढलवाये और मोहरें तैयार करवाईं। सारा आयोजन नाना पुरन्दरे की देखरेख में सम्पन्न हुआ। बादशाह की दादी जीनत महल को खर्च के लिये 25 लाख देने की घोषणा हुई ओर 5 लाख रुपये तुरन्त दे दिये गये। ये समाचार पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तक फैल गये और हिन्दुओं को लगा कि भाऊ या पेशवा पूर्ण रूप से मुगलों के अधीन सरदार मात्र है।

भाऊ के दिल्ली पर कब्जा करते ही पंजाब के सिखों ने अफगानों के विरुद्ध युद्ध शुरु कर दिया था। जम्मू में शरण लिये लिये कृष्णाजी पंवार की मराठा सेना जम्मू के राजा रणजीतदेव के साथ पहाड़ों से उतरी। उन्होंने पटियाला के आलासिंह जाट के साथ मिलकर अटक तक की अफगान चौकियाँ काट फेंकी और सदाशिव भाऊ के भावी सम्राट बनने की घोषणा डुग्गी पीट-पीटकर कर दी। किन्तु नवीन समाचार ने सभी को निराश कर दिया। (शेजवलकर का पानीपत पृष्ठ 100-101)

7 अक्टूबर 1760 । डेढ़ लाख असैनिक तीर्थयात्रियों तथा महिलाओं और एक लाख सैनिकों हाथी, घोड़ों, ऊँटों, तीर्थयात्रियों की बैलगाड़ियों के बैलों के प्रतिदिन की भोजन आपूर्ति एक समस्या बन गई थी। इधर महिलाओं तथा तीर्थयात्रियों को न तो विदेशी शत्रु अब्दाली से युद्ध की कोई चिन्ता थी न भोजन की। वे तो हाय-तोबा मचा रहे थे कि सूर्य ग्रहण निकट आ रहा है, इस अवसर पर कुरुक्षेत्र तीर्थ स्थान का पुण्य लाभ लिया जाए। महाराष्ट्र से इतनी दूर आए हैं तो यह अवसर चूकना नहीं चाहिये। भाऊ और सरदारों का कहना था कि मौत तो यमुना के उस पार तैयार खड़ी है और तुम्हें स्नान की पड़ी है। तब महिलाओं और तीर्थयात्रियों का कहना था कि भाऊ ! एक बार सूर्यग्रहण पर तीर्थस्नान कर लेने दो, डेढ़ लाख ब्राह्मणों के श्राप से अब्दाली सेना सहित भस्म हो जायेगा। (विश्‍वास पाटिल पृष्ठ 396)

घमण्डी भाऊ ने स्वयं के पैरों पर कुल्हाड़ी मारी- तीर्थयात्रियों के अत्यधिक दबाव से भाऊ ने दिल्ली से आगे बढ़ने का विचार किया। इसके लिए दिल्ली की व्यवस्था जरूरी थी। भरतपुर के सूरजमल का कहना था कि दिल्ली मुझे सौंप आप निश्‍चिन्त हो आगे बढ़िये, एक-एक जाट कट मरेगा किन्तु अब्दाली को दिल्ली पर कब्जा नहीं करने देगा। इसके साथ ही आपका पृष्ठ भाग भी सुरक्षित रहेगा और चारा रसद व समाचारों की आवाजाही भी नहीं रुकेगी। मल्हारराव का कहना था कि समस्त महिलाओं को भरतपुर या ग्वालियर भेज दिया जाए और फिर चलित युद्ध लड़ा जाये। इस पर घमण्डी भाऊ ने भरे दरबार में जाट राजा सूरजमल और मल्हारराव होल्कर का अपमान करते हुए कहा कि- “हल चलाने वाले (जाट) ओर भेड़-बकरी चराने वाले (होल्कर) हमें युद्ध लड़ना सिखाएंगे।’’ अपमान से दग्ध सूरजमल उसी दिन अपनी 30,000 सेना ले भरतपुर लौट गए। (विश्‍वास पाटिल पृष्ठ 256 एवं शेजवलकर पृष्ठ 92)

भाऊ ने दिल्ली का सूबेदार नारोशंकर को एवं किलेदार बालोजी पल्हाण्डे को नियुक्त किया जो दोनों योद्धा जाति के न होकर भाऊ की जाति के कोंकणस्थ थे और दोनों भाऊ की सेना को दिल्ली से अन्न-चारे की पूर्ति और संवाद सम्पर्क भी कायम नहीं रख सके। पानीपत में पराजय के बाद दोनों को 3000 मराठा सेना के साथ दिल्ली की मुसलमान प्रजा ने लाठियों से ही मार-मारकर भगा दिया और मराठों से दिल्ली खाली करवा ली। और तो और दोनों अधिकारी मराठों का 3 लाख का खजाना भी दिल्ली में छोड़ भाग गये। (विश्‍वास पाटिल पृष्ठ 608)

दिल्ली में सूबेदार व किलेदार नियुक्त कर भाऊ 7 अक्टूबर 1760 को कुरुक्षेत्र की ओर सेना, महिलाओं और तीर्थयात्रियों को ले बढ़ गया।

कुंजपुरा पर हमला और तीर्थस्नान- मार्ग में भाऊ को पता लगा कि दिल्ली से 78 मील दूर अब्दाली के कब्जे में कुंजपुरा का किला है, जिसमें अब्दाली का खजाना व रसद-चारा भण्डार रखा है। भाऊ ने दिल्ली से उत्तर 36 मील पर सोनीपत और उससे 20 मील आगे पानीपत को पार किया। अब कुंजपुरा 22 मील रह गया था। 9 वें दिन 16 अक्टूबर 1760 को मराठा सेना कुंजपुरा पहुँची और आक्रमण कर दिया। तोपों की एक बाढ़ से किले की ईटों की दीवारें ढह गईं और रात के अन्धेरे में मराठा सेना ने किले में घुसकर मारकाट शुरु कर दी। प्रातः तक 10,000 अफगान मारे गये और अब्दुल समद खाँ व कुतुबशाह 5000 अफगानों के साथ पकड़े गये। अब्दुल समद खाँ व कुतुबशाह के सिर काट सारी सेना में घुमाया गया। दोनों के पुत्रों को जीवित पकड़े हुए 5000 अफगानों के साथ जाने दिया गया।

कुतुबशाह- इसने बुरारी घाट में दत्ताजी का सिर काटकर भाऊ के शिविर में भेंट किया था। इसके पुत्र को (जो अभी छोड़ा गया) अब्दाली ने 4 घण्टे हिन्दुओं के कत्लेआम की छूट दी थी। इसने मराठा शिविर व पानीपत के चारों ओर 50,000 हिन्दुओं का कत्लेआम किया।

अब्दुलसमद खाँ- इसे सरहिन्द में जम्मू के रणजीत देव व तीन सिख सरदार जसासिंह अहलूवालिया (वर्तमान कपूरथला राज्य का संस्थापक भाटी राजपूत), आलासिंह जाट (पटियाला राज्य का संस्थापक) तथा जस्सासिंह रामगड़िया ने पकड़ लिया था। जब सिख-राजपूत अफगानों का कत्लेआम कर रहे थे, पेशवा का भाई राघोबा दादा आ गया और कत्लेआम रोक दिया। राघोबा के साथ पूना से अब्दाली का चचेरा भाई अब्दुल रहमान भी आया था, जो पेशवा से स्वयं को अफगानिस्तान का बादशाह बनवाना चाहता था। सिख-मराठों तथा जम्मू के रणजीतदेव ने जब अटक तक का इलाका मुक्त कर लिया तो राघोबा अटक-पंजाब का शासन पकड़े गये अफगान सेनापति अब्दुल समद को और पेशावर अब्दाली के भाई अब्दुल रहमान को सुपुर्द कर पूना लौट गया।

आश्‍चर्य की बात थी कि मराठों ने विदेशी दुश्मनों पर तो विश्‍वास किया, किन्तु अपने सहायक सिख राजपूतों पर विश्‍वास क्यों नहीं किया? उन्हें पंजाब पेशावर क्यों नहीं सोंपा? इन दोनों ने राघोबा के लौटते ही पेशावर-पंजाब में अब्दाली को पुनः बुलाकर राजपूत-मराठा-सिखों का कत्लेआम शुरू कर दिया था।

कुंजपुरा लूट- कुँजपुरा में मराठों को 2 लाख मन गेहूँ, साढ़े दस लाख रुपये नगद, सोना-चाँदी, हथियार, गोला-बारूद, 5 तोपें, 5 हजार घोड़े-ऊँट-हाथी प्राप्त हुए। दो दिन बाद 19 अक्टूबर 1760 को विजयादशमी का त्योहार मराठों ने धूमधाम से मनाया। भाऊ को शमी वृक्ष की पत्ती न देकर लूट में मिलीं सोने की अशर्फियाँ सैनिकों ने भेंट में दीं।

सात दिन कुँजपुरा में रुक 25 अक्टूबर को भाऊ उत्तर की ओर बढ़ा, किन्तु अपने पीछे यमुना पार करने के अब्दाली के प्रयत्न को रोकने का कोई उपाय नहीं कर गया। उत्तर में सिख-राजपूत शक्ति अब्दाली और अफगानों के सफाये में लगी थी। इतिहासकारों का कथन है कि इन सिख-राजपूतों के पास एशिया के सर्वश्रेष्ठ एक लाख घुड़सवार थे। ये अमृत चखकर सिख बने थे और सिर पर कफन बान्धकर लड़ते थे। ये सारे सिख मराठों द्वारा दूसरी बार जीवित छोड़ दिये गये 5000 अफगानों के न मारने पर मराठों से नाराज हो गये और अपने घुड़सवारों के साथ पटियाला में ही रुक गये। भाऊ से मिलने आगे नहीं बढ़े। 28 अक्टूबर को भाऊ को समाचार मिले कि अब्दाली ने यमुना पार कर ली है और वह युद्ध के लिये मराठा सेना की ओर बढ़ रहा है। भाऊ ने एक दस्ता कुरुक्षेत्र भेजा ताकि स्नान को गई महिलाओं और ब्राह्मणों को ला सके और बाजीहरि के नेतृत्व में 5000 सैनिक दिल्ली की ओर अब्दाली की टोह लेने भेजे, जो भोजन करते समय अब्दाली की सेना द्वारा काट दिये गये। समाचार सुन भाऊ ने पानीपत में शिविर लगा मोर्चाबन्दी कर ली। अब्दाली भी भाऊ के सामने मोर्चाबन्दी कर बैठ गया। दोनों सेनाओं के बीच मात्र तीन मील का फासला था। (क्रमशः) - रामसिंह शेखावत

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