जिस भारत में आज हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं, इस भारत की गुलामी की बेड़ियाँ काटने के लिये अनेक वीरों और रणधीरों ने अपने जीवन को बलिदान किया। वे हंसते-हंसते फाँसी के फन्दे पर झूल गए या जेलों में सड़ते रहे। अपने आपको आजादी के लिए बलिदान देने वालों में पं. रामप्रसाद बिस्मिल भी एक थे।
पं. रामप्रसाद का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी सं. 1984 को शाहजहाँपुर के मुरलीधर तिवारी के यहाँ हुआ। वह आरम्भ से ही बुरी संगत में फंसकर बुरी आदतों यथा चोरी, धूम्रपान, भांग पीना, गन्दे उपन्यास पढ़ना आदि में समय नष्ट करने लगे। पकड़े जाने पर तथा सहपाठी के सुयोग्य मार्गदर्शन से इन गन्दी आदतों से छुटकारा मिला। मुन्शी इन्द्रजीत की प्रेरणा से आर्यसमाज के साथ जुड़े तथा नियमित आसन-प्राणायाम भी करने लगे। इससे आत्मविश्वास बढ़ा व शरीर भी बलिष्ठ हुआ। आर्य कुमार सभा के माध्यम से बच्चों को देशभक्ति की प्रेरणा दी जाने लगी। इस सभा से युवकों को आत्मरक्षा हेतु शस्त्र चलाना भी सिखाया जाता था। इसके साप्ताहिक अधिवेशनों में वाद-विवाद व भाषण के अतिरिक्त धार्मिक पुस्तकों को पढ़ा भी जाता था। इसी सभा के माध्यम से उन्होंने अपने प्रायः सभी साथियों को देशभक्त बना लिया। इन्हीं दिनों आर्यसमाज के एक संन्यासी स्वामी सोमदेव जी से इनका सम्पर्क हुआ। इन्हीं के मार्गदर्शन में आजादी के दीवाने क्रान्तिकारी युवकों का संगठन बनाया, इसमें पं. गेंदालाल दीक्षित उनके सहयोगी व मार्गदर्शक बने। इनसे न केवल बन्दूक इत्यादि चलाना सीखा, अपितु स्वाधीनता व क्रान्ति सम्बन्धी अनेक पुस्तकें भी पढ़ीं।
क्रान्ति के लिए भारी धन की आवश्यकता थी, जिससे शस्त्र खरीदे जा सकें। इसलिए काकोरी के पास गाड़ी में जा रहा सरकारी खजाना लूटा गया तथा इस पैसे से शस्त्र खरीदकर क्रान्ति की गतिविधियाँ तेज कर दी। सरकार के लाख यत्न करने पर भी वह न पकड़े जाते, यदि उनमें से ही एक साथी दुष्ट बनवारीलाल देशद्रोही बनकर भेद न खोलता। परिणामस्वरूप केवल एक चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी दस से दस देशभक्त दीवाने पकड़े गये। पुलिस अमानवीय अत्याचार करके भी कुछ उगलवा न सकी। न्याय का ढोंग अवश्य रचा गया तथा पूर्व निर्धारित दण्डस्वरूप फांसी की सजा सुना दी गई।
जेल में फांसी की कोठरी में भी वीर बिस्मिल ने अपनी दिनचर्या को बनाए रखा। प्रतिदिन प्रातः उठना, दण्ड-बैठक निकालना, सन्ध्या-हवन इत्यादि नियमित दिनचर्या थी। इतना ही नहीं, इस अवसर पर उन्होंने अपनी आत्मकथा भी उन्हीं दिनों लिख डाली। उनकी यह आत्मकथा जेल में फांसी की कोठरी में लिखी गई। कुल दो प्रथम आत्मकथाओें में से सम्भवता प्रथम आत्मकथा है, जो हिन्दी की न केवल श्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक है, बल्कि फांसी से मात्र तीन दिन पूर्व किस प्रकार जेल से बाहर भेज दी गई, यह विदेशी भी देखकर भोंचक्के रह गए। 19 दिसम्बर 1927 में फांसी देते समय जब अन्तिम इच्छा पूछी गई तो वीर बिस्मिल ने दहाडते हुए कहा कि “अंग्रेजी साम्राज्य का नाश हो, यही मेरी अन्तिम अभिलाषा है।’’ वे हंसते हुए स्वयं रस्सी गले में डाल विदा हुए। जाते जाते भी सन्देश दे गए कि कट-कटकर मरें, फिर भी सन्ध्या-हवन आदि दिनचर्या को न छोड़ें। उनको सच्चे मन से यदि हम याद करना चाहते हैं, तो उनकी अन्तिम इच्छा की पूर्ति के लिए अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हुए बुराइयों के नाश के लिए डट जावें। - डॉ. अशोक आर्य
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