दण्डकारण्य में भास्कर नाम का एक खरगोश रहता था। उसकी एक ही बेटी थी। वह बड़ी सुन्दर थी। गुलाबी और सफेद रंग, रोयेदार शरीर, लम्बे कान, मोटी पूँछ, गुलाबी प्यारी आँखें, जो भी उसे देखता मुग्ध हो जाता। भास्कर ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा था रूपा। वास्तव में वह अपने नाम के अनुरूप ही थी।इतना सम्मान पाकर रूपा को अभिमान होने लगा। वह अपने सामने सभी को तुच्छ समझने लगी। घमण्ड में वह दूसरों का अपमान भी करने लगी। एक दिन जब प्रीति नामक चुहिया उसके साथ खेलने आई तो अपनी आँखें चढ़ाकर रूपा बोली- “ओह! मैं तुम जैसे गन्दे जीवों के साथ नहीं खेलूँगी। न ही मैं तुम्हें सहेली बना सकती हूँ। ओह, क्या रूप-रंग पाया है, मटमैला-घिनौना.....। जाओ तुम तो अपने जैसे में ही शोभा पाओगी।’’
प्रीति को रूपा की यह बात बहुत ही बुरी लगी। उसने कठोर उत्तर भी देना चाहा, पर शालीनतावश बस इतना ही कह पाई- ’‘रूपा! यह शरीर तो जैसा भी है सुन्दर या कुरूप भगवान का दिया हुआ है। हम सब तो बस इस शरीर को गुणों से ही सुन्दर बना सकते हैं।’’
एक दिन रूपा अपनी सहेलियों के साथ अमलताश के पेड़ के नीचे बैठी थी। तभी उसकी निगाह पेड़ पर चढ़ते हुए गिरगिट पर गई। उस गिरगिट को देखते ही वह अपने नन्हें-नन्हें दाँत निकालकर हँस पड़ी और बोली- “वाह भाई वाह! क्या रूप पाया है जनाब ने।’’
गिरगिट ने जब यह सुना तो उसे बड़ा ही गुस्सा आया। गुस्से में अपनी पूँछ फटकारकर, आँखें निकालकर, रंग बदलकर वह जोर से बोला- “अरी घमण्डी! जरा ठीक से बात कर, सारा रंग-रूप तेरी ही बपौती नहीं है। छह-सात रंग बदलने का वरदान ईश्वर ने बस मुझे ही दिया है। घमण्ड करना बाद में, पहले जरा मेरी तरह रंग बदलकर तो दिखा।’’
रूपा कुछ कहने ही जा रही थी, पर गिरगिट की क्रोध से भरी आँखें देखकर उसकी सहेली ने उसे चुप कर दिया।
एक दिन हाथी का बच्चा विशू केले के नीचे बैठा आराम कर रहा था। रूपा उसकी पीठ पर चढ़ गई और फूदकते हुए बोली- “वाह-वाह! नाक हो तो विशू जैसी जमीन झाड़ती, आसमान छूती। पैर हों तो ऐसे लगें जैसे मकान के चार खम्भे ही चले आ रहे हैं। दाँत हों तो ऐसे तलवारों जैसे मुँह फाड़कर निकलते हुए...।’’
रूपा अभी कुछ और ही बोल रही थी कि विशू ने गुस्से में भरकर उसे अपनी सूँड से उठाया और दूर फेंक दिया। वह चिंघाड़कर बोला- “और यदि कोई हो तो विशू जैसा गलत करने वाले को तुरन्त दण्ड देने वाला।’’
विशू ने रूपा को इतने जोर से फेंका था कि वह केले के पेड़ से बहुत दूर एक गहरे गड्ढे में जा पड़ी। बरसात के दिन थे, गड्ढे में खूब पानी भरा था। रूपा उसमें डूबने लगी। तभी उसकी निगाह गड्ढे में रहने वाले राजेश मेंढक पर पड़ी। वह हाथ जोड़कर और रिरियाकर बोली- “भैया! मुझे अभी इस गड्ढे में से निकाल दो, नहीं तो मैं मर जाऊँगी।’’
मेंढक को रूपा पर दया आ गई। उसने उसे अपनी पीठ पर बैठाया और एक ही छलाँग में उसे साथ लेकर गड्ढे से बाहर निकल आया।
गड्ढे से बाहर निकलकर रूपा कराह उठी। उसकी एक आँख बुरी तरह दर्द कर रही थी, खुल ही नहीं रही थी। जैसे-तैसे उसने घर जाने के लिए कदम बढ़ाए, पर यह क्या? उसका दाहिना पैर तो आगे बढ़ ही नहीं रहा था। उससे एक कदम भी नहीं चला जा रहा था। रूपा सोच भी न पाई कि वह कैसे घर जाएँ? तभी उसकी निगाह सामने से आते मेंढक, गिलहरी और बतख के झुण्ड पर पड़ी। उसने लाख अनुनय-विनय की, पर उनमें से कोई भी उसे घर तक छोड़ जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। उन सभी को अपना अपमान याद आ रहा था। वह अपमान रूपा ने घमण्ड में भरकर समय-समय पर किया था। सच है कि घमण्डी की सहायता करने के स्थान पर सभी मुँह फिरा लेते हैं।
आखिर हारकर रूपा अकेले ही लँगड़ाती हुई घर की ओर चली। शिकारी कुत्तों, लोमड़ी आदि से बचती-बचाती घण्टों में वह घर पहुँच पाई। उसके माता-पिता उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखते ही वह बोले- “अरे बिटिया! इतनी देर से कहाँ रह गई थीं तुम?’’
रूपा ने रोते-रोते सारी बात बताई। भास्कर तुरन्त उसे लेकर प्रसिद्ध डाक्टर चिन्मय खरगोश के यहाँ गया। चिन्मय ने रूपा की आँख से एक लम्बा काँटा निकाला। काँटा निकालते ही खून की धार छूट पड़ी। बड़ी मुश्किल से खून निकलना बन्द हुआ। पैर पर भी प्लास्टर बाँधना पड़ा, क्योंकि हड्डी टूट गई थी।
दो महीने बाद रूपा का पैर तो ठीक हो गया, पर उसकी आँख हमेशा के लिए खराब हो गई थी। अन्त में चिन्मय डाक्टर ने भी कह दिया था- “अब यह आँख किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकती।’’
डाक्टर की बातें सुनकर घर आकर रूपा फूट-फूटकर रोने लगी। जिस सुन्दरता पर उसे बहुत गर्व था, वही अब सदैव के लिए समाप्त हो गई थी। रूपा कानी हो गई थी। आँख के कारण उसकी सारी की सारी सुन्दरता नष्ट हो गई।
निरन्तर आँसू बहाती हुई रूपा को भास्कर समझाने लगा- “बेटी! शरीर की सुन्दरता तो कभी भी नष्ट हो सकती है। उस पर गर्व करना मूर्खता ही है। हम स्वयं नहीं जानते कि हमारा सुन्दर शरीर कल किस स्थिति में होगा? न जाने कब कौन सा रोग, कौन सी विपत्ति इस शरीर पर आ पड़े।’’
पिता की बातें सुनकर रूपा सिसकते हुए बोली- “हाय! मैं तो कुरूप हो गई। अब कौन मुझे प्यार करेगा?’’
रूपा की माँ उसे समझाते हुए बोली- “बेटी! शरीर की सुन्दरता वास्तविक सुन्दरता नहीं है और शरीर की कुरूपता भी वास्तविक कुरुपता नहीं है। सच्ची सुन्दरता होती है गुणों में, व्यवहार में। तुम अपने मन को, व्यवहार को सुन्दर बनाओ। तब सभी तुम्हें प्यार करेंगे और सदैव-सदैव के लिए सम्मान भी करेंगे। हमेशा याद रखना कि अच्छा स्वभाव सुन्दरता की कमी को सहज ही पूरा कर देता है। उसके आकर्षण में बाँधकर सुन्दरता की याद भी नहीं आती, परन्तु सौन्दर्य की पराकाष्ठा भी अच्छे स्वभाव की कमी को पूरा नहीं कर सकती।’’
भास्कर खरगोश भी रूपा को समझाते हुए बोला- “स्वच्छता, सादगी और सुरुचि ये तीनों गुण जहाँ आ जाते हैं, वहाँ सुन्दरता भी दिखाई देने लगती है। तुम बाहरी चमक-दमक में न पड़ो, इसी सच्ची सुन्दरता को अपनाने का प्रयत्न करो।’’
रूपा अपने नथुने सिकोड़कर पूँछ हिलाते हुए बोली- ’‘हाँ! आप ठीक कहते हैं।’’ फिर वह अपने आँसू पोंछकर धीरे-धीरे वहाँ से चली गई। वह सोचती जा रही थी कि “मुझे अब अपने व्यवहार को सुन्दर बनाना होगा।’’ साभार- बाल निर्माण की कहानियाँ
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