आज समाज और देश के सामने सबसे बड़ा प्रश्न है, शिक्षा किसलिए दी जाये ? विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षा-विशारदों ने शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य बतलाए हैं । किसी विद्वान का मत है कि ‘विद्या के लिए विद्या है’, तो दूसरे विद्वान का कथन है कि आजीविका या व्यवसाय के लिए तैयार करना ही शिक्षा का उद्देश्य है । कई विद्वानों का मत है कि मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा अन्य सभी पहलुओं से विकास करना ही शिक्षा का उद्देश्य है । कुछ लोग सच्चरित्र निर्माण को शिक्षा का उद्देश्य मानते हैं । यह सभी उद्देश्य मिलते जुलते हैं ।
वैदिक ऋषियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य है मानव का सर्वांगीण विकास । अर्थात् मानव जीवन का जो उद्देश्य है, उस उद्देश्य तक पहुंचना ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए । मानव जीवन का उद्देश्य है, पुरुषार्थ=मोक्ष। इसके लिए हमें शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक सभी नियमों का ज्ञान होना चाहिए । घर में हम माता पिता के साथ कैसे व्यवहार करें, समाज में कैसे उत्तम नागरिक बनें, साथियों के साथ कैसा व्यवहार करें, आजीविका के लिए क्या करें, सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याओं का क्या हल निकालें । संक्षेप में हर बात में हम पूर्ण हों, किसी में अधूरे न रहें, यह वैदिक ऋषियों की शिक्षा का उद्देश्य है । यदि हम अपना सर्वांगीण विकास करते हुए पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकें, तो हमारी शिक्षा सफल शिक्षा है,अन्यथा नहीं ।
वैदिक ऋषियों ने इस उद्देश्य तक पहुँचने के लिए मनोवैज्ञानिक पद्धति भी बतलाई है। प्राचीन ऋषियों ने बालक के विकास के लिए 16 संस्कारों की कल्पना की थी । वास्तव में आजकल के मनोवैज्ञानिकों ने बालक के विकास की तीन अवस्थाएँ मानी हैं । जन्म से छ: वर्ष तक पहली अवस्था है, सात से बारह तक दूसरी और तेरह से अठारह तक तीसरी अवस्था है । वैदिक ऋषि इन विचारकों से और आगे पहुँचे हैं तथा उन्होंने बालक में उसके पिछले जन्म के संस्कारों की भी कल्पना की है और पिछले जन्म के संस्कारों को बदलना कठिन समझकर उन्होंने उनसे टक्कर लेने के लिए ही सोलह संस्कारों की पद्धति का निर्माण किया । यह सब संस्कार बालक पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रभाव डालते हैं। इन संस्कारों का प्रभाव निश्चित है, यह समझकर संस्कारों के दो भेद किए गए । एक वे संस्कार हैं, जो बालक के जन्म के पूर्व किए जाते हैं और दूसरे जन्म के बाद । जन्म के पूर्व के संस्कार हैं गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन और बाद के संस्कार हैं जातकर्म, नामकरण आदि। इन संस्कारों में कुछ तो शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किए जाते हैं और कुछ मानसिक विकास के लिए। उपनयन संस्कार का महत्व शिक्षा की दृष्टि से बहुत अधिक है । आजकल के मनोवैज्ञानिक शिक्षा के लिए निम्नलिखित वस्तुओं को आधार मानते हैं :-
1.परिस्थिति
2. शिष्य अथवा ब्रह्मचारी
3. गुरु अथवा आचार्य
4. अध्यापन के विषय
5. अध्यापन की विधि
आजकल की शिक्षा पद्धति के अनुसार विद्यार्थी का या बालक का समुचित विकास हो सके, इसके लिए उस पर परिस्थिति का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है । घर में माता-पिता बालक की शिक्षा पर उचित ध्यान नहीं दे सकते और यदि वे उचित ध्यान दे भी सकें, तो समूह में बालक उचित प्रतिद्वन्द्विता में पड़कर जितनी व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त कर सकता है, उतनी घर पर नहीं और घर के बाहर जाकर यदि उस बालक को घर जैसा वातावरण न मिला, तो भी उसका पूर्ण विकास नहीं हो सकता। इस समस्या का हल करने के लिए वैदिक काल में गुरुकुल पद्धति का निर्माण किया गया था। गुरुकुल का अर्थ है गुरु का कुल। ऋषियों का विचार था कि घर में शिक्षा समुचित रूपेण संभव नहीं। अत: बालक को शिक्षा प्राप्ति के लिए बाहर भेजा जाए। परन्तु बाहर भेजकर भी उसे एक घर से दूसरे घर में ही भेजा जाए, एक कुल से दूसरे कुल में भेजा जाये, एक परिवार से दूसरे परिवार में भेजा जाये । यही गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का आधारभूत तत्व था।
ये गुरुकुल उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत के अनुसार पर्वतों की उपत्यकाओं और नदियों के किनारे ऋषियों के आश्रमों में होते थे । वहाँ बालक पुस्तकों के अतिरिक्त प्राकृतिक परिस्थितियों से भी घिरा रहता था। यही आजकल की शिक्षा में ह्यूरिस्टिक मैथड (कर्शीीळीींळल चशींहेव) कहा जाता है । बालक वहाँ स्वयं सीखता है, परीक्षण करता जाता है और सीखता जाता है। वैदिक ऋषियों ने विद्यार्थी को शिक्षा का केन्द्र माना है । अत: इसे गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने की योजना बताई है। परन्तु यह गुरुकुल आजकल के होस्टलों के समान न थे। अत: इन अबोध बालकों की रक्षा के लिए, विकास के लिये वहाँ पर गुरुओं की व्यवस्था की गई थी। गुरु के पास विद्यार्थी उपनयन संस्कार द्वारा पहुँचता था। उपनयन संस्कार का यह तात्पर्य था कि आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्त: तं रात्रिस्तिस्र: उदरे विभर्ति अर्थात् आचार्य माता की तरह ब्रह्मचारी को तीन रात तक अपने अन्तेवास में पूरी देखरेख के साथ रखता है। यह है गुरु शिष्य का सम्बन्ध। यह विद्यार्थी ब्रह्मचारी होता था। ब्रह्म का अर्थ है ‘महान्’। जीवन में निरन्तर विकास करते जाना, आगे ही आगे बढते जाना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ ‘वीर्यरक्षा’ भी है। विद्यार्थी के मानसिक, आध्यात्मिक और शारीरिक विकास के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है। 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला वसु, 36 वर्ष तक पालन करने वाला रुद्र तथा 48 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला आदित्य ब्रह्मचारी कहाता था।
गुरु का महत्त्व शिक्षा के क्षेत्र में वैदिक ऋषियों ने अत्यधिक माना है। आचार्य का अर्थ है ‘आचारं ग्राहयति इति आचार्य:’ जो अच्छे आचार-विचार ग्रहण करावे, वह आचार्य है। छात्र शब्द भी इसी भावना का द्योतक है। छात्र का अर्थ है, जिसे छाया जाये. विघ्न बाधाओं से बचाया जाए, वह छात्र है। छात्र को अन्तेवासी अर्थात् गुरु के अन्दर बसने वाला भी कहते हैं। उपनयन संस्कार का भी यही भाव है। अत: वैदिक ऋषियों ने गुरुओं एवं आचार्यों के प्रति अपनी सद्भावना प्रकट की है।
वैदिक ऋषियों ने शिक्षा के लिये चरित्र निर्माण आवश्यक माना है और उनका कहना है कि मनुष्य को पहले ‘अपरा’ अर्थात् भौतिक विद्याओं का अध्ययन कर लेना चाहिये और उसके बाद ‘परा’ विद्या अर्थात् आत्मा की विद्या सीखनी चाहिए। पाठ्य विषय इसी आधार पर रखे जाते थे। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को एक विषय का विशेषज्ञ होना चाहिए और दूसरे विषयों का भी अच्छा ज्ञाता, जैसे तक्षशिला विश्वविद्यालय में पाणिनी, चाणक्य और जीवक थे।
वैदिक पद्धति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जिस अध्यापन विधि का उल्लेख किया है, उसका सारांश है कि विद्यार्थी को सबसे पहले वर्णों का ज्ञान कराना चाहिये। वर्णों के ज्ञान के बाद ‘स्वर’ अर्थात् उच्चारण का ज्ञान आवश्यक है । ‘वर्ण’ तथा ‘स्वर’ के ज्ञान के बाद मात्रा का ज्ञान कराया जाता है। ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत इन मात्राओं का ज्ञान शब्दोच्चारण में सहायक है। वर्ण, स्वर, मात्रा के बाद मात्राओं का ‘बल’ जानना आवश्यक है। संस्कृत आदि के ज्ञान में मात्राओं का अपना बल है। इसके बाद शब्द-ज्ञान में साम अर्थात् समता से उच्चारण करना आना चाहिए। बोलने का ढंग आना चाहिये । वर्ण,स्वर, मात्रा, बल और साम के ज्ञान के बाद सन्तान अर्थात् वर्णों से शब्द, शब्दों से वाक्य और वाक्यों से ग्रन्थ यही सन्तान है। शब्द और अर्थ का कल्पित सम्बन्ध ही तो ज्ञान है।
इसलिये ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह उपाय है। इस ज्ञान तक पहुँचने का उपाय भी संकेत रूप से महर्षि दयानन्द ने बतलाया है। उन्होंने न्याय-शास्त्र के अनुमान प्रकरण में लिखा है कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । एक वाक्य द्वारा इसे स्पष्ट किया जा सकता है। जैसे किसी ने पहाड़ पर धुँआ देखकर कहा कि वहाँ आग लगी है, यह प्रतिज्ञा है। क्यों ? उसने हेतु दिया कि ‘क्योंकि वहाँ पर धुँआ है’। धुँआ होने से क्या हुआ ? उसने उदाहरण दिया कि जहाँ धुँआ होता है वहाँ आग होती है, जैसे भोजनालय में। अत: यह सिद्धान्त निकला कि जहाँ-जहाँ धुँआ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है । इस प्रकार अपने कथन की सत्यता सिद्ध करने को उपनय कहते हैं और सिद्धान्त के बाद उसे सामने की घटना पर लागू करना यह निगमन होता है। आधुनिक शिक्षा की भान्ति श्रवण, मनन और निदिध्यासन भी शिक्षा के लिये आवश्यक था।
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