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नवसस्येष्टि पर्व दीपावली

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navsasyeshti parv deepawali

व्रत और त्यौहार क्या हैं? इनका उद्गम क्यों हुआ? आज धरातल पर निवास करने वाली प्रत्येक जाति यहाँ तक कि जंगलियों तक में किसी न किसी रूप में व्रत और त्यौहारों का प्रचार और आदर क्यों हैं? यह विचारणीय प्रश्‍न है। प्रत्येक जाति के व्रत और त्यौहार उसके इतिहास के दर्पण और उसकी परम्परा के परिचायक हैं। व्रत तो आज अन्धविश्‍वास के साथ जुड़ गए । त्यौहारों के साथ अनेक घटनाएं जोड़ दी गई, जिनके कारण त्यौहारों का वास्तविक स्वरूप खतरे में पड़ गया। किसी भी जाति के पर्व-त्यौहारों को देखकर हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि उस जाति में कितना ओज और शौर्य है।

आज हिन्दू जाति अपने त्यौहारों तथा पर्वों के असली स्वरूप को भूल गई और इन्हें मनाने में जिस शैथिल्य का परिचय दे रही है वह उसकी जातीयहीनता का द्योतक है। त्यौहार समष्टि जीवन को नवस्फूर्ति, जागृति, चेतना एवं उत्साह प्रदान करते हैं। विजयादशमी, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी और होली आदि हिन्दुओं के ऐसे ही प्रेरणादायक पर्व हैं। दीपावली इनमें प्रमुख है। यह भारत का अत्यन्त प्रसिद्ध एवं पुरातन सांस्कृतिक पर्व है।

दीपावली शब्द का अर्थ है-दीपकों की पंक्ति। हमारे प्रत्येक पर्व के साथ किसी न किसी वेद, पुराण या इतिहास प्रसिद्ध महापुरुष का जीवन अथवा उसके जीवन की कोई घटना सम्बद्ध है। दीपावली के मूल में भी इसी प्रकार की कई मान्यताएं विद्यमान हैं। होली के समान दीपावली भी भारत के कृषक समाज में एक समृद्धिपूर्ण नवजीवन का सन्देश लेकर आती है। इसी अवसर पर किसानों की खरीफ की फसल कटकर घर आ जाती है। किसान कह उठता है-होली लाई पूरी, दीवाली लाई भात। अर्थात् होली गेहूं की फसल लेकर आती है और दीवाली धान की। दीवाली का पर्व वर्षा-ऋतु को समाप्ति पर शरद्-ऋतु के आरम्भ होने पर विजयादशमी के 20 दिन बाद आता है। इसे शारदीय नवसस्येष्टि पर्व भी कहते हैं। वर्षा ऋतु में वृष्टि बाहुल्य से वायुमण्डल तथा घर-बार विकृत, मलिन और दुर्गन्धित हो जाते हैं। वायुमण्डल का संशोधन हवन यज्ञ से होता है और घर-बार की स्वच्छता लिपाई-पुताई से की जाती है।

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इन्हीं दिनों भावी शीत निवारण के लिए गरम वस्त्रों का प्रबन्ध करना पड़ता है। प्राचीन आर्य लोग नवीन फसल का यज्ञ किया करते थे। यह पर्व कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता था। इसी को दीपावली भी कहते थे। अमावस्या की अन्धियारी रात्रि में नवीन फसल के आगमन से प्रमुदित कृषि प्रधान आर्यावर्त में मानो नई फसल के स्वागत के लिए दीपमाला का उत्सव मनाया जाता था। लेकिन समय बीतता गया। दीपावली के साथ भी रामायण की घटना जोड़ दी गई। यद्यपि राम रावण वध और लंका विजय के बाद अयोध्या लौट आए थे। रामायण में यह समय फाल्गुन और वैशाख लिखा है । किन्तु लोगों में एक गलत धारणा बन गई कि राम वनवास से लौटकर दीवाली के दिन अयोध्या आए थे।

पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन समुद्र मन्थन से लक्ष्मी जी प्रकट हुईथी । इसी दिन नरकासुर का वध हुआ। सिक्खों के अनुसार छटे गुरु हरगोविन्द सिंह को औरंगजेब के कारागार से मुक्ति भी दीवाली के दिन मिली थी। जैन सम्प्रदाय के लोगों का विचार है कि जैनियों के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने दीवाली को निर्वाण प्राप्त कियाथा । स्वामी रामतीर्थ ने भी इसी दिन बन्धनमय लौकिक जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी । इस प्रकार सांसारिक बाधाओं और बन्धनों का विनाशक लक्ष्मी प्रदाता दीपावली पर्व अपने साथ कई युगों का इतिहास समेटे हुए है।

वैदिक विचारधारा इस पर्व को शारदीय नवशस्येष्टि पर्व ही स्वीकार करती है। किन्तु इस दीपावली की महारात्रि का महत्व आर्यों के लिए एक घटना ने और भी बढा दिया है। 29 सितम्बर 1883 को ऋषिवर दयानन्द को दूध में कांच व विष पिला दिया गया। यह कृतघ्नता की पराकाष्ठा थी कि अमृत के बदले विष दियागया । लाहौर आर्यसमाज ने उपप्रधान जीवनदास व युवक गुरुदत्त विद्यार्थी को महर्षि की सेवा के लिए अजमेर भेजा गया। जब महर्षि दयानन्द जी मुलतान आए थे तो गुरुदत वहीं पढता था। तब गंगा घर आई प्यासा-प्यास न बुझा न पाया। अब प्यासा स्वयं गंगा के पास जा रहा है। 29 अक्तूबर सायं अजमेर पहुंच गए। ऋषिवर ने 30 अक्तूबर सन् 1883 ई. मंगलवार को सब भक्तों को पीछे खड़े होने का आदेश दिखा। केवल 19 वर्ष के युवक गुरुदत्त को कमरे में ठहराए रखा। ऋषि की तीक्ष्ण दिव्य दृष्टि ने आर्यों के समूह में इस रत्न को पहचान लिया था।

पास बुलाकर स्नेह के दो-चार शब्दों में कुछ कहा भी। अपने मुक्तिधाम जाने से पूर्व जब ऋषि ने उन्हें अपने निकट रहने दिया, उस समय उस कमरे में सर्वव्यापक प्रभु, महर्षि और गुरुदत्त बस यही तीन ज्योतियाँ विद्यमान थी। गुरुदत्त को ऐसा लगा जैसे एक दयानन्द चारपाई पर लेटा हुआ है और दूसरा छत के पास समाधि में बैठा उपदेश दे रहा है। गुरुदत्त इस दृश्य को देखता ही रह गया। योगी दयानन्द के दर्शनमात्र से गुरुदत्त को वह चीज मिल गई जो चीज डार्विन, स्पेन्सर, न्यूटन और बेकन से न मिली थी। साईन्स का एक एमएससी पास नवयुवक गुरुदत्त इस के बाद कभी वैदिक सिद्धान्तों पर सन्देह न कर पाया। दीपक बुझता-बुझता भी एक और दीपक प्रकाशित कर गया। जीवन से जीवनदान की कहानी अनेक बार सुनी। पर मृत्यु से जीवन मिला हो यह अनोखी घटना पहली बार घटी।

आइये! ऋषि का गुणगान एवं यशोगान गाकर दीपावली से प्रेरणा लें और ऋषि की मान्यताओं को संसार के कोने-कोने तक पहुंचाएं।• - प्रतापसिंह शास्त्री (दिव्ययुग- नवंबर 2013)

Vedic ideology accepts this festival only as the Sharadiya Navashishthi festival. But the significance of this Diwali Maharatri for the Aryans has increased even more. On 29 September 1883, Rishivar Dayanand was given milk and poison in milk.