गीता के दशम अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन! शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ- ‘रामःशस्त्रभृतामहम्’ (गीता 10/31) कौन राम? रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः अर्थात् योगी जिसमें रमण करते हैं वह राम। ईश्वर इष्टरूप में जो निर्देश देता है, योगी उसमें रमण करते हैं। इसी जागृति का नाम राम है और वह जागृति मैं हूँ।
’मैं शस्त्रधारी राम हूँ’ कृष्ण के इस कथन का गहरा अर्थ है। आखिर कृष्ण ने शस्त्रधारी राम को ही क्यों चुना? परशुराम या रावण का नाम क्यों नहीं लिया? कृष्ण जगद्गुरु हैं, अतः उनका चयन असंगत हो ही नहीं सकता। हिंसा के साथ शस्त्र उतना ही खतरनाक है जितना आग के साथ आक्सीजन। परशुराम हों या रावण, उनके हाथ में शस्त्र खतरनाक हैं। परशुराम के भीतर क्रोध की ज्वाला है और रावण के भीतर प्रतिहिंसा की आग। अतः उनके हाथ में शस्त्र का होना विनाशकारी है। तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस, मिले महाबिष होय। (दोहावली 323)।
सामान्य तर्कबुद्धि से विचार करें तो राम के हाथों में शस्त्र बेमेल लगता है। राम के मन में न हिंसा है, न घृणा है और न प्रतिस्पर्धा है। फिर भी उनके हाथ में शस्त्र है। उनके हाथ में कमल का फूल होता, तो बात समझ में आती। राम का शरीर तो एक कवि का शरीर है। इस दृष्टि से उनके शरीर पर शस्त्र वैसे ही अटपटा लगता है, जैसे सुकुमार कवि के शरीर पर लटकती पिस्तौल। राम का व्यक्तित्व फूल जैसा और उनके कन्धे पर कसा तीर तथा हाथ में जकड़ा धनुष परस्पर विरोधाभासी लगते हैं।
रावण का कठोर शरीर शस्त्रों से ढका रहता है और उस पर फबता भी खूब है। इसका कारण है कि रावण को आत्मबल पर नहीं, शस्त्रबल पर भरोसा है। शस्त्र उसकी देह में वैसे ही चिपके रहते हैं, जैसे चुम्बक से लौह-खण्ड। राम के पास तो शास्त्र-बल है, आत्म-बल है और करुणा की विश्वविजयिनी ताकत है। फिर उनके पास शस्त्र का होना बड़ा अटपटा लगता है। जब तक यह विरोधाभास समझ में नहीं आयेगा, तब तक राम भी समझ में नहीं आयेंगे।
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Ved_Katha_Pravachan -22 | Explanation of Vedas & Dharma | परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य
यदि भीतर करुणा हो, तो बाहर का रावण लोक का अहित कतई नहीं कर सकता। राम ही रावण के शस्त्रों का जगत्-हिताय सदुपयोग कर सकते हैं। यदि भीतर सब कुछ अच्छा हो, तो बाहर बुरा हो ही नहीं सकता। बीज के भीतर से अन्न और भूसा दोनों निकलता है, परन्तु भूसा बोने से अन्न की प्राप्ति तो दूर रही, उलटे भूसा भी सड़ जाता है। रावण भूसे से अन्न पैदा करना चाहता था और उसका सर्वनाश हो गया। बलि रावण को जीत लेने के बाद भी राम नहीं बन सका, क्योेंकि उसके भीतर का रावण सदैव जीवित रहा।
राम शस्त्र धारण करने के अनन्तर भी परम शिव बने रहते हैं।राम के अधीन शस्त्र है और शस्त्र के अधीन रावण। यही दोनों में अन्तर है। परशुराम की मान्यता थी कि शस्त्र के बिना समाज में सुधार की गुंजाइश नहीं है। इसीलिए वे कन्धे पर फरसा (परशु) लेकर घूमा करते थे।
राम शस्त्र से चिपकते नहीं हैं। वे गुरु के चरणों में धनुष-बाण समर्पित करके यह सन्देश देना चाहते हैं कि रामराज्य शास्त्र द्वारा चलेगा, शस्त्र द्वारा नहीं। प्रमाण भी है- करब साधुमत लोकमत, नृपनय निगम निचोरि। रामराज्य शासन न होकर अनुशासन है, जहाँ न चक्रवर्ती सम्राट् की गन्ध है और न ही भुजबल या सैन्यबल का दम्भ। यहाँ लोकमत या नीतिमत सर्वोपरि है। यही राम और परशुराम में अन्तर है।
राम का शरीर रसमय छन्द का शरीर है। राम की आँखें प्रेम की आँखें हैं। उनके मुखमण्डल से नित्य ज्ञान की आभा दमकती रहती है। उनके मुख से वेद की ऋचाएँ शब्द बनकर झरती रहती हैं। उनके हाथ ऊपर उठते हैं, तो सकल ब्रह्माण्ड को अभय दान देने के लिए। राम पैर भी इस तरह रखते हैं कि किसी को तनिक भी पीड़ा न पहुँचे। शस्त्र धारण करने के अनन्तर भी राम करुणावरुणालय बने रहते हैं।
रावण को राम का शरीर और शस्त्र दोनों महाकाल की तरह दिखाई देते हैं, किन्तु भक्त बिभीषण को राम का सब कुछ महाकरुणा की प्रतिमूर्ति के रूप में अनुभूत होता है। जैसे सूर्य से प्रकाश की किरणों का निकलना स्वाभाविक है और वह चाहकर भी अन्धेरा नहीं बिखेर सकता, वैसे ही राम के शरीर से अनायास परहित कर्म होते रहते हैं, कायिक कर्मों से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनके शस्त्र से भी जो कुछ हो रहा है, वह शिव का ही प्रकटीकरण है।
राम के शस्त्र से भी करुणा झलकती है, क्योंकि उनका शरीर साक्षात् चिदानन्दमय है। अध्यात्म के अध्येता को यह सुनकर जरुर अटपटा लगेगा। उनके विचार में तो आत्मा को ही अध्यात्मशास्त्र में नित्य शुद्ध-बुद्ध-चेतन कहा गया है और शरीर को सड़ने-गलने वाला माना गया है चिदानन्दमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
सन्त को परमात्मा की सृष्टि में कुछ भी तुच्छ या अदिव्य नहीं लगता। तत्त्वतः अदिव्य भी दिव्यता की अभिव्यक्ति का एक विलक्षण साधन है। अनित्य दृष्टि से जो एक छोर पर ‘पशु’ है, वही नित्य दृष्टि से दूसरे छोर पर ’प्रभु’ है। विकारों को दबाना नहीं है, अपितु उन्हें दिव्यान्तरित करके सद्गुण बनाना है।
ब्रह्मा काम के देवता हैं, क्योंकि वे सृष्टिकर्ता हैं। विष्णु लोभ के देवता हैं, क्योंकि वे सृष्टि के पालनहार हैं और शिव क्रोध के देवता हैं, क्योंकि अभिनव सृजन के लिए वे सृष्टि के संहारक हैं। केवल जीव की देह में ही काम-क्रोध-लोभ तस्कर बनकर उसकी ज्ञान निधि को लूटते रहते हैं। शंकराचार्य ने इसे पुष्ट करते हुए कहा-
कामः क्रोधश्च, लोभश्च, देहे तिष्ठन्ति तस्कराः।
ज्ञानार्थान् अपहार्य तस्मात् जाग्रत, जाग्रत॥
शरीर को गन्दा समझकर उसका तिरस्कृत करना भूल है। यह बात बराबर ध्यान में बनी रहना चाहिए कि खाद से सनी मिट्टी में ही फूल खिलता है और इस नश्वर शरीर के भीतर साधना करके प्रभु का साक्षात्कार करना है।
दिव्य शरीर पर रहने वाला शस्त्र अदिव्य हो ही नहीं सकता। यही राम की खूबी है। चूँकि रावण के भीतर हिंसा है, अतः शस्त्र पाकर यह हिंसा बहुगुणित होती जाती है। बुराई को बढ़ाने में अच्छे लोगों का परोक्ष हाथ होता है। जब अच्छे आदमी संघर्ष से हट जाते हैं, तो बुरे आदमी शक्ति हथिया लेते हैं और समाज के लिए अनर्थकारी बन जाते हैं।
रावण पहले उतना बुरा नहीं था, जितना बाद में हो गया। उसका मूल कारण है विदेह जनक और धर्मनिष्ठ दशरथ के मध्य तालमेल का अभाव। जनक अपने ज्ञान से सन्तुष्ट थे और दशरथ अपने धर्मराज्य से आत्ममुग्ध थे। हम सबके जीवन की भी यही सबसे बड़ी दुर्बलता है कि जनक और दशरथ एक साथ मिल नहीं पाते। यदि दोनों आत्मतोष के शिकार न होते, तो रावण मिट गया होता। यदि दोनों की शक्ति मिलकर रावण के कदाचार को रोकती, तो रावण सम्भल गया होता। चूँकि रावण इन दोनों के राज्य में हस्तक्षेप नहीं करता था, अतः वे अपने को सुरक्षित समझकर रावण के अत्याचार की अनदेखी कर देते थे।
भगवान श्रीराम के माध्यम से जनक, दशरथ, वसिष्ठ और विश्वामित्र आदि की बिखरी सद्गुणी ताकतें संगठित हो गयीं, राक्षस राज्य का अन्त हो गया और रामराज्य प्रतिष्ठित हो गया। इसी तरह अवतरित होकर भगवान् श्रीकृष्ण ने भी महाभारत में धर्म की पुनर्स्थापना की। इसीलिए गीता में उन्होंने मुक्तकण्ठ से उद्घोष किया कि- शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ।
The weapon that resides on the celestial body cannot be extinct. This is the quality of Rama. Since there is violence within Ravana, this violence becomes multiplied by getting weapons. Good people have a direct hand in increasing evil.