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महर्षि दयानन्द की सार्वभौमिकता

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maharshi ki sarvbhoumikta

महान क्रान्तिकारी तथा योगी श्री अरविन्द घोष ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के प्रति अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा है कि यदि हम सभी समाज सुधारकों को पर्वतों की चोटियाँ मान लें तो महर्षि दयानन्द को सबसे ऊँची चोटी मानना पड़ेगा। यह उपमा देव दयानन्द पर अक्षरश: चरितार्थ होती है। इतिहास में जितने भी महान सुधारक हुए उन्होंने कहीं न कहीं अपनी ऐषणा के वशीभूत होकर कार्य किए हैं। मगर दयानन्द के जीवन में हमें एक भी प्रसंग ऐसा नहीं मिलता है जिससे यह आभास हो कि उन्होंने अपने बड़प्पन और किसी अन्य ऐषणा की पूर्ति के लिए कार्य किया हो। इसी प्रकार अधिकतर महापुरुषों ने किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष के लिए ही कार्य किया है। मगर दयानन्द ने मनुष्यमात्र की भलाई के लिए ही अपना समूचा जीवन लगा दिया । चाहे वह राष्ट्र की बात हो, समाज की बात हो या आध्यात्मिकता की बात हो, दयानन्द ने कहीं भी अपने आप को बीच में नहीं रखा है। अर्थात् उन्होंने जिस ढंग से भी कार्य किया उसमें यह कहीं नहीं आता है कि आप दयानन्द का नाम जपो या उनके दिए हुए गुरुमन्त्र का ही जाप करो आदि-आदि।

उन्होंने समूची समस्याओं के समाधान के लिए जिस ग्रन्थ को चुना वह किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष का है ही नहीं। उन्होंने वेद को इसी आधार पर चुना कि वह स्वयं परमपिता परमेश्‍वर द्वारा दिया गया ज्ञान है। वेद में कहीं भी किसी जाति या मजहब का नाम नहीं है। वेद सार्वभौमिक हैं। वेदों को आधार मानकर दयानन्द ने भी सार्वभौमिकता का सन्देश दिया। दयानन्द की यह सार्वभौमिकता ही उन्हें अन्य सभी महापुरुषों और समाज सुधारकों से अलग खड़ा करती है। राष्ट्र का ढाँचा कुछ ऐसा बनता जा रहा है कि सम्प्रदाय विशेष के तुष्टिकरण की नीतियों में समूची मानवता खण्ड-खण्ड हो रही है। इसी के कारण क्षेत्रवाद और अलगाव के कीड़े पनप रहे हैं। हमारे राष्ट्र में ही नहीं बल्कि समूचे विश्‍व में ही ऐसी भावनाएं अपना सिर उठा रही हैं। इससे व्यक्तिवाद और संकुचितता का वातावरण बनता जा रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम् के स्वप्न बिखरने के कगार पर हैं। दयानन्द ने जो सार्वभौमिकता का मार्ग प्रशस्त किया था वही आज हमें इस विनाशकारी वातावरण से मुक्ति दिला सकता है।

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हम अपने ही देश को लें, पता नहीं प्रतिदिन कितने ही मत और मजहब पनपते जा रहे हैं। नित नए गुरु बन रहे हैं, जिन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्र विचारधारा को कुण्ठित कर दिया है। दयानन्द ने हमें विचारों की स्वतन्त्रता दी थी। मगर उस विचारधारा पर स्वयं परमात्मा की विचारधारा का अंकुश भी लगा दिया था। इसी आधार पर उन्होंने इस सिद्धान्त की स्थापना की कि व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र मगर उसका फल भोगने में परतन्त्र है। इस सिद्धान्त को यदि हम गहराई से देखें तो हमें धर्म के सही स्वरूप का पता भी लग सकता है। महर्षि की दृष्टि में धर्म मात्र कुछ ग्रन्थों को रट भर लेना नहीं था, बल्कि वे व्यक्ति की क्रियात्मकता पर बल देते थे। अर्थात् हम यदि धर्म के तत्वों को अपने जीवन के रंग-ढंग में उतारकर तदवत् आचरण करते हैं, तभी हम सच्चे धार्मिक कहला सकते हैं। फिर हमें फल की चिन्ता से घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है और न ही किसी बाहरी कर्मकाण्ड या ढोंग के करने की ही जरूरत है। उन्होंने व्यक्ति के आधार, व्यवहार और कथनी व करनी की समता पर भी बल दिया है। उनकी दृष्टि में जिस प्रकार सत्य केवल एक ही हो सकता है उसी प्रकार व्यक्ति का दोहरा व्यक्तित्व नहीं होना चाहिए। आज दुर्भाग्य यही है कि व्यक्ति धार्मिक बनने के स्थान पर धार्मिक दीखना अधिक पसन्द करता है। इसी दोहरी प्रवृत्ति के कारण आज धर्म भी अपना वास्तविक स्वरुप खो चुका है।

चरित्र निर्माण- महर्षि की नीति थी- व्यक्ति-व्यक्ति का चरित्र निर्माण। इसीलिए उन्होंने वेदों के आधार पर व्यक्ति को अपने चरित्र का उत्तरोत्तर विकास करने की ही प्रेरणा दी है। उन्होंने मानव बनने पर अधिक बल दिया। हम ईमानदारी से सोचें तो आज सभी व्यक्ति यदि मानव बन जाएं तो देश या विदेश में जितना भी अनाचार और दुराचार तथा मानवता का जो लहू बह रहा है वह रुक सकता है। मगर ऐसे में लोगों की अपनी-अपनी चौधराहट को अन्तर पड़ता है। ये तथाकथित धर्म के ठेकेदार ही अन्तत: मानव-मानव में दीवार बने रहते हैं। महर्षि दयानन्द ने इस ठेकेदारी के विरुद्ध बहुत ही सार्थक कदम उठाए हैं। बल्कि देखें तो उनका समूचा प्रयास यही रहा है कि ईश्‍वर और भक्त में से दलालों का पूरी तरह से सफाया कर दिया जाए। इसी प्रयास के फलस्वरूप उन्होंने एक धर्म और एक ईश्‍वर की बात हमारे समक्ष रखी थी। मजहब और सम्प्रदाय की दीवारों को उन्होंने अपने समय में गिराने की कोशिश की थी और एक ऐसे सार्वभौमिक धर्म की छाया तले सभी को इकट्ठा करना चाहा था जो मानवता को एक सूत्र में पिरो सके। मगर सभी सम्प्रदायों के लोग उनकी सद्भावना को नहीं समझ सके और सर्वधर्म सम्मेलन का उनका यह स्वप्न साकार नहीं हो सका था। उनका एक ही तर्क था कि प्रत्येक मत में जो जो बातें वेद विरुद्ध, मानवता विरुद्ध और सार्वभौमिकता के विपरीत है उन्हें छोड़ दिया जाए। शेष जो भी बचेगा वही धर्म का उत्कृष्ट रूप है। इस प्रकार से धर्म पर छाए सभी प्रकार के ढोंग और पाखण्ड ध्वस्त हो जाने थे तथा मानव मात्र के कल्याण की एक ऐसी परम्परा का शुभारम्भ होना था, जिससे अपने आप धर्म, गुरु और ईश्‍वर की समस्त दुकानें बन्द हो जानी थीं। दुकानें बन्द हो जाने के डर में ही तथाकथित धर्माचार्यों ने दयानन्द की इस बात को महत्व नहीं दिया और एक बहुत बड़ा स्वप्न साकार होते-होते रह गया। मगर महर्षि दयानन्द जी का वह सपना कभी न कभी अवश्य ही साकार होगा। क्योंकि उसके साकार हुए बिना रोती बिलखती हुई मानवता कभी भी चैन की सांस नहीं ले सकेगी।

आज समाज के समस्त बुद्धिजीवियों और राजनेताओं को उन मनीषी की विचारधारा को गहराई से समझना चाहिए। उसे कार्यान्वित करने के अधिकाधिक प्रयास किए जाने चाहिएं। आमतौर पर ऊपर से देखकर ही लोग दयानन्द की विचारधारा को नकार देते हैं । मगर यदि गहन चिन्तन किया जाए तो मजहब और धर्म या अपनी-अपनी अलग अस्मिता की जो लड़ाई आज गलियों और बाजारों में लड़ी जा रही है, वह एक ऐसे सौहार्दमय वातावरण में बदल सकती है, जहाँ कोई भी एक दूसरे के खून का प्यासा नहीं होगा। महर्षि दयानन्द जी ने मानव को किसी दायरे में बाँटकर कभी देखा ही नहीं था। यही कारण है कि उनके प्रशंसकों में सभी मजहबों के खुले दिमागों के लोग हैं। मगर जिन्हें मानवता को अलग-अलग दायरों में बांटकर ही अपनी रोटियां सेंकने का शौक है वे उनके कट्टर विरोधी भी बने। आज पुन: उसकी विचारधारा को गहराई से समझने और अपनाने की आवश्यकता है। अपनी वाहवाही या लोगों की सद्भावना प्राप्त करने के लिए उन्होंने कहीं भी कभी समझौता नहीं किया। उनकी इस कट्टरता को कभी-कभी गलत ढंग से भी आँका जाता है। इस गलत आकलन ने ही उनकी विचारधारा का सही-सही मूल्यांकन नहीं होने दिया है।

एक लक्ष्य-वे ऐसी चतुर्दिक प्रतिभा के मालिक थे कि धर्म के साथ-साथ उन्होंने राजनीति और साहित्य एवं भाषा आदि क्षेत्रों में भी बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उन्होंने कभी भी ऐसी बातों का प्रचार नहीं किया जिनमें विरोधाभाग हो। वे जानते थे कि ऐसी बातें रखने और सुनने में तो भली लगती हैं मगर इनके दूरगामी परिणाम इतने अधिक भयानक होते हैं कि आने वाली पीढियों को उनका अभिशाप भोगना पड़ता है। अनेकता में एकता जैसी लुभावनी बातें उनके पास नहीं थीं। बल्कि उन्होंने तो स्पष्ट शब्दों में कहा- एक धर्म, एक भाषा और लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और जातीय उन्नति का होना दुष्कर है। सब उन्नतियों का केन्द्र स्थान ऐक्य है। जहाँ भाषा, भाव और भावना में एकता आ जाए वहाँ सागर में नदियों की भान्ति सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं।

चाहे विश्‍व का प्रश्‍न हो, चाहे राष्ट्र या परिवार का महर्षि के इन उद्गारों को आत्मसात करने की आवश्यकता है। और जब किसी भी ईकाई से इस सूत्र का कार्यान्वयन ईमानदारी के साथ होगा, तो धीरे-धीरे फैलता हुआ यही सूत्र सार्वभौमिकता के ऐसे प्रेम व सौहार्द का वातावरण बना देगा जिसमें बैर विरोध नहीं, बल्कि एक नैसर्गिक आनन्द का स्रोत फूटेगा जो समूची मानवता को सराबोर कर देगा।• - भगवानदेव चैतन्य (दिव्ययुग- नवंबर 2013)

Dayanand devoted his entire life for the good of mankind. Whether it is a matter of nation, society or spirituality, Dayanand has not put himself anywhere. That is, in the manner in which he acted, it does not come anywhere that you chant Dayanand's name or chant his given Gurmantra, etc.