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कोटि-कोटि जनों के आराध्य भगवान श्रीराम

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koti koti jano ke aradhya

भारत के जन मानस में श्रीराम का चरित्र जितनी श्रद्धा की गहराइयों में पैठ गया है, उतना किसी राजा, देवता या महापुरुष का नहीं। हर व्यक्ति की जुबान पर राम का नाम सर्वाधिक श्रद्धाभाजन आराध्य के रूप में हजारों वर्षों से चला आ रहा है। राम जी की मर्जी पर सारी दुनिया आधारित है। यह हमारे समाज की मान्यता रही है।

रामराज्य को आदर्श मानकर हमारा समाज उसकी प्रतिष्ठा सर्वत्र करना चाहता है। राम के इस महत्व का कारण यदि हम खोजें तो एक ही सबसे बड़ा गुण ऐसा है जो उनके महत्व को बहुत ऊंचा उठा देता है। एक शब्द में कहा जाए तो वह है, उनकी कर्तव्यपरायणता। राम के सारे चरित्र में उल्लेखनीय यह विशेषता रही है कि उन्होंने स्वयं के दु:ख-सुख की परवाह न करके प्रत्येक इकाई के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण रूप से निभाया है। उन्होंने समाज के प्रति आदर्श कायम किये हैं, जो आज समूची भारतीय संस्कृति के आदर्श बन बैठे हैं। इन आदर्शों के कारण ही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है।

प्रारम्भ में उन्होंने पिता के प्रति, गुरु के प्रति, माता के प्रति, मित्रों के प्रति, प्रजा एवं शरणागत के प्रति अपने कर्तव्यों को बखूबी निभाया। वचन निभाने के लिए तो उनका उदाहरण सदियों से दिया जाता रहा है। ‘रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाहि पर वचन न जाहि‘ का आदर्श तो उन्होंने ही स्थापित किया था। इस कर्त्तव्य पालन के पीछे उन्हें जिन्दगी भर त्याग करने पड़े। राम के इस त्याग में सर्वाधिक सहयोग किसका था? यदि ध्यान से देखा जाये तो राम के चरित्र में उनके कर्त्तव्य पालन में सबसे बड़ा योगदान त्याग और बलिदान सीता ने ही दिया था। तभी तो सीता का नाम, राम के साथ अविभाज्य रूप से जुड़ गया है।

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राम के त्याग की गाथा उनके बाल्यकाल से ही शुरू हो जाती है। बचपन में राम को विश्‍वामित्र के द्वारा अपने यज्ञ मेें विघ्न डालने वाले राक्षसों के संहार करने के दिए दशरथ से मांग लिया गया था। शैशव में जब माता-पिता के साथ रहने के दिन होते हैं तो कौन बालक उस सुख से वंचित रहना चाहेगा? किन्तु राम पिता एवं कुलगुरु का आदेश मानकर सहर्ष उस कार्य को करने को तैयार हो गये।

विवाह के पश्‍चात् जब उनके युवराज पद पर अभिषेक करने का समय आया तो कैकेई ने दशरथ से पहले वचन दिये हुए वरदान के रूप में, राम का चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया। यह भी बहुत बड़े त्याग की कसौटी थी, पर पिता द्वारा दिये गये वचन को निभाने को राम सहर्ष तैयार हो गये। शायद इस समय हम यह भूल जाते हैं कि इस त्याग में सीता ने लाख समझाने पर भी राम का साथ नहीं छोड़ा।

राम की मातृभक्ति भी बड़ी आदर्शमय थी। राम अपनी माता कौशल्या से भी बढकर माता कैकेई और सुमित्रा का आदर करते थे। वनवास गमन की बात जब राम के सामने आती है तब कैकेई की मुख मुद्रा तथा पिता को शोकातुर तथा विहृल देखकर, अपनी मझली माँ से कहते हैं-थोरहिं बात पितहि दु:ख भारी, होति प्रतीति ने मोहि महतारी। हे माँ, वन गमन की बात तो छोटी-सी है, पता नहीं पिताजी को इतना अधिक दु:ख क्यों हो रहा है? पिता की आज्ञा का अवसर पा राम अपने को बहुत धन्य मानते हैं।

अपने से छोटों के प्रति भी राम उसी तत्परता से कर्त्तव्य का निर्वाह करते रहे। भरत और लक्ष्मण के प्रति उनका कितना अथाह स्नेह था, यह किसी से भी छुपा नहीं है। भरत को राज्य देने की बात सुनकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई थी। लक्ष्मण को जब मेघनाथ की शक्ति से मूर्च्छा आ जाती है तो वे बहुत शोकातुर हो जाते हैं। लक्ष्मण से गलती हो जाने पर वे कभी भी कुपित नहीं हुये, वरन् स्नेह से उचित-अनुचित की शिक्षा दी। भाइयों के बिना कभी भोजन नहीं किया। वन में लक्ष्मण का उसी प्रकार ध्यान रखते, जिस तरह कोई पिता अपने पुत्र का।

अपने मित्र सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाकर तथा विभीषण को लंका का राज्य दिलवाकर उन्होंने मित्र के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाया। राम के हृदय में ऊंच-नीच का भाव नहीं था। शबरी के बेर खाकर उन्होंने छोटे से छोटे तक के प्रति अपने स्नेह का उदात परिचय दिया।

प्रजा के प्रति कर्त्तव्य तो उन्होंने पूरे जीवन भर निभाया। रामराज्य की यही विशेषता थी कि राजा प्रजा के सारे व्यक्तियों के प्रति उत्तरदायी था। वाल्मीकि रामारण के एक प्रसंग से इस शासन का सबसे बड़ा प्रमाण मिलता है। एक ब्राह्मण के पुत्र की अकाल मृत्यु हो जाने से वह उसके शव को राजमहल के सामने लाकर रख देता है और अकाल मृत्यु जैसी विपत्ति के लिए वह राजा को ही उत्तरदायी ठहराता है। राजा राम इससे चिन्तित हो जाते हैं और विद्वान गुरुजनों से इस बात की खोज करवाते हैं कि राज्य में कौन सी ऐसी अनीति हो गई है जिसके कारण एक नागरिक के पुत्र की अकाल मृत्यु हुई। राम सदैव वशिष्ठ, वामदेव, मौद्गल्य तथा कश्यप आदि आठ वरिष्ठ विद्वानों की सलाह से शासन चलाते थे। साथ ही छोटे से छोटे व्यक्ति के मत को भी बहुत सम्मान देते थे।

कुछ लोगों का मानना है कि यदि इन कर्त्तव्यों को निभाने में सबसे बाद में किसी का स्थान आता है तो वह है पत्नी के प्रति कर्त्तव्य का। यह तो सभी जानते हैं कि समर्पित समाज सेवी को या एक आदर्श कर्त्तव्य परायण राजा को अपने परिवार के प्रति ध्यान देने का समय कम ही मिल पाता है, फिर भी सीता के प्रति उनका जो अपार स्नेह था, वह उनके चरित्र में स्थान-स्थान पर स्पष्ट प्रकट होता है।

रावण ने जब सीता का हरण करके उसे बन्दी बना लिया था, तब राम ने किष्किन्धा सेना इकट्ठी कर समुद्र पर सेतु बान्धकर, रावण का संहार करने में कुछ कसर नहीं छोड़ी। सीता हरण के बाद विह्वल होकर उन्होंने जिस प्रकार वृक्षों, लताओं और फूल-पत्तियों तक से सीता का पता पूछा था, यह उनके अपार-स्नेह का प्रतीक है।

उन दिनों राजवंशों में बहु विवाह की प्रथा थी। स्वयं राजा दशरथ के तीन रानियों के नाम सर्वविदित हैं। लेकिन राम ने इस परम्परा को तोड़कर एक पत्नीव्रत धारण किया। अश्‍वमेघ यज्ञ में पत्नी की उपस्थिति आवश्यक होने पर भी उन्होंने सीता की स्वर्ण प्रतिमा ही स्थापित करवाई। इसके अलावा भी जब भी घर में कोई मंगल कार्य हुआ तो राम ने सीता की स्वर्ण मूर्ति को ही साथ रखा। उन्हें तो यह बात चरितार्थ करके दिखानी थी कि जिस प्रकार एक स्त्री के लिये पति व्रत का विधान है उसी प्रकार एक पुरुष के लिये भी एक पत्नीव्रत आवश्यक है।

यहाँ बात भी स्पष्ट हो जाती है कि विभिन्न कर्त्तव्यों के निर्वाह और मर्यादा के क्षणों में राम को जो त्याग करने पड़े, सीता के भी त्याग उनसे अधिक नहीं तो समान अवश्य हैं। एक चक्रवर्ती राजा की रानी होने के बावजूद भी उन्हें राज्य सुख कभी नहीं मिला। विवाह के पश्‍चात् ही उन्हें वनवास की यातना सहन करनी पड़ी। रावण के घर बन्दी रहने पर उन्हें कितना मानसिक कष्ट सहन करना पड़ा होगा। राम द्वारा रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद भी सीता को अपने सतीत्व की अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी। चौदह वर्ष के पश्‍चात राम का जब चक्रवर्ती राजा के रूप में अभिषेक हुआ और सीता पटरानी बन गयीं। परन्तु उतना सब कुछ सहन कर लेने के बाद भी उनका सुख स्थायी न रहा और उन्हें फिर से पति से वियोग का कष्ट सहना पड़ा।

राम का राज्य पूर्णतया प्रजासत्तात्मक राज्य था। उसमें दीन-दुखियों के साथ न्याय होता था। प्रजा के हर तबके की बात सुनी जाती थी। उनके दु:ख-दर्द दूर किये जाते थे। राज्य के छोटे से छोटे व्यक्ति तक को महत्व दिया जाता था। तभी तो सीता का त्याग राम ने कर दिया था और वियोग के अथाह समुद्र में डूब गये। एक दुष्ट व्यक्ति के कटु भाषण मात्र से राम ने सीता का त्याग कर दिया।

इसका मतलब यह न समझ लेना चाहिए कि उन्हें सीता पर किसी प्रकार का सन्देह था। उसकी निवृत्ति तो सीता की अग्नि-परीक्षा से हो चुकी थी। यद्यपि शुद्धं परं लोक विरुद्धं के अनुसार उनका विचार तो केवल यह था कि सीता के इतने पवित्र होते हुए भी प्रजा में ऐसी बात फैलना उचित नहीं है। राजा हो या घर का मुखिया उसका उसे आदर्श होना चाहिए। उसकी समस्त क्रियाओं को बच्चा-बच्चा तक बड़ी सतर्कता से देखता है। चाहे वह बात झूठी क्यों न हो परन्तु प्रजा को यह बात कहने का मौका तो मिलता है कि हमारे राजा में यह खामी है। राजा जिस प्रकार का होता है प्रजा भी वैसा ही आचरण करने में नहीं झिझकती।

इसलिये प्रजा के सामने अनुकरणीय आदर्श रखने के लिए उन्हें त्याग करने पड़े। उन्होंने गर्भवती सीता को वाल्मीकि के आश्रम में भेज दिया। प्रजा में यह बात फौरन ही फैल गई कि चाहे वह पटरानी ही क्यों न हों, यदि उसको लेकर किसी भी प्रकार की उधेड़बुन फैलती है तो प्रजा के न्यायालय में संदेह के निवारण होने तक उसे दण्ड भोगना ही पड़ेगा।

लव-कुश नामक दो बालकों को सीता ने आश्रम में जन्म दिया। वहाँ उन बच्चों ने सारे शास्त्रों का ही नहीं बल्कि शस्त्र विद्या का भी गहरा अध्ययन किया। इसका परिचय उन्होंने प्रजा के सामने अश्‍वमेध के घोड़े को रोक कर दिया। उनके अथाह चमत्कार को देख कर विद्वानों और ऋषि-मुनियों तक ने एक स्वर में यह कहा कि इतने प्रतापी पुत्र राम के अलावा किसी और के हो ही नहीं सकते। सीता पवित्र है। तब समस्त प्रजा की पुकार पर राम ने सीता को स्वीकार किया। सीता साथ रही या नहीं रहीं यह अलग विषय है।

प्रजा के सम्मुख आदर्श रखने का यह उदाहरण राम के अतिरिक्त और कोई नहीं रख सकता था। उनके इस कर्त्तव्य पालन में सीता ने कितना योगदान दिया यह सब आसानी से विदित हो जाता है। आजकल इस घटना पर आधुनिक विचार धारा वाले लोग बहुत आपत्ति करते हैं। वे इसे नारी के साथ घोर अन्याय बताते हैं। किन्तु सीता ने इसे किस रूप में लिया? महाकवि कालिदास के रघुवंश में चित्रित सीता के भावों तथा उद्गारों को कवि ने स्पष्ट शब्दों में बताया है। सीता को बार-बार अपने प्रियतम का वियोग अखरा अवश्य। इसीलिए उन्होंने राम को सन्देश भेजा कि आप राजा राम हैं। अपने कर्त्तव्य का पालन करने के लिये आपने अग्नि-परीक्षा में खरी उतरने पर भी मुझे त्याग दिया, यह क्या रघुकुल के पति को शोभा दिता है? पर मैं भूल रही हूँ कि मुझसे प्रेम करते हुए भी आपको एक प्रजा प्रेमी राजा होने के नाते अपना आदर्श रखने के लिये यह त्याग करना पड़ा है। आपका पति रूप में कुछ कर्त्तव्य अवश्य है, परन्तु राजा के रूप में प्रजा के प्रति कर्त्तव्य कुछ अधिक है इसलिये मुझे यह सब दु:ख देखना और सहना पड़ा है। लगता है मेरे पिछले जन्मों के किन्हीं पापों का ही परिणाम है जो बार-बार बिछुड़ने की पीड़ा सहनी पड़ी है। अब मैं इस जन्म में तपस्या कर रही हूँ ताकि अगले जन्म में भी आप ही मेरे पति हों। पर इस जन्म जैसा बार-बार का वियोग न हो।

राम के राजा के रूप में आदर्श चरित्र की और सीता के पति के कर्त्तव्यों में निरन्तर सहयोग देने की यह पराकाष्ठा है। इन्हीं गुणों के कारण ही लाखों वर्षों से भारत भर में सीता और राम का नाम जन-जन की जुबान पर आज तक श्रद्धा और आदर्श का प्रतीक बन गया है।• - माधुरी शास्त्री (दिव्ययुग- नवंबर 2013)

Even after Rama had conquered Ravana, Sita had to be put to the test of her sattva. After fourteen years, Rama was anointed as Chakravarti King and Sita became Patrani. But even after having endured everything, their happiness was not lasting and they had to suffer the separation from husband again.