पहली जनवरी का दिन है कि न तो इस दिन से सूर्य अपना अयन बदलता है न यह वर्ष का सबसे छोटा दिन है न बड़ा। न इस दिन कोई नक्षत्र उदय या अस्त होता है। न कोई फसल आ रही होती है न नई ऋतु। विश्वभर में कोई सरकार इस दिन या महीने में नया बजट तैयार नहीं करती है न ही प्रस्तुत करती है। जिन देशों में यह कालान्तर (कलैण्डर) पहले चालू हुआ वहाँ भी इस दिन कोई नई बात देखने में नहीं आती। वे देश भी एप्रिल से नए बजट लागू करते हैं। एप्रिल का अर्थ प्रस्फुटन होना अर्थात् नई कली फूटना है। एप्रिल में भी भारतीय प्रथम मास चैत्र में ही प्राय होता है। यह चैत्र या एप्रिल का समय ही ऐसा है जिसमें ऋतु परिवर्तन होता है। फसलें आने लगती हैं। पूरे विश्व की प्रकृति में प्रायः नव प्रस्फुटन इसी समय होता है। विश्व की मुख्य फसलें चैत्र के आसपास ही पककर आती हैं। जिनके आधार पर विश्व सरकारें बजट बनाती हैं।
सृष्टि संवत् 1,96,08,43,118 चल रहा है। यह भी चैत्र मास से आरम्भ हुआ था। आज तक चला आ रहा है तथा चैत्र मास से प्रतिवर्ष आरम्भ हो जाता है। भरत खण्ड (प्राचीन अखण्ड भारत) जिसमें वर्तमान ईरान से कैशपीयन सागर के देश म्यांमार, जावा, सुमात्रा, लंका, वियतनाम, कम्पोडिया आदि देश आते थे। विक्रमादित्य सम्राट चैत्र प्रतिपदा को ही सिंहासन पर बैठे थे। उनका विक्रमी संवत् आज भी चैत्र से ही आरम्भ होता है। फाल्गुन पूर्णिमा को वर्ष समापन होता है। इस दिन पूरे देश में होली मंगलाई जाती है। वसन्तपंचमी से ही होली की पवित्र समिधायें (लकड़ियाँ) एकत्र की जाने लगती हैं। यह एक विशाल सामूहिक यज्ञ का प्रतीक है जो फसलों को सुरक्षित पकाने के लिये किया जाता था कि असामयिक वर्षा व ओले न गिरें। फसल सुरक्षित रूप से कटकर खलिहान से घर आ जाए, समयानुसार यज्ञों की आस्था घटती गई। युद्ध, काट-मार, लूटपाट में सर्वनाश हो गया, लेकिन कुछ बातें प्रतीक रूप में, परम्परा रूप में, धर्म के बन्धन रूप में चली आ रही हैं, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान शोध समाप्त हो गये, धीरे-धीरे फिर हो रहे हैं। होली के आसपास अन्न को भूनकर होले खाये जाते हैं। होली के अगले दिन ही नववर्ष की उमंग में धुलेण्डी (द्वन्द्वी) अर्थात् प्रतियोगितायें मनाई जाती हैं। पूरे फाल्गुन मास में ही पुरुष-स्त्री जलक्रीड़ा (फाग) करते हुए दिखते हैं। दुल्हेंडी व होली के फाग बड़े प्रसिद्ध हैं। प्राचीन समय में इस दिन अनेक प्रकार की प्रतियोगिता होती थीं। दौड़, कुश्ती, खेल, घुड़दौड़, बैलगाड़ी दौड़, रथ दौड़, निशानेबाजी आदि। आजकल भी कहीं-कहीं प्रतियोगितायें प्रचलित हैं लेकिन रंग व जलक्रीड़ा ज्यादा प्रचलित है लेकिन यह दुल्हेंडी का पर्व तो हमारा नववर्ष का त्यौहार है हम इसे भूल गये हैं और इसमें सुधार की बजाय बिगाड़ होता जा रहा है तथा जनवरी से नववर्ष मनाने की एक अलग बीमारी और लगा ली है। सर्दी में ठिठुरते हुए कहते हैं- हैप्पी न्यू इयर, न स्वभाषा है, न संस्कृति व खानपान। पहली जनवरी को होटलों में शराब व गन्दे नृत्यों की भरमार रहती है। यह महान् पुष्ट संस्कृति वाले भारत के लिये कलंक के समान है।
चैत्र (एप्रित) के स्थान पर जनवरी को नववर्ष के रूप में जूनियस द्वितीय ने अपने विशाल भूभाग पर विजय दिवस के रूप में मनाना आरम्भ किया था तथा कुछ वर्ष बाद एप्रित के स्थान पर कैलेण्डर में परिवर्तन कर विजय दिवस को ही वर्ष का पहला दिन बनाकर इस महीने नाम भी अपने नाम पर जुनेअरी रखा। यह जनवरी का कैलेण्डर अपनी राज्य में लागू किया। कालान्तर में क्षेत्र विजय के साथ-साथ राज्य भी बढता गया। आज विश्व के अनेक देश इसी कैलेण्डर को मान रहे हैं लेकिन अपने कैलेण्डर अलग-अलग भी हैं। भारत में आज भी देशीय तिथियों से ही सभी सामाजिक धार्मिक कार्य चलते हैं भले ही सरकार जनवरी के कैलेण्डर को मान रही है तथा यूरोपीय देशों में भी एप्रिय से मनाते हैं तथा प्रायः सभी कार्य बजट शिक्षा सत्र आदि एप्रिल से ही आरम्भ करते हैं। इस प्रकार वे एक वर्ष में दो वर्ष मना रहे हैं प्राकृतिक होने से एप्रिल को भी छोड़ नहीं पा रहे हैं तथा जनवरी को भी नववर्ष के रूप में प्रचलित किये हुये हैं लेकिन हम भारतीय भी पता नहीं क्यों उनकी जूठन चाटकर प्रसन्न होते हैं। यह कोरी मूर्खता ही कही जायेगी कि जब हम दुल्हेंडी को नववर्ष रूप में चैत्र में मना चुकते हैं फिर जनवरी में क्यों बेशर्म होकर नये साल की मुबारकबाद या हैप्पी न्यू ईयर कहते हैं। एक स्वाभिमानी भारतीय को एक जनवरी को नववर्ष की शुभकामना नहीं देनी लेनी चाहिये। हमें अपने स्वाभिमान को कभी गिरने नहीं देना चाहिये। हमारा स्वाभिमान छोटी-छोटी बातों पर झूठे अहंकार रूप में प्रकट होता रहता है लेकिन देश की महान् संस्कृति, भाषा, खान-पान, पहरान की रक्षा के लिये वह क्यों नहीं जागता? देश के नाम दो ? राष्ट्रगान दो? राष्ट्रभाषा दो? पहनावे दो? खान-पान दोहरे? संस्कृति दोहरी? कब आएगी एकता, अखण्डता, दृढता की शक्ति? निज पहचान, निज शिक्षा, निज रोजगार, निज संस्कृति का गौरव? सच्ची मानव संस्कृति व देवत्व संस्कृति का परचम कब लहरायेगा? युवको सोचो, इस जूनियस द्वितीय के विजयोत्सव रूपी नववर्ष को मनाना कब छोड़ोगे? - महावीर धीर
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Rashtra & Dharma | कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -1