विशेष :

स्वतन्त्रता का पावन पर्व

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स्वतन्त्रता दिवस
15 अगस्त 1947 की रात को बारह बजे भारत को अंग्रेजों के शासन से मुक्ति मिली, ऐसा कहा जाता है। कहा जाता है, इसीलिए कहना पड़ा कि 14 अगस्त की रात के बारह बजे से पहले तक जो लार्ड लुई माउण्टबेटन भारत का वायसराय (ब्रिटिश नरेश का प्रतिनिधि) था, वही बारह बजने के बाद 15 अगस्त शुरू होते ही स्वतन्त्र भारत का महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) बन गया। इसे और चाहे कुछ भी कहें, स्वतन्त्रता मिलना नहीं कह सकते।

स्वतन्त्रता किसे मिली ?- फिर भी स्वतन्त्रता तो मिली ही। श्री जवाहरलाल नेहरू को स्वतन्त्रता मिली, जो भारत के प्रधानमन्त्री बने और मृत्युपर्यन्त, 18 साल तक प्रधानमन्त्री बने रहे। श्री मुहम्मद अली जिन्ना को स्वतन्त्रता मिली, जो पाकिस्तान के (जो हिन्दुस्तान का ही एक भाग था) राष्ट्रपति बने। महात्मा गांधी को स्वतन्त्रता मिली कि वह अपने सपनों का भारत गढ़ सकें। उन्हें राष्ट्रपिता और स्वतन्त्रता का जनक कहा गया।

गांधी जी के सपनों का भारत- पंजाब, सिन्ध, बिलोचिस्तान और पूर्वी बंगाल में बहती खून की नदियों में डूब गया, जलते मकानों की लपटों में जलकर खाक हो गया। 25 बरस तक पूजी गई अहिंसा का इतना भयानक हिंसात्मक परिणाम निकला। 10 लाख से अधिक लोग भेड़-बकरी की तरह काटकर फेंक दिये गये। वे लड़ाई में नहीं मरे, घर-बार छोड़कर भागते हुए मारे गये। वे कांग्रेसी नेताओं की सलाहों का, आदेशों का निष्ठा और विश्‍वासपूर्वक पालन करते हुए मारे गये। उन्हें कहा गया था कि पाकिस्तान हमारी लाश पर बनेगा, आप जहाँ हैं, वहीं डटे रहें। जो डटे रहे, वे हलाल कर दिये गये।

पाकिस्तान मौत का फन्दा- कहते हैं कि मनुष्य जिस क्षण जन्म लेता है, उसी क्षण मृत्यु उसके गले में अपना फन्दा डाल देती है और जब चाहे तब उसे खींचकर अपनी झोली में पटक देती है। पाकिस्तान भारत की स्वतन्त्रता के गले में मौत का फन्दा है। गत साठ वर्षों का अनुभव बताता है कि जब तक पाकिस्तान का अस्तित्व है, तब तक भारत की स्वतन्त्रता का कोई अर्थ ही नहीं है।

अंग्रेजों के शासन से हमने मुक्ति इसलिए चाही थी कि वे भारत को लूट रहे थे। यहाँ का धन छीन-खसोटकर इंग्लैंड ले जा रहे थे। जितना धन अंग्रेज प्रतिवर्ष यहाँ से ले जा रहे थे, उससे कई गुना हम अपनी रक्षा पर खर्च कर रहे हैं। फिर भी शान्ति नहीं है, न सीमाओं पर, न देश के भीतर। भारत के हर बड़े शहर को निशाना बनाकर पाकिस्तान के परमाणु बम युक्त प्रक्षेपास्त्र तैनात हैं। और भारत का कोई शहर ऐसा नहीं, जहाँ देशद्रोही लोग बम न फोड़ रहे हों, दंगे न करवा रहे हों।

जनसंख्या नासूर है- हमारे पेट में नासूर (कैंसर) है । पेट फूला हुआ दीखता है। हमारी जनसंख्या एक अरब से अधिक है। यह बीमारी की निशानी है। तीस करोड़ होती, तो हम अधिक स्वस्थ होते। एक अरब में से करोड़ों ऐसे हैं, जो भारत को अपना शिकार मानते हैं और जैसे भी हो, इसे नष्ट करना अपना पवित्र कर्त्तव्य मानते हैं। वे इसे खण्ड-खण्ड कर डालना चाहते हैं।

जो देशभक्त हैं, उनका हाल भी कुछ भला नहीं है। माना जा सकता है कि वे विदेशी शत्रु के हाथों में नहीं खेल रहे, परन्तु वे लोभ के वशीभूत हैं। उनकी धन लालसा की कोई सीमा नहीं है। कल के जघन्य अपराधी, तस्कर, हत्यारे, अपहरणकर्ता, डाकू आज विधायक और प्रशासक बने बैठे हैं। जिन्हें जेल में होना चाहिए, वे सरकारी बंगलों में सुरक्षा गार्ड लेकर रह रहे हैं। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि बिना रक्षक साथ लिये जनता के बीच में नहीं जा सकते। कईयों को गोली मारी जा चुकी है।

लोकतंत्र नौटंकी- देश में लोकतंत्र है। जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन। सब धोखा ही धोखा है। मतदाता सूचियां गलत, चुनाव के तरीके गलत, चुनावों में मारधाड़, शराब, दादागिरी, धन का दुष्प्रयोग, इन सबके कारण लोकतंत्र एक हास्य नाटक बनकर रह जाता है। देश में हिन्दुओं की संख्या सबसे अधिक है- लगभग 80 प्रतिशत । परन्तु सबसे अधिक दबे-पिसे, लांछित-अपमानित वे ही हैं। उनका नामलेवा कोई नहीं। मुसलमानों का हिमायती पाकिस्तान और 58 से अधिक मुस्लिम देश हैं। एक भी मुसलमान का बाल भी बांका होता है, तो सारा मुस्लिम जगत् क्रोध से दहाड़ उठता है। बाबरी स्मारक ढहने से क्या तूफान उठ खड़ा हुआ था!

अल्पसंख्यक सुखी हैं- ईसाइयों के हिमायती अमेरिका और यूरोप के देश हैं। भारत में समाचार पत्रों पर, शिक्षा संस्थाओं पर, चिकित्सा सेवाओं पर ईसाइयों का प्रभुत्व है। ईसाई कान्वैंटों और स्कूलों में पढ़े हिन्दू भी ईसाई भक्त हैं। इसलिए एक अरब आबादी वाले इस देश में, जहाँ प्रतिदिन सैकड़ों हिन्दू मारपीट, हत्या, चोरी, बलात्कार, के शिकार होते हैं और उनकी न अखबारों में कहीं चर्चा होती है तथा न कहीं कोई सुनवाई। वहीं यदि किसी ईसाई के प्रति कोई क्षुद्र सा भी अपराध हो जाये, तो उससे न केवल भारत के अंग्रेजी अखबारों के कालम भरे जाते हैं, अपितु विदेशी चैनलों पर उसका भारी शोर मचाया जाता है। तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी इटली में ईसाइयों के पोप से मिले, तो पोप ने पहला प्रश्‍न यही पूछा कि भारत में ईसाइयों पर अत्याचार क्यों हो रहे हैं? इससे ईसाइयों को कितना बल मिलता है !

आज स्वतन्त्रता दिवस पर हमें अपनी स्वतन्त्रता का सही रूप समझ लेने की आवश्यकता है। यदि हम हिन्दू हैं तो हम पर हजार बन्धन हैं, यदि हम मुसलमान या ईसाई हैं तो अल्पसंख्यक होने के नाते हमें अनेक छूटें हैं। हमारे यहाँ एक मानव अधिकार आयोग है, एक अल्पसंख्यक आयोग है। ये दोनों ही यह देखने में लगे हैं कि भारत में किसी अल्पसंख्यक को कोई कष्ट न होने पाये। लोग इसलिए हिन्दू धर्म त्याग कर ईसाई या मुलसमान बन जाना चाहते हैं कि वैसा करने से उन्हें अधिक सुविधाएँ मिल जाती हैं। हिन्दू बनने से सुविधाएँ छिनती है।

हिन्दू कब स्वतन्त्र होगा?- हिन्दू को स्वतन्त्रता किस दिन मिलेगी? कब वह अपनी मनपसन्द शिक्षा पा सकेगा? कब इस देश की भाषा हिन्दी बनेगी? कब संसद् और विधानसभाओं में हिन्दी प्रचलित होगी? कब न्यायालयों में फैसले हिन्दी में लिखे जायेंगे? विश्‍वविद्यालयों के दीक्षान्त भाषण कब हिन्दी में होंगे?

हिन्दू से हमारा अभिप्राय प्रबुद्ध हिन्दू से है, पोंगापंथी हिन्दू से नहीं, राजनीतिक हिन्दू से। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ चाहती है कि हिन्दू उत्साह से भगवती जागरण करें, कांवड़ यात्रा पर निकलें, सोमवती अमावस पर गंगा में नहाएं, परन्तु राजसत्ता में हिन्दू प्रभुत्व की बात न सोचें। यह साम्प्रदायिकता होगी।

प्रबुद्ध हिन्दू वांछनीय है- हिन्दू यदि प्रबुद्ध न हो और अन्धविश्‍वासों से घिरा हो, तो वह ईसाई या मुसलमान से भिन्न नहीं है। विचारों की छूट हिन्दू जीवन शैली की सबसे बड़ी विशेषता है। पढ़ो-लिखो, सोचो-विचारो, जो सही लगे, उसे ग्रहण करो। वैदिक मत भी ठीक है, जैन मत भी ठीक है, बौद्ध मत भी ठीक है, इस प्रकार की मेल-जोल की भावना हिन्दुओं की रही है। इस कुटुम्ब में सबका निर्वाह है। ईसाई और मुसलमान भी इसमें समा सकते थे और समाये भी, पर बाद में कुछ अन्य कारणों से हिन्दुओं से दूर होते गये। आज वे हिन्दुओं के प्रतिद्वन्द्वी बन गये हैं।

वैज्ञानिक उन्नति ने संसार को बहुत छोटा कर दिया है। अब कोई भी देश अलग-थलग रह कर जी नहीं सकता। सन् 1930 तक अंग्रेज भारत को शेष संसार से अलग रख सकते थे। आज रेडियो, दूरदर्शन, कृत्रिम उपग्रहों और कम्प्यूटरों के युग में किसी से कुछ भी छिपा पाना कठिन है। ऐसी दशा में अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा सभी देशों के लिए एक विकट समस्या बन गई है। 

भविष्य में धन बल बड़ा होगा- अब तक प्रभुत्व का आधार शस्त्र बल रहा है, परन्तु भविष्य में धन बल रहेगा। पिछले साठ वर्षों में हमने अपना शस्त्र बल तो बढ़ाया ही नहीं, धन बल भी बहुत घटाया है। हमारी दिखावटी समृद्धि रुपये की घटती जा रही कीमत के कारण है। हम आज भी विमान, टैंक और तोपें विदेशों से खरीदते हैं। आज डॉलर लगभग 40 रुपये का है। जिस दिन एक डालर एक रुपये के बराबर हो जायेगा, उस दिन समझना चाहिए कि देश समृद्ध हो गया है। उससे पहले तो कंगाली ही कंगाली है।

हमारे देश की आर्थिक स्वतन्त्रता तो अभी से खतरे में पड़ गई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में खुला व्यापार करने की छूट देकर हमने अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मार ली है। देश के उद्योग धन्धे प्रतियोगिता में पिछड़ जायेंगे। हमारे देश की सर्वोत्तम उपज, फल, सब्जियाँ, महंगे दामों पर विदेश जा रही हैं और देशवासी उससे वंचित रहते हैं। विदेशों की घटिया से घटिया उपज, अनाज और दालें सस्ते दाम पर भारत आएंगी और लोग झख मारकर उसे खायेंगे।

चुनौती का दिन- आज का स्वतन्त्रता दिवस चुनौती का दिन है। यह मानो कह रहा है कि तुम्हारी स्वतन्त्रता छिनने का भय है, इसलिए हम दृढ़ संकल्प करें कि हम इसे छिनने नहीं देंगे। इसके लिए जो भी बलिदान करना पड़े, हम करेंगे। - मनोहर विद्यालंकार

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