विशेष :

वायु का महत्व

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vayu ka mahatva

पूर्व मन्त्र में आए शुद्ध वायु के लाभों, प्रभावों को अनुभव करके जब कोई भावविभोर हो जाता है तो वह वायु को सामने रखकर उसे सम्बोधित करते हुए इस प्रकार अपने हार्दिक भाव उजागर करता है-
ओ3म् उत वात पितासि न उत भ्रातोत न सखा।
स नो जीवातवे कृधि॥ ऋग्वेद 10.186.2॥

शब्दार्थ- पूर्व भावनाओं के साथ उत = और वात = हे जीवन के सर्वस्व भूत वायु! आपके कारण शुद्ध वायु के रूप में साँस लेने से आप नः = हमारे लिए पिता = पिता की तरह पालक असि = होते हो, बनते हो, उत = और आपके सहयोग से यह प्राणन क्रिया भ्राता= भाई के सदृश भरण-पोषण करने वाली होती है। उत= और श्‍वसन के साधनभूत आप नः= हम सबके सखा = मित्रवत हित साधक बनते हो। अतः सः= वह आप नः= हमें जीवातवे= जीवन के लिए, जीवित रूप में कृधि= कीजिए, रखिए। क्योंकि साँस लेने पर ही हमारा जीवन निर्भर है।

विशेष- प्रायः प्रत्येक वक्ता की अपनी एक शैली होती है। वेद अपने वर्णनीय विषय का वह चाहे चेतन हो या अचेतन, उसको सम्बोधन के रूप में भी प्रयुक्त करता है। अतः अचेतन तत्व भी चेतन की तरह सम्बोधित हुए हैं। इससे ऐसा लगता है कि वेद सबको चेतन मानकर चल रहा है। इस बात से यह भाव चरितार्थ होता है कि वेद वात को सम्बोधित करते हुए वस्तुत वात के स्थान पर वायु का उपयोग करने वालों का संकेतित कर रहा है कि यदि तुम ऐसा चाहते हो तो अपनी चाहना के अनुरूप विधिवत इसका उपयोग करो। तब निश्‍चय ही साधना के अनुरूप सिद्धि सिद्ध होगी। क्योंकि सिद्धि तो साधना की दासी है।

व्याख्या- इस मन्त्र में वायु को पिता, भ्राता, सखा के नाम से पुकारा गया है। ये ऐसे सम्बन्ध हैं, जो हर समय हमारे अनुभव में आने वाले हैं। इस प्रकार अनुभव में आने वाली उपमा देकर वायु का महत्व दर्शाया गया है। अतः वायु इन-इन सम्बन्धों को स्मरण कराकर यह सन्देश दे रहा है कि जैसे जब हम यह चाहते हैं कि हमारे अमुक-अमुक रिश्तेदार इस-दस रिश्ते को इस प्रकार निभाएँ। तब इससे यह भाव प्रकट होता है कि व्यवस्था के अनुसार जब हम उस-उस सम्बन्ध वाले हों तो हमें भी उस-उस सम्बन्ध को उस-उस रूप में निभाना चाहिए। तभी हमारी कामनाएँ पूर्ण हो सकती हैं और समाज व परिवार सुखी बन सकता है।

इस मन्त्र की अगली पंक्ति में जीवातवे शब्द है। इस सूक्त के तीसरे मन्त्र में इसके स्थान पर जीवसे शब्द है। वेद में इन दो प्रयोगों के साथ इसी अर्थ में जीवातुम्, जीवध्यै जैसे शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। जबकि लौकिक संस्कृत में जीवितुम, जीवनाय प्रयोग ही चलते हैं। इन सबमें प्रथम अंश जीव धातु एकसी है, केवल इनमें प्रत्यय का ही भेद है।

भाव यह है कि जीवन को प्रत्येक जीना चाहता है। इससे वह प्यार करता है। इसको बनाए रखने के लिए सबकुछ किया जाता है। अतः यह जीवन बहुत ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि जीवित ही सब तरह की प्रगति व शुभ कर्म करने में समर्थ होता है। अतः मानव जीवन को स्वर्ण अवसर समझना चाहिए, न कि जी का जंजाल या दुःखों, झंझटों का घर। यह जीवन प्राणन क्रिया से ही पल्लवित, पुष्पित, फलित होता है। सामान्य श्‍वास के साथ प्राणायाम का जो कुछ देर नियमित अभ्यास उपयोग करते हैं। वे अधिक लाभ में रहते हैं। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | Ved Katha Pravachan - 102 | Explanation of Vedas | दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म।