वेद की तरह सभी नीतिशास्त्र एक स्वर से परिश्रम, कर्मठता की बात करते हैं। संसार का इतिहास भी इसका साक्षी है कि जिसने जहाँ भी सफलता प्राप्त की है, वह कर्म करके ही की है । तभी तो यह गाया जाता है-
पुरुषार्थ ही इस दुनिया में, सारी कामना पूरी करता है।
मन चाहा सुख उसने पाया जो आलसी बन के पड़ा न रहा॥
वेद ने जीवन को सुन्दर बनाने के लिए नीतिशास्त्र के सदृश अनेक नैतिक बातों की चर्चा की है। इनमें परिश्रम की तरह ही दक्षता, सुमति का वर्णन देखने योग्य है-
ओ3म् उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि।
आ हि रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिर्विर्विदथमा वदासि॥ अथर्ववेद 8.1.6॥
शब्दार्थ- पुरुष = हे पूर्णता की इच्छा रखने वाले! ते = तेरी उद्यानम् = उन्नति हो, अवयानम् न = अवनति नहीं होना चाहिए ते = तेरे, जीवातुम् = जीने के लिए दक्षतातिम् = दक्षता, योग्यता, नीतिनिपुणता, फुर्तीलापन कृणोमि = निर्धारित, निश्चित करता हूँ। इमम् = इस, प्रस्तुत अमृतम् = टिकाऊ, लम्बे समय तक टिकने वाले सुखम् = सुखप्रद रथम् = रमण का साधन बनने वाले ज्ञान, शरीर पर ही = विश्वास के साथ आरोह = सवार हो अर्थात् इसका उपयोग कर। अथ= तब जिर्विः = वृद्धावस्था तक अर्थात अनुभवी बनकर विदथम् = ज्ञान, जीवन सफलता नीति वचनों को आ वदासि = अच्छी प्रकार दूसरों को भी बता।
व्याख्या - इस मन्त्र में मानव देहधारी को पुरुष शब्द से पुकारा गया है। अन्य शरीरों की अपेक्षा मनुष्य की काया में पुरुष = पूर्णता, विकास की अत्यधिक क्षमता है। बुद्धि आदियुक्त अन्तःकरण, ज्ञानेन्द्रियाँ जैसी शक्तियाँ इसी देह में ही हैं। वैज्ञानिक आविष्कार पग-पग पर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अतः प्रत्येक पुरुष = मानव को विविध शक्तियों से पूर्ण होने के कारण उन्नति ही करनी चाहिए। कहीं भी कभी भी अवनति में नहीं पड़ना चाहिए। यह सारा संसार और वेद के नीतिवचन मानव जीवन को उत्कृष्ट सुन्दर बनाने के लिए ही रचे गए हैं।
रथ- मानव जैसा अनोखी शक्तियों वाला और सुख-सुविधा भरा यह टिकाऊ शरीर इसीलिए ही मिला है। हाँ, यह रथ शब्द शरीर के साथ वेदरूपी ज्ञान का भी वाचक है। यतो हि मानव देह ज्ञान के कारण ही औरों से विशिष्ट है। ज्ञान ही रमण के साधनों की प्राप्ति और तज्जन्य सुख की अनुभूति में सहायक है। पूर्व चरण में आया दक्षताति शब्द और अग्रिम चरण में आ रहे विदथम् व आवदासि शब्दों से भी यही पुष्ट होता है। इन शब्दों की पारस्परिक संगति तभी सुन्दर रूप में सामने आती है।
मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में ही है कि व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ी आयु का होता जाए, वैसे-वैसे ज्ञान वृद्ध एवं अनुभवी होकर जहाँ अपने जीवन को निखारे, चार चान्द लगाए, वहाँ अपने इन अनुभवों को अपने अनुजों, अपने से पीछे आने वालों को भी बताए। अपने तक सीमित रहना तो पशुपन ही है। उद्यानम्, दक्षतातिम्, विदथम् इस प्रकरण की दृष्टि से विशेष विचारणीय हैं।
भावार्थ- अनुभवी बनकर उभरना और दूसरों को दिशा-निर्देश देने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। तभी तो कहा है-
पुरुष हो पुरुषार्थ करो, उठो। (मैथिलीशरण गुप्त) वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -101 | Explanation of Vedas | वेद ज्ञान के आचरण से ही कल्याण