ओ3म् द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः।
दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः॥
आ वात वाहि भेषज वि वात वात यद्रपः।
त्वं हि विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे॥ ऋग्वेद 10.137,2,3॥
शब्दार्थ- इमौ द्वौ = ये प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले दो वातौ= गतियुक्त, वायु के प्रतिनिधि के रूपी श्वास-प्रश्वास, प्राण-अपान नामधारी दो बहने, चलने वाले वातः= यथास्थान नियमित गति करते हैं। उनमें से पहला, एक आ सिन्धोः= सिन्धु से आता है और दूसरा आ परावतः= परे से अर्थात अपने परिवर्तिक रूप से (में) आता हे, कार्य करता है। अन्यः= यह एक ते= तेरे लिए, दक्षम्= बल, कौशल, फुर्ती आ वातु= बहाए, तुझे शक्ति-फुर्ती दे। अन्यः= पहले से भिन्न, भिन्न तरह का कार्य करने वाला यद् रपः= जो भी शरीर में विद्यमान, घर किए हुए दोष, विकार रोग हैं। तत् उनको पर वातु= परे करें, निकालें, दूर हटाएं।
वात= हे प्राणवायु! भेषजम्= कष्ट दूरकर सुखकारक रूप में आ वाहि= अच्छी प्रकार से आकर अपना कार्य करो, बहो, चलो। वात= अन्दर से बार रूप में आने, बहने, चलने वाले हे प्रश्वास रूपी अपान वायु! यद्= जो भी हमारे अन्दर रपः= दोष, विकार, रोग हैं। तत् उसको वि वाही= विशेष प्रकार, विविध रूप से दूर करते हुए बहो, दोष को बाहर निकालकर पहले से विपरीत रूप में अपना कार्य करो। हि= निश्चित रूप से त्वम्= प्राण-अपान रूप में अपना कार्य करने वाले आप विश्वभेषजः= सभी की, सभी के लिए दवा रूप हो। आप देवानाम्= अपनी दिव्यता से कार्य करने वाले अग्नि, जल आदि भौतिक देवों के दूतः= प्रतिनिधि, उनसे प्रेरित होकर ईयसे= अपनी गति, रीति से अपना कार्य करते हो।
व्याख्या- बाह्य जगत में वात-वायु का कोई रूप-रंग प्रत्यक्ष नहीं होता है। हाँ, अनुमान प्रमाण द्वारा पत्तों के हिलने, धूलि आदि के उड़ने से तथा स्पर्श से वायु का बोध होता है। प्राणियों के देह में साँस लेना और छोड़ना स्वाभाविक रूप में होता है। इसी को श्वास-प्रश्वास, प्राण-अपान का नाम दिया जाता है । सिन्धु शब्द नदी, समुद्र के लिए प्रयुक्त होता है। यौगिक रूप से बहने अर्थ में है। वेद में पृथिवी और अन्तरिक्ष वाला दो प्रकार का समुद्र है। अतः अन्तरिक्ष, खाली स्थान बाहर से वायु प्राण रूप में अन्दर संचार करता है, जो कि अधिकतम शुद्ध होता है। हाँ, कहीं-कहीं विशेष कारणों, परिस्थितियों से अशुद्ध होता है। पर जब वही प्राण अन्दर से बाहर आता, लौटता है तो अशुद्ध ही होता है।
शुद्ध वायु से बल, दक्षता प्राप्त होती है। जैसे कि शरीर सौष्ठव निर्माण के व्यायाम, भारोत्तोलन में स्पष्ट है। पर वही जब अपान बनकर बाहर आता है तो अन्दर के विकार को भी बाहर लाता है। स्वाभाविक वायु को प्राणायाम के ढंग से जब प्रयोग में लाया जाता है तो यह प्रक्रिया रोगों को दूर कर स्वास्थ्य देने वाली होती है। यह अन्दर के विकारों को भी निकाल देती है।
विश्वभेषज- इस बात को जो भी प्रत्यक्ष करना चाहे वह प्रत्यक्ष कर सकता है। क्योंकि प्राणन क्रिया अप्राकृतिक है, जो कि सभी के लिए एक समान है। इसमें किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है। जो भी चाहे विधिपूर्वक प्राणायाम के अभ्यास से इसका लाभ उठा सकता है। प्रकृति से जुड़े सत्य सभी कालों और स्थानों पर सभी के लिए समान रूप से चरितार्थ होते हैं। तभी तो मन्त्र यह कह रहा है कि यह अभ्यास सभी के लिए दवा रूप है- विश्वभेषजः। किसी एक आध विशेष रोग के लिए नहीं, अपितु सभी रोगों पर सार्थक सिद्ध होता है। यतो हि प्राण शरीरगत बोलने, भोजन पचाने, मल निष्कासन, रक्त संचार में सहयोगी होता है।
जैसे बाह्य जगत में अग्नि, जल आदि देव अपना-अपना कार्य करते हैं। सभी के प्रति समान रूप से अपना धर्म निभाते हैं। इन देवों की तरह ही वायु से प्रेरित, इन प्राकृतिक देवों का दूत बना प्राण शरीर में अपना कार्य चरितार्थ करता है। इसीलिए मन्त्र के अन्तिम चरण में आया है- देवानां दूत ईयसे। अर्थात देवों का यह दूत प्राण अपनी गति से अपना कार्य करता है। यहाँ आया देवानां दूतः शब्द विशेष भाव दे रहा है कि देव शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रकरण के अनुसार इसको ग्रहण करना चाहिए। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 103 | वेद गीता सन्देश - जैसा बोओगे वैसा काटोगे | Explanation of Vedas