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बचाएं गान्धी और सावरकर को

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gandhi or savarkar ko bachaye

स्वतन्त्रता संग्राम के हमारे पुरखों पर जो कीचड़ उछल रहा है, वह थमना चाहिए। गान्धी के नाम पर हम स्वतन्त्रता संग्राम के कितने नायकों की चरित्र हत्या पर उतारू हो गए हैं? गान्धी के मुकाबले आप चाहे जिसे खड़ा कर दें, वह छोटा दिखेगा। छोटे से छोटा कर देने से क्या गान्धी बड़े हो जाएंगे? सावरकर की बात बाद में करेंगे, पहले सुभाषचन्द्र बोस को लें। सुभाष बाबू को लोगों ने क्या-क्या नहीं कहा? उन्हें हिटलर, मुसोलिनी और तोजो से जोड़ा। उन पर व्यक्तिगत आक्षेप किए। उन्हें घनघोर गान्धी-विरोधी बताया गया। इसी प्रकार अम्बेडकर को अंग्रेज समर्थक, मुस्लिम विद्वेषी, गान्धी-शत्रु घोषित किया गया। मानवेन्द्रनाथ राय और श्रीपाद डांगे को भी कीचड़ में घसीटा गया। क्रान्तिकारियों को तो नेपथ्य में ही धकेल दिया गया। चाफेकर बन्धुओं, सावरकर बन्धुओं, श्याम जी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय, बटुकेश्‍वर दत्त, अशफाक, बिस्मिल, महेन्द्र प्रताप, बरकतुल्लाह जैसे सैकड़ों बलिदानियों का नाम-स्मरण क्या हम इस तरह करते हैं, जैसे किसी कृतज्ञ राष्ट्र को करना चाहिए? स्वतन्त्रता संग्राम के लिए केवल गान्धी को याद करना वास्तव में गैर गान्धीवादी कार्य है। क्योंकि यह सत्य का उल्लंघन है।

सत्य तो यह है कि भारत की आजादी के लिए तरह-तरह आन्दोलन चले। हिंसक और अहिंसक भी, व्यक्तिगत और सामूहिक भी। स्वतन्त्रता आन्दोलन की मुख्यधारा का निर्माण अनेक धाराओं और उपधाराओं से मिलकर हुआ। यह कहना कठिन है कि अंग्रेज की कमर तोड़ने में किस धारा ने कब क्या भूमिका निभाई। लेकिन यह स्पष्ट है कि गान्धी धारा सबसे मोटी और सबसे लम्बी धारा थी। इसके बावजूद यह प्रश्‍न भी उठता है कि 1942 में अंग्रेज ने भारत क्यों नहीं छोड़ा। भारत छोड़ो की गान्धी धारा जब सर्वोच्च शिखर पर थी, तब तो अंग्रेज भारत में टिक गया, लेकिन 1947 में यह यह धारा बंट गई, कांग्रेस और मुस्लिम लीग में तथा मद्धिम पड़ गई तब अंग्रेज चला गया। इसीलिए गान्धी को भारत की आजादी का एकमात्र प्रवक्ता हम उसी तरह नहीं बना सकते, जैसे जिन्ना को पाकिस्तान का बनाया जाता है। गान्धी से पहले और बाद में बड़ी से बड़ी कुर्बानियाँ करने वाले अनेक स्वतन्त्रता सेनानी हुए। पाकिस्तान बनाने का श्रेय अकेले जिन्ना को है। लेकिन भारत को आजाद कराने का श्रेय क्या केवल अकेले गान्धी को दिया जा सकता है? स्वयं गान्धी इस अति उत्साह को रद्द कर देते। हम गान्धी को जिन्ना बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? यह कठमुल्लापन वे लोग ज्यादा दिखा रहे हैं, जिनके निजी जीवन या राजनीति में गान्धी का कोई स्थान नहीं है। गान्धी के नाम पर वे ऐसी राजनीति कर रहे हैं, जो भारत की जनता को कृतघ्न बनाती है, आपस में लड़ाती है और राष्ट्र के रूप में भारत का भविष्य अन्धकारमय बनाती है। इसी प्रकार सावरकर के पक्ष में वे लोग चिल्लपों मचा रहे हैं, जिन्हें खुद सावरकर शिखण्डी कहा करते थे और जो सावरकर के बुद्धिवाद को कभी नहीं पचा पाए। दोनों के सच्चे उत्तराधिकारी एक-दूसरे पर तलवार भांज रहे हैं। हे प्रभो! गान्धीवादियों से गान्धी की रक्षा कीजिए और सावरकरवादियों से सावरकर की।

स्वाधीनता संग्राम के सभी सेनानी हमारी श्रद्धा के पात्र होने चाहिएं। लेकिन हम विचित्र लोग हैं कि हम अपने महानायकों की बन्दरबांट में लगे हुए हैं। उन्हें हम अपनी क्षुद्र राजनीति की तोप का भूसा बना रहे हैं। कुछ लोग लिख रहे हैं कि काले पानी में सावरकर ने अंग्रेज से माफियाँ मांगी और कुछ लिख रहे हैं कि गान्धी ने अफ्रीका के बोइर युद्ध में अंग्रेज के लिए सैन्य भर्ती का कार्य किया। यह सब वे लोग लिख रहे हैं, जिन्हें न तो तथ्यों की पृष्ठभूमि का पता है और न ही उनमें इतनी क्षमता है कि इतिहास की इन विवादास्पद घटनाओं का वे वस्तुनिष्ठ विश्‍लेषण कर सकें। यह चिन्ता का विषय है कि कुछ लोग गान्धी को उठाने के लिए सावरकर को गिराना और सावरकर को उठाने के लिए गान्धी को गिराना जरूरी समझ रहे हैं। गान्धी इतने महान थे कि उन्हें उठाने के लिए किसी को भी गिराना जरूरी नहीं है। गान्धी और सावरकर के विचारों में घनघोर विरोध था। इस विरोध पर सैद्धान्तिक बहस तो चलाई जा सकती है, लेकिन चरित्र हनन के लिए हम अपनी जुबान और कलम का दुरुपयोग क्यों करें?

यह कहना मोटी बुद्धि का परिचायक है कि सावरकर और जिन्ना एक ही सिक्के के दो पहलू थे। क्या सावरकर को द्विराष्ट्रवाद का समर्थक कहना उचित है? वास्तव में सावरकर अखण्ड भारत के सबसे शक्तिशाली प्रवक्ता थे। उन्होंने 1937 में हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में यह जरूर कहा था कि यह तथ्य है कि आज भारत में दो राष्ट्र खड़े हो गए हैं-हिन्दू और मुस्लिम। लेकिन ऐसा कहने के पहले उन्होंने इसे ‘अप्रिय तथ्य’ कहा था। उसी भाषण में उन्होंने इस कथन के पहले और बाद में कई बार अखण्ड एकरस भारत की वकालत की है और यह भी साफ-साफ कहा है कि “भारत राज्य को पूरी तरह भारतीय बनने दो।.... किसी भी व्यक्ति के हिन्दू या मुसलमान, ईसाई या यहूदी होने को बिल्कुल भी मान्यता मत दो। भारतीय राज्य के प्रत्येक नागरिक को उसकी व्यक्तिगत गुणवत्ता के आधार पर भी स्वीकार किया जाना चाहिए।’’ उन्होंने आगे कहा कि “स्वतन्त्र भारत में सभी व्यक्तियों को समान अधिकार होगा। किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, विश्‍वास, वंश और पन्थ के आधार पर भेदभाव नहीं होगा।

हिन्दू बहुसंख्या के बावजूद हिन्दू राष्ट्र में उन्हें किसी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं होगा, जबकि मुसलमानों को अल्पसंख्यक होने के नाते उनकी भाषा, संस्कृति और मजहब के लिए विशेष संरक्षण दिया जा सकता है, बशर्ते वे.....हिन्दुओं को दबाने और अपमानित करने का काम न करें।’’ वास्तव में सावरकर मुसलमानों का नहीं, मुस्लिम लीगियों के ब्लैकमेल का विरोध कर रहे थे। प्रकारान्तर से जिन्ना और फजलुल हक के मुकाबले वे गान्धी और नेहरू की सहायता ही कर रहे थे। गान्धी और नेहरू ने विभाजन स्वीकार कर लिया, लेकिन सावरकर अन्त तक उसका विरोध करते रहे। सावरकर ने जिन दो राष्ट्रों हिन्दू और मुस्लिम की बात कही थी, वह उस समय के भारत की भावनात्मक सच्चाई थी। लेकिन वह शुभ थी या स्वीकार्य थी या सही थी, यह सावरकर ने कभी नहीं कहा। यदि यह भावनात्मक सच्चाई नहीं होती, तो गान्धी के जिन्दा रहते भारत का विभाजन क्यों होता?

यह जरूरी नहीं कि सावरकर के सभी विचारों से हम सहमत हों या उनके सभी कृत्यों को सराहनीय मानें। लेकिन उधर-इधर के मोटे-मोटे तथ्यों पर सरसरी नजर डालकर उन्हें अंग्रेजों का समर्थक कह देना और गान्धी हत्या से जोड़ देना गहरी गैर जिम्मेदाराना हरकत है। यदि वे अंग्रेजों के समर्थक होते, तो सुभाष बाबू को आजाद हिन्द फौज बनाने के लिए प्रेरित नहीं करते और हिन्दुओं को अंग्रेज की सेना में घुसकर बगावत के लिए नहीं उकसाते। यह ठीक है कि वे गान्धी की तरह साधनों की पवित्रता और अहिंसा में विश्‍वास नहीं करते थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे देशभक्त नहीं थे या हम उनके विलक्षण साहस और बलिदान की रोमांचकारी गाथा को अनदेखा कर दें। जरूरी यह है कि भारत के स्वस्थ और समग्र राष्ट्रवाद की उद्भावना के लिए गान्धी और नेहरू के साथ-साथ महारानी लक्ष्मीबाई, महर्षि दयानन्द, लाल-बाल-पाल, सावरकर, आजाद, भगतसिंह, आम्बेडकर, लोहिया और जयप्रकाश जैसों की वैकल्पिक धारा का भी उचित स्वीकार और सम्मान किया जाए। आज गान्धी और सावरकर को लड़ाने का नहीं, दोनों को बचाने का समय है। - डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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