शिवाजी जैसी महान् आत्माएं संसार में कम जन्म लेती हैं। ऐसा लड़ाका, ऐसा वीर और शत्रु के मुकाबले में अजेय, जिसने जातीय स्वतन्त्रता के लिए युद्ध में हजारों घरों के चिराग (चौपट सुनसान) कर दिये, गाँव उजाड़ दिये, सैकड़ों बच्चों को अनाथ कर दिया। जिसने शत्रु से बदला लेने के लिए धोखे व चालबाजी से काम लिया। ऐसे मनुष्य के निजी जीवन पर दृष्टि डालो, तो चकित हो जाओगे। सच है, इस प्रकार की अवस्थाओं को देखकर ही मनुष्य कह उठता है कि वह मनुष्य नहीं, अवतार है। उसके देशीय भाइयों ने भी उसकी इन बातों और विचित्र शक्तियों से उसे अवतार बना दिया। यह विचारने का विषय है कि शिवाजी ने अपना जीवन कहाँ से आरम्भ किया और कहाँ समाप्त किया? जिस समय शिवाजी उत्पन्न हुए थे और उन्नीस वर्ष की आयु में पहला धावा किया था, तो क्या हालत थी? बड़े-बड़े इतिहासकारों ने इनकी वीरता और साहस की प्रशंसा की है। औरंगजेब जैसे निर्दयी के शासन काल में उत्पन्न होकर आर्य जाति के गौरव को जीवित कर देना शिवाजी का ही काम था। वे अपने नौकरों और सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक बर्ताव करते थे। शिवाजी को अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले यह समाचार मिला था कि “दुनका जी हतोत्साहित होकर सम्पूर्ण कार्य छोड़ बैठा है और उसने वैराग्य धारण कर लिया है।’‘ ऐसा समाचार पाकर शिवाजी ने एक पत्र लिखा था, जिसका विषय इस प्रकार था-
“प्यारे बन्धु! बहुत दिन हुए तुम्हारा पत्र नहीं मिला, चित्त उदास है। आज ‘रघुपन्त’ के पत्र से ज्ञात हुआ कि तुम उदास हो और अपने शरीर की भी परवाह नहीं करते। तुम्हारी सेना सुस्त पड़ गई है, परन्तु तुम्हें कुछ परवाह नहीं। लोगों को सन्देह है कि तुम कहीं वैरागी न बन जाओ। मैं हैरान हूँ कि तुम अपने पिता के सच्चे दृष्टान्त को क्यों भूल गये? चिरकाल तक उनके साथ रहे और उनकी संगति से लाभ उठाया। यह ध्यान देने की बात है कि पिताजी ने कैसी वीरता व गम्भीरता से कठिनाइयों का सामना करते हुए बड़े-बड़े कार्य किये और नाम पैदा किया, सदैव अपने आपको भयंकर आपत्तियों से बचाया। तुमको उनकी विद्वता एवं गम्भीरता से लाभ उठाने के अनेक अवसर मिलते रहे। मुझको भी जैसा अवसर मिला, मैंने भी उनका यथाशक्ति अनुसरण किया और एक राज्य की बुनियाद डाली। मैं नहीं समझता कि तुमने क्यों सब कार्यों को छोड़कर ऐसे समय में वैराग्य धारण कर लिया। यह वैरागीपन तुम्हें शोभा नहीं देता। आपने राज्यकार्य तथा कोषादि ऐसे मनुष्य के हाथ में दे दिये हैं, जो समय पड़ने पर सबको पचा जाये। क्या तुमको यह उचित है कि वैराग्य धारण करके अपनी शारीरिक अवस्था का सर्वनाश कर दो, यह कैसी विद्वत्ता है? इसका क्या फल होगा? मैं तुम से बड़ा हूँ, मेरी तरफ से कुछ न कुछ डर तुम्हें अवश्य होना चाहिए। अब उठो, निद्रा त्यागो और वैरागी होने का विचार मन से भुला दो। अधीरता एवं शोक को दूर कर दो। अपने नित्य कर्मों में चित्त लगाओ। अपनी शारीरिक अवस्था पर ध्यान दो और आराम की इच्छा करो। अपनी प्रजा की रक्षा करो। अपने सैनिकों पर अधिकार जमाओ और अपने कर्मचारियों से यथायोग्य कार्य लेते हुए संसार में यश पैदा करते रहो। जब ऐसा होगा, तो तुम्हारी कीर्ति और साहस को सुनकर हमारा चित्त शान्त होगा। तुम्हारी इस दशा को देखते हुए हमारा चित्त महान् शोकसागर में डूबा हुआ है। अतएव उठो! कमर बान्ध अपनी अवस्था पर ध्यान दो और मेरे चित्त के दुःख को दूर करो। यह आयु तुम्हारे वैराग्य धारण करने के लिए नहीं, वरन् बड़े-बड़े कार्य करके यश पैदा करने के लिए है। हाँ, वृद्धावस्था का समय तो वैराग्य धारण करने का होता है, परन्तु तुमने तो अभी से ही वैराग्य धारण कर लिया है। न मालूम अभी तुमने कौन से काम किये हैं, जो अभी से ही शान्त हुए जाते हो। देखना है कि अब क्या करके दिखाते हो?’’
यह शिक्षा शिवाजी ने अत्यन्त शुद्ध भाव एवं सच्चे दिल से दी थी। शत्रुओं की स्त्रियाँ जब कभी शिवाजी को मिलती थीं, तो उनके साथ शुद्ध हृदय से पेश आते थे और आदर सहित उनको अपने घर भिजवा देते थे। शिवाजी कभी दूसरे मत से विरोध न करते थे। खानखाँ ने अपनी पुस्तक के दूसरे भाग (पृष्ठ 110) में लिखा है कि शिवाजी का यह नियम था कि कोई मस्जिदों को हानि न पहुँचावे, औरतों को न छेड़े और मुसलमानों के मजहब की हंसी न उड़ावे। शिवाजी को जब कभी कोई ‘कुरान’ की पुस्तक मिलती थी, तो किसी मुसलमान को दे देते थे। औरतों को आदर की दृष्टि से देखते थे और उन्हें उनके रिश्तेदारों की शरण में पहुँचा देते थे। लूट-खसोट में गरीबों और काश्तकारों की रक्षा करते थे। गो-ब्राह्मणों के लिए तो वे देवतास्वरूप थे।
यद्यपि बहुत से लोग उनको लालची बताते हैं, परन्तु उनके जीवन के कार्यों से विदित होता है कि वे जुल्म और अन्याय से धन कमाकर इकट्ठा करना अत्यन्त नीच काम समझते थे। शत्रु के धन को और राज्य को लूटने को वह अच्छा समझते थे। एक बार दिलेर खाँ शिवाजी के राज्य से बहुत सा माल और धन लूटकर ले चला था। जब शिवाजी को खबर मिली, तो तत्काल उसका पीछा किया और धन वापस लाकर मालिकों को दे दिया।
शिवाजी की सफलता उनकी वीरता पर निर्भर थी। वे ऐसे बुद्धिमान थे, मानो जादू के पुतले हों। जो मनुष्य एक बार उनके हाथ आया, वह कभी भी रुष्ट होकर नहीं गया। शिवाजी अपने धर्म पर अत्यन्त दृढ रहते थे। रामायण और महाभारत के श्रवण से उनको अत्यधिक प्रेम था। कभी-कभी मौका पाकर युद्ध स्थल से ही कथा श्रवण करने को चले जाते थे। जहाँ कहीं भी धर्म-चर्चा और मत-मतान्तरों पर शास्त्रार्थ का समाचार पाते थे, वहाँ अवश्य पहुँचा करते थे। पूजा और नित्य कर्म में कभी फर्क नहीं पड़ता था।
राज्य-प्रबन्ध में शिवाजी का मस्तिष्क और विचारशक्ति बहुत उच्च कोटि की थी। शिवाजी केवल उच्च बुद्धि के वीर तथा सिपाही ही न थे, वरन राजनीतिज्ञों और राजशासकों में भी अद्वितीय थे। - पंजाब केसरी लाला लाजपतराय
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