माता निर्माता भवति
पिता ने उसके मुँह पर कुछ सूजन देखी तो पूछा- बेटी! क्या हुआ?
बालिका का मुँह तमतमाया हुआ था। आँखों में अपमान के आँसू भी छिपे हुए थे। रूद्ध कण्ठ से बोली- “मुझे एक मुगल ने थप्पड़ मारा है।’‘
“क्यों क्या बात हुई थी?’’ “मैंने उसे मन्दिर की तरफ हुक्के का धुआँ छोड़ने के लिये मना किया था।’‘ पिता केवल एक गम्भीर ‘हूँ’ करके रह गया। बालिका बोली- “पिताजी! उस दुष्ट मुगल को सजा मिलनी चाहिए।’’ पिता ने बात टालते हुए कहा, “हम तो बौने हैं। समय ही उसको सजा देगा।’‘ वे स्वयं मुगलों की अधीनता में थे। प्रतिकार की बात सोच नहीं सकते थे।
बालिका बड़ी हुई। विवाह हो गया। पति जागीरदार थे। शस्त्र और व्यूह-विद्या में कुशल थे। अतः मौका पाकर एक दिन उसने उन्हीं से चर्चा की। अपमान की बात वह भूल नहीं पाई थी। उसने वह सब पति को बताया। और कहा- “आप शूरवीर हैं। मुगलों से प्रतिकार का उपाय करिये।’‘ पति कुछ सोचने लगे। बोले-“बचपन की बात भूल जाओ। यह समय प्रतिकार का नहीं है।‘’ वे स्वयं भी बीजापुर के सुल्तान की चाकरी में थे।
समय गुजरता गया। वह माँ बन गई। अपमान की बात वह अब भी नहीं भूल पाई थी। बालक गर्भ में था, तब भी वह रात-रात सोचती रहती कि किस तरह इस देश से मुगलों के अत्याचार समाप्त किये जा सकते हैं? कौन करेगा यह कठिन कर्त्तव्य कर्म? बालक जैसे-जैसे बड़ा होता गया, वह उसे शूरवीरों और स्वाभिमानी महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती गई, पिलाती गई शौर्य-संस्कार दूध की घट्टी के साथ। अलबत्ता लाजवश अपने अपमान की बात बेटे को कभी नहीं बताई। लेकिन हृदय में उस अपमान की धधकती ज्वाला ने जो संस्कार उस शिशु को प्रदान किये, उससे कालान्तर में वह बालक विश्व विख्यात हो सका। और तब दुनियाँ ने जाना कि इसी बालक का नाम शिवाजी था और वे महीयसी माता थी वीर-जननी जीजाबाई!
धन्या मातृशक्ति : धन्य शिवाजी !
महाराष्ट्र प्रान्त के किसी गाँव में एक निर्धन परिवार रहता था। गृहपति निर्धन तो था ही, लोभी भी था। उसके एक समझदार पुत्र था। अकस्मात् पुत्र बीमार हो गया। रोग यहाँ तक बढ़ा कि घर वालों ने उसके जीने की आशा छोड़ दी। कोई भी दवा उसके लिये कारगर न हो सकी। आखिर एक फकीर ने उस निर्धन से कहा- “यदि तुम मुझे एक हजार अशर्फियाँ दो तो मैं तुम्हारे पुत्र को अच्छा कर दूँगा।’‘ वह इतना धन कहाँ से लाता? अतः गृहपति चिन्ता के सागर में डूबने उतराने लगा।
औरंगजेब का जमाना था। देश में राजनीतिक विप्लव की आँधी बड़े वेग से चल रही थी। एक ओर औरंगजेब अपनी सारी शक्ति लगाकर तेजी से क्रूर दमन-चक्र चला रहा था। दूसरी ओर देश के सपूत राष्ट्रीय यज्ञ में हँस-हँसकर अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे, लड़ रहे थे। औरंगजेब की खड्ग के नीचे पशुता नङ्गी होकर नाच रही थी। मनुष्यता का दम घुट रहा था।
इसी समय महाराष्ट्र केशरी शिवाजी औरंगजेब के कारागार से निकले और घूमते-घामते उसी गांव के मन्दिर में आकर ठहरे। औरंगजेब ने यह आज्ञा निकाली कि “जो कोई भी शिवाजी को पकड़कर हमारे हाथों में सौंप देगा, उसे मुंहमांगी अशर्फियाँ इनाम में दी जाएंगी।‘’ जब उस गृहस्थ को पता चला कि औरंगजेब ने शिवाजी के पकड़ने वाले को मुँहमांगी आशर्फियाँ इनाम देने का ऐलान किया है तो वह सोच में पड़ गया। मन में पाप आ समाया। उसे किसी तरह यह भी मालूम हो गया कि शिवाजी उसी गाँव में ठहरे हुए हैं। उसने औरंगजेब को सूचना देकर अपने पुत्र की चिकित्सा के लिए एक हजार अशर्फियाँ प्राप्त करने का निश्चय किया।
घर वालों ने उसे बहुत समझाया कि ऐसे महापुरुष को उस दुष्ट के हवाले हरगिज नहीं करना। परन्तु उसने उनकी एक न सुनी। सुबह जाने का निश्चय किया। उस निर्धन की पुत्रवधू बुद्धिमती थी। उसके मन में देश जाति, धर्म और राष्ट्र के प्रति बड़ा प्रेम था। वह वहीं खड़े-खड़े बातें सुन रही थी। उससे यह नहीं सहा गया।
घनघोर अंधेरी रात थी। लेकिन वह कुलवधु अकेली ही मन्दिर की ओर चल पड़ी। इधर मन्दिर में शिवाजी किसी की आहट पाकर सतर्क हो गये। डपटकर पूछा- कौन है?
तत्काल एक तरुणी उनके सामने आयी तो वे बड़े चकित हुए। उन्होंने विस्मय में पूछा- “क्या है बेटी? यहाँ इस समय क्यों आयी हो ?’’
युवती ने कहा- “महाराज, आप तुरन्त इस गाँव से चले जाएं।’’ शिवाजी ने पूछा- क्यों? इस पर उसने आदि से अन्त तक सारी बात कह सुनाई। यह भी कह दिया कि उसका श्वसुर सुबह ही बादशाह को इसकी सूचना देने चला जाएगा।
सब बातें सुनकर शिवाजी को बड़ा अचम्भा हुआ कि यह स्त्री अपने पति की मृत्यु की चिन्ता न करके मुझे क्यों बचाना चाहती है। पूछने पर उसने कहा- “महाराज, आज आप ही राष्ट्र के कर्णधार हैं। यदि आप नहीं रहे तो राष्ट्र में लाखों विधवायें हो जायेंगी। ऐसे तो केवल मैं ही विधवा होऊंगी। मुझे पति से प्रेम है, पर राष्ट्र को जीवन दान मिले तो यह मेरे लिये गौरव की बात होगी। त्याग और उत्सर्ग में ही जीवन की सफलता है।’‘
शिवाजी उसकी राष्ट्रभक्ति को देखकर गद्गद् हो उठे। वे चले गये, किन्तु जल्द ही उन्होंने बहुत सा धन भेजा। 10-12 दिनों में उसका पति भी अच्छा हो गया। पति ने पूछा- “तमाम दवा के व्यय की व्यवस्था किसने की ?’’ पत्नी का उत्तर सुन युवक शिवाजी का सहयोगी और पूर्ण राष्ट्रभक्त बन गया। धन्य थी वह महिला, धन्य थे शिवाजी!
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