विशेष :

हमें ऋणमुक्त करो !

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sadhna

ओ3म् अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन् तृतीये लोके अनृणाः स्याम।
ये देवयानाः पितृयाणाश्‍च लोकाः सर्वान् पथो अनृणा आ क्षियेम॥ अथर्ववेद 6.117.3॥
ऋषि: कौशिकः ॥ देवता अग्निः ॥ छन्दः त्रिष्टुप् ॥
विनय- मनुष्य तो जन्म से ही कुछ ऊँचे ऋणों से बँधा हुआ है। मनुष्य उत्पन्न होते ही ऋणी है और उन वास्तविक ऋणों से मुक्त होना ही मनुष्य-जीवन की इतिकर्त्तव्यता है। मनुष्य ने संसार के तीनों लोकों को भोगने के लिए जो तीन शरीर पाये हैं, उसी से वह तीन प्रकार से ऋणी है। हे प्रभो ! हम चाहे पितृयाण मार्ग के यात्री हों या देवयान के, हम इन तीन लोकों की अनृणता करते ही रहें। हम अपनी सब शक्ति और सब यत्न इन ऋणों को उतारने में ही व्यय करते हुए जीवन बिताएँ। इस स्थूल भूलोक का ऋण अन्यों को भौतिक सुख देने से तथा समाज को अपने से कोई श्रेष्ठतर भौतिक सन्तान दे जाने से उतरता है। इसी प्रकार मनुष्यों को जगत् की प्राकृतिक अग्नि आदि शक्तियों से तथा साथी मनुष्यों की निःस्वार्थ सेवाओं से जो सुख निरन्तर मिल रहा है उसके ऋण को उतारने के लिए, इन यज्ञ-चक्रों को जारी रखने के निमित्त उसे यज्ञकर्म करना भी आवश्यक है और तीसरे ज्ञान के लोक से मनुष्य को जो ज्ञान का परम लाभ हो रहा है, उसकी सन्तति भी जारी रखने के लिए स्वयं विद्या का स्वाध्याय और प्रवचन करके उससे उसे अनृण होना चाहिए। जो त्यागी लोग सांसारिक भोग की कामना नहीं करते, अतएव जिन्हें ये तीन ऋण इस प्रकार नहीं बान्धते, उन ब्रह्मचर्य, तप, श्रद्धा के मार्ग से चलने वाले देवयान के यात्रियों को भी अपने तीनों शरीरों के उपयोग लेने का ऋण चुकता करना चाहिए। अर्थात् अपने भौतिक शरीर से वे बेशक सन्तान उत्पन्न करना आदि न करें, पर शरीर द्वारा सेवा के अन्य स्थूल कर्म उन्हें करने ही चाहिएँ तथा द्युलोक-सम्बन्धी तीसरे विज्ञानमय शरीर द्वारा ज्ञान-सूर्य बनकर ज्ञान की किरणें प्रसारित करते हुए तीसरे लोक में भी अनृण होना चाहिए।

ओह ! मनुष्य तो सर्वदा ऋणों से लदा हुआ है! जो जीव इस त्रिविध शरीर को पाकर भी अपने को ऋणबद्ध अनुभव नहीं करता वह कितना अज्ञानी है! हमें तो, हे स्वामिन् ! ऐसी बुद्धि और शक्ति दो कि हम चाहे देवयानी हों या पितृयानी, हम सब लोकों में रहते हुए, सब मार्गों पर चलते हुए, लगातार अनृण होते जाएँ।

अगले लोक में पहुँचने से पहले पूर्वलोक के ऋण हम अवश्य पूरे कर दें। अगले मार्ग पर जाते हुए पिछले मार्ग के ऋण उतार चुके हों।

इस प्रकार लगातार घोर यत्न करते हुए हम सदा सब लोकों में अनृण होकर ही रहें।

शब्दार्थ- अस्मिन् अनृणाः=इस लोक में हम अनृण हों, परस्मिन् अनृणाः= पहले लोक में अनृण हों और तृतीये लोके अनृणाः स्याम=तीसरे लोक में भी अनृण हों ये देवयानाः पितृयाणाश्‍च लोकाः= जो देवयान या पितृयान मार्गों के लोक हैं उनमें सर्वान् पथः=सब मार्ग चलते हुए हम अनृणाः आ क्षियेम= ऋणमुक्त होकर रहें, बसें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - अप्रैल 2016)

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