विशेष :

हम उसे जानें

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ओ3म् यस्तिष्ठति चरति यश्‍च वञ्चति यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम्।
द्वौ सन्निषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः॥ अथर्ववेद 4.16.2॥
ऋषि: ब्रह्मा ॥ देवता वरुण: ॥ छन्द: त्रिष्टुप्॥

विनय- पाप से वास्तव में डरनेवाले मनुष्य संसार में विरले ही होते हैं। प्रायः लोग पाप करने से नहीं डरते, किन्तु पापी समझे जाने से डरते हैं। जहाँ कोई देखनेवाला न हो वहाँ अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाना या कोई पाप कर लेना साधारण बात है। पाप व अपराध-कर्म से बचने की कोई कोशिश नहीं करता। कोशिश तो इस बात की होती है कि हम वैसा करते हुए कहीं पकड़े न जाएँ। यही कारण है कि मनुष्य अपने बहुत-से कार्य छिपकर अकेले में करने को प्रवृत्त होता है। परन्तु यदि उसे इस संसार के सच्चे एकमात्र राजा वरुणदेव की खबर हो तो वह ऐसे घोर अज्ञान में न रहे। यदि उसे मालूम हो कि वे जगत् के ईश्‍वर वरुण भगवान् सर्वव्यापक और सर्वद्रष्टा हैं तो वह पाप के आचरण करने से डरने लगे, वह एकान्त में भी कभी पाप में प्रवृत्त न हो सके। यदि हम समझते हैं कि हम कोई काम गुप्त तौर पर कर सकते हैं तो सचमुच हम बड़े धोखे में हैं। उस सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापक वरुण से तो कुछ भी छिपाकर करना असम्भव है। जब हम दो आदमी कोई गुप्त मन्त्रणा करने के लिए किसी अँधेरी-से-अँधेरी कोठड़ी में जाकर बैठते हैं और सलाहें करने लगते हैं, तो यद्यपि हम समझ रहे होते हैं कि हम दोनों के सिवाय संसार में और कोई इन बातों को नहीं जानता, तथापि इन सब बातों को वह वरुणदेव वहीं तीसरा होकर बैठा हुआ सुन रहा होता है। यदि हम वहाँ से उठकर किसी किले में जा बैठें या किसी सर्वथा निर्जन वन में पहुँच जाएँ तो वहाँ पर भी वह वरुणदेव तो तीसरा साक्षी होकर पहले से बैठा हुआ होता है। उससे छिपाकर हम कुछ नहीं कर सकते हैं। यदि हम दूसरे किसी आदमी को भी कुछ नहीं बताते, केवल अपने ही मनमें कुछ सोचते हैं, तो वह वरुण तो उसे भी जानता है। जब सुनता है। हमारे चलने या ठहरने को, हमारी छोटी-से-छोटी हरकत को वह जानता है। जब हम दूसरों को धोखा देते हैं, ठग लेते हैं और समझते हैं कि इसका किसी को पता नहीं लगा, तब हम खुद कितने भारी धोखे में होते हैं! क्योंकि उस वरुण को तो सब-कुछ पता होता है और हमें उसका फल भोगना पड़ता है।

शब्दार्थ- यः तिष्ठति, चरति=जो मनुष्य खडा है या चलता है, यः च वञ्चति= दूसरों को ठगता है यः निलायं चरति=जो छिपकर कुछ करतूत करता है य: प्रतङ्कं चरति=जो दूसरों को भारी कष्ट आदि देकर अत्याचार करता है और द्वौ सन्निषद्य=जब दो आदमी मिलकर, एक-साथ बैठकर, यत् मन्त्रयेते= जो कुछ गुप्त मन्त्रणाएँ करते हैं तत्=उसे भी तृतीयः=तीसरा होकर वरुणः राजा=सर्वश्रेष्ठ सच्चा राजा परमेश्‍वर वेद=जानता है। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- अगस्त 2015)

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