ओ3म् यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते।
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत् स जनास इन्द्र:॥ ऋग्वेद 2.12.9॥
ऋषि: गृत्समद:॥ देवता-इन्द्र:॥ छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप्॥
विनय- लोग ‘ईश्वर‘-‘ईश्वर‘ नाम लिया करते हैं। परन्तु हे मनुष्यो! क्या तुम उसे अनुभव करते हो? बेशक वह इन्द्रियों से परे होने के कारण आँख आदि से ग्रहण नहीं किया जा सकता, तो भी प्रत्येक मनुष्य उसे अनुभव कर सकता है। इस संसार में मनुष्य को जो कुछ विजय मिलती है वह सब उसी से मिलती है। उसकी अनुकूलता के बिना बड़े से बड़े बली अभिमानी को भी विजय नहीं मिल सकती। सब विजय उसी की है । अत: जहाँ प्रत्येक विजय में हम उसकी महत्ता का अनुभव करें, वहाँ अपनी प्रत्येक हार में भी उसकी महत्ता को देखें, जिसकी स्वीकृति न होने के कारण ही हमें प्रत्येक हार मिलती है। इस युद्धमय संसार में मनुष्य जब अपनी सब प्रकार की शक्ति से निराश हो जाता है और हारता हुआ अपने को बिल्कुल बेबस जानकर जिस एक अज्ञात और अपने से ऊँची शक्ति को पुकारने लगता है, वही शक्ति परमेश्वर है। नास्तिक पुरुष के हृदय में भी उस चरम नि:सहायता की अवस्था में किसी अन्य शक्ति से सहायता पाने की छिपी हुई आशा प्रकट हो जाती है। उस शक्ति को क्यों नहीं देखते? अपनी इस चरम नि:सहाय दशा में हारकर, बेबस होकर उस ईश्वरीय शक्ति को अनुभव करो जिसके बिना संसार में कोई भी विजय नहीं मिलती। देखो, यह वह है जिसे रक्षा पाने के लिए सब मनुष्य युद्धों में पुकार रहे हैं और यदि चाहो तो संसार की एक-एक वस्तु में उसे अनुभव करो। यह सब विश्व उसी को दिखा रहा है। यह संसार और किसमें रक्खा हुआ है? इस विश्व को किसने धारा हुआ है? यही वह है जो इस सब संसार का आधार, सार और आत्मा है और ऐसा होकर भी संसार की प्रत्येक वस्तु में ऐसा तद्रूप (ऐसा तत्प्रतिम) हो बैठा है कि मनुष्य संसार की वस्तुओं को देखते हैं पर उसे नहीं देखते, पर यह न दीखनेवाला ही सब-कुछ है। इस संसार में जो असम्भव सम्भव हो रहे हैं, जिनके कभी मिटने की सम्भावना नहीं होती वे क्षण-भर में मिट जाते हैं। ये सब काम वही न दीखनेवाला कर रहा है। जिन्हें यह दुनिया अडिग समझती है, वह उन्हें भी चुपके से गिरा देता है। उस ‘अच्युतच्युत्‘ को देखो! संसार की एक-एक चीज में रमे हुए उसे देखो! वह विश्वमय होकर हमारे सामने खड़ा है, उसे क्यों नहीं देखते? हे मनुष्यो! उसे देखो, वही इन्द्र है, वही परमेश्वर है।
शब्दार्थ- जनास:= हे मनुष्यो! इन्द्र: स: =परमेश्वर वह वस्तु है यस्मात् ऋते जनास: न विजयन्ते=जिसके बिना मनुष्यों को कभी विजय नहीं मिलती और यं युध्यमाना: अवसे हवन्ते=जिसे युद्ध करते हुए सब मनुष्य रक्षा के लिए पुकारते हैं तथा य: विश्वस्य प्रतिमानं बभूव= जो विश्व का प्रतिमान अर्थात् उसके प्रत्येक पदार्थ का निर्माता होकर, सब विश्व को अपने में रखकर, तद्रूप हुआ-हुआ है य: अच्युतच्युत्= और जो न डिगनेवाले बड़े दृढ पदार्थों को भी डिगा देता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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