सामाजिक कर्त्तव्य : सामाजिक जीवन- प्रत्येक मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, क्योंकि समाज में ही उसका जन्म और पालन होता है। विश्व स्तर पर देखा जाए तो हजारों-लाखों ही नहीं, अपितु करोड़ों-अरबों लोग मानव समाज की अन्न, वस्त्र, भवन, चिकित्सा, सुरक्षा, शिक्षा, आवागमन आदि मौलिक एवं दूर-सन्देश, दूरभाष, आकाशावणी, दूरदर्शन, पत्र-व्यवस्था (डाक) सदृश सहायक तथा सुविधावर्धक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगे हुए हैं। अत: समाज के बिना व्यक्ति न तो जीवित रह सकता है और न ही प्रगति कर सकता है। इसलिए मनुष्य को परस्पर अपेक्षी सामाजिक प्राणी कहते हैं और सामाजिकता मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण है। तभी तो वह अकेले में निराशा, हताश, उदास और दुखी हो जाता है। अकेलेपन में वह भय अनुभव करता है और सामाजिकता में हर एक आशा, उत्साह एवं सुख अनुभव करता है।
सामाजिक और वैयक्तिक जीवन को सुखी बनाने के लिए परस्पर सहयोग एवं सद्भाव की अत्यन्त आवश्यकता होती है तथा यह सब सामाजिक सम्बन्धों की घनिष्ठता पर ही निर्भर है। ये सामाजिक सम्बन्ध तीन प्रकार के होते हैं- पारिवारिक, मित्रवर्गीय तथा कारोबारी। जिसके साथ जिस प्रकार का सामाजिक सम्बन्ध है, वह सम्बन्ध परस्पर जितनी सचाई के साथ होगा, तब दोनों को तथा उनके साथ ही समाज को उतना ही अधिक सुख-शान्ति का अनुभव प्राप्त करने का अवसर और सहयोग प्राप्त होगा।
जैसे कि पति-पत्नी के रूप में धार्मिक-सामाजिक मर्यादापूर्वक साथ रहने की घोषणा से परिवार का शुभारम्भ होता है। परिवार में माता-पिता, सन्तान, भाई-बहन आदि पारिवारिक जन आते हैं। परिवार में जिसका जिसके साथ जैसा सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध को परस्पर ईमानदारी से निभाने पर ही परिवार का सुख-आनन्द प्रकट होता है।
अत: सामाजिक जीवन को सुदृढ बनाने के लिए किसी के काम आना, दूसरों की सहायता करना बहुत आवश्यक है। तभी तो कहा है -
यही है इबादत, यही है दीनो ईमां। इन्सान के काम आए इन्सां॥
जिसने की इन्सान की खिदमत, दुनिया में है इन्सान वही।
जो अपना मतलब देखे, हैवान है वह इन्सान नहीं॥
किसी के काम जो आए, उसे इन्सान कहते हैं।
पराया दर्द अपनाए, उसे इन्सान कहते हैं॥
परिवार की तरह जब किसी को समाज में सहयोग, सद्भाव प्राप्त होता है तभी उसका जीवन सुखी होता है। प्रत्येक व्यक्ति जहाँ परस्पर सद्भाव-सहयोग चाहता है, वहाँ वह स्वाभाविक रूप से सम्मान की भी इच्छा रखता है। यह जीने का समान सामाजिक अवसर और सम्मान जब व्यक्ति को पारस्परिक व्यवहार, योगदान, योग्यता के अनुरूप प्राप्त होता है, तो वह अपने आपको सुखी मानता है। पर जब किसी के साथ केवल जाति, धर्म, धन के आधार पर सामाजिक जीने के अवसर और सम्मान में भेदभाव किया जाता है, तो सामाजिक संगठन ढीला हो जाता है। तब परस्पर उपजी भिन्नता की भावना घृणा, ईर्ष्या, द्वेष की ओर ही बढती है। अत: बिना किसी कारण के परस्पर भेदभाव एक अन्याय है और इसको मानना, वर्तना अन्याय का ही समर्थन है। प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा, संस्कार और अवसर मिलने पर प्रगति कर सकता है, जैसे कि भारतीय नागरिक होने से हम भारतीय समाज के समान सदस्य हैं।
सामाजिक सम्बन्ध जहाँ कुछ के साथ पारिवारिक रूप में होते हैं, तो कुछ के साथ मित्रता के रूप में होते हैं और कुछ के साथ शैक्षणिक, राजनीतिक, आर्थिक सहयोगी के रूप में होते हैं। जिससे व्यक्ति का सम्बन्ध जितने अंश में सुन्दर, सद्भावपूर्ण होता है, उतने अंश में उस दृष्टि से व्यक्ति अपने आपको सन्तुष्ट अनुभव करता हैं। इन्हीं सम्बन्धों की घनिष्ठता और शुचिता पर ही हमारा सामाजिक जीवन टिका हुआ है। समाज की व्यवस्था हाथ की अंगुलियों की तरह है जो कि एक सी नहीं हैं, उनका हाथ में स्थान, क्रम, आकृति, शक्ति भिन्न-भिन्न हैं, पुनरपि वे हर कार्य के समय समस्थिति में आ जाती हैं। ऐसे ही सामाजिक कार्यों और संगठन में सभी को समान अवसर और सम्मान अर्थात जीवन का अधिकार दिया जाए।
परिवार- सामाजिक सम्बन्धों की प्रथम ईकाई परिवार है, जिसका शुभारम्भ एक युवक और युवती द्वारा धार्मिक-सामाजिक मर्यादा के साथ एक-दूसरे को पूरी तरह से अपनाने से होता है। इसी उद्यान की पुष्प सन्तानें हैं । संयुक्त परिवार में माता-पिता, भाई-बहन आदि भी आते हैं। ये रिस्तेदारियाँ आगे से आगे जंजीर की कड़ियों की तरह जुड़ी होती हैं। अन्य सांझेदारियों की तरह विवाह की भी कुछ शर्तें, व्यवस्थायें होती हैं। सांझे जीवन में पारस्परिक सहयोग, सद्भाव का आधार स्नेह है। इसका मूल एक-दूसरे पर विश्वास है और विश्वास का आधार है- सचाई, निच्छलता। इसीलिए इनको जीवन-साथी, अर्द्धांग-अर्द्धांगिनी कहते हैं। दोनों में जितना अधिक विचार साम्य और परस्पर समझने की भावना होती है, उनका विवाहित जीवन उतना ही सफल होता है। यही बात बहुत कुछ मित्रों पर भी लागू होती है। हाँ, विश्वास के अभाव में सब कुछ बिखरने लगता है।
आस्तिक भावना : ईश्वर सत्ता- यह तो निश्चित बात है कि यह संसार न तो आपने बनाया है और न ही मैंने बनाया है तथा न हमारे पूर्वजों ने। हम सबसे ऊपर एक शक्ति, सत्ता है, जो इस अपार संसार को बनाती और चलाती है। ये सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र, जल-वायु-धरती आदि सहस्रश: प्राकृतिक, भौतिक पदार्थ हैं जो एक व्यवस्थित व्यवस्था में अपना-अपना कार्य कर रहे हैं। यह व्यवस्था सभी के लिए समान रूप से सर्वत्र चल रही है। कोई भी इस व्यवस्था से इधन-उधर नहीं जा सकता। सभी उस महान सत्ता के नियमों में बन्धे हुए हैं। तभी तो मेरे व आपके न चाहते हुए भी डाक्टरों के देखते-देखते अर्थात सारा प्रयत्न करने पर भी मौत का चक्र चलता है। जो इस दृश्य-अदृश्य रूपी सारे जग का निर्माता और व्यवस्थापक है, वही ईश्वर है।
उस महान शक्ति के प्रति स्वीकृति, उसके नियमों को मानने-समझने की भावना रखना, उसके प्रति कृतज्ञ रहना अर्थात उसके द्वारा होने वाले कार्यों को स्वीकारना, आदर भावना देना ही आस्तिक भावना है। यही उसकी उपासना-पूजा-भक्ति है कि व्यक्ति सदा कृतज्ञ होकर उसके नियमों को मानने का, उससे जुड़ने का प्रयास करे। उस अपार, अमर शक्ति के प्रति समर्पण बुद्धि रखने से मनुष्य में अहंकार की भावना नहीं आती और तब व्यक्ति बे सिर-पैर के कार्य जैसी बातें नहीं करता। अर्थात् दूसरों से अन्याय, धक्केशाही और उन पर किसी प्रकार का अत्याचार या उनका शोषण नहीं करता।
भक्ति-उपासना द्वारा उस महान सत्ता से अपना सम्बन्ध जोड़ने पर व्यक्ति में आत्मिक बल आता है। इससे वह संकटों और विपरीत परिस्थितियों में घबराता नहीं है। इससे आस्तिक के हृदय में श्रद्धा, पवित्रता, प्रसन्नता, उदारता, नम्रता, शीतलता, सन्तुष्टि की भावनायें उभरती हैं, जड़ जमातीं हैं।
आस्तिक भावना जीवन के लिए बहुत ही कल्याणकारी है। ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने से व्यक्ति में धर्म के प्रति श्रद्धा-विश्वास बना रहता है। सबसे बड़ा लाभ यह है कि जब ईश्वरभक्त ईश्वर को कर्मफलदाता मानता है, तो उसकी कर्मफल व्यवस्था पर उसका विश्वास बना रहता है। इससे पुण्य कर्मों का फल एक दम मिलता हुआ दिखाई न देने पर भी भक्त ईश्वर के विश्वास पर पुण्य (अच्छाई) करता रहता है। दूसरी ओर पापों (बुराइयों) का फल एकदम मिलता हुआ न दिखाई देने पर भी एक आस्तिक ईश्वर की व्यवस्था के भय से पाप कर्मों से दूर रहता है।
ईश्वर पर विश्वास अर्थात ईश्वर को स्वीकार करने से मनुष्य की अनाथता कम होती है। तब वह अपने आपको अकेला, असुरक्षित नहीं मानता। ऐसी स्थिति में व्यक्ति उस महान शक्ति को अपना मित्र, रक्षक, सहायक अनुभव करता है। इससे आस्तिक में उत्साह, धैर्य और आत्मबल आता है। अनेक महापुरुषों, सन्तों, भक्तों का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे विपरीत परिस्थितियों में भी अडोल रहे।
अत: ईश्वर-उपासना, प्रभु-भक्ति का भाव है कि अपने आपको महान शक्ति के साथ जोड़ना तथा अपना निकट से निकट सम्बन्ध अनुभव करनाएवं शिशु जैसे निश्छल होकर पूर्णत: अपने आपको समर्पित करना।
ईश्वर अनुभूति- वह कण-कण में समाया हुआ ईश्वर सब जगह सदा रहता है। उस जगतकर्ता, संसार संचालक परमात्मा की अनुभूति को मानने वाले सारे भक्त, सन्त, शास्त्रविद अपने हृदय में ही सर्वव्यापक नित्य रूप में करते हैं। ईश्वर का अस्तित्त्व स्वीकार करने वालों की यह पक्की धारणा है कि निर्विकार, न्यायकारी परमात्मा जीवों को अपने-अपने कर्मों के अनुरूप ही अनेक तरह के चोलों से जोड़ता है। इन अनन्त चोलों (शरीरों) के रूप में संसार है। इस सब का स्रष्टा, संचालक, व्यवथापक ईश्वर ही है।
ईश्वर की अनुभूति को कराते हुए ही कहा जाता है-
हर जगह मौजूद है, पर नजर आता नहीं।
योग साधन के विना, उसको कोई पाता नहीं॥
योग की साधना को स्पष्ट करते हुए ही समझाया है-
आंख-कान-मुख मून्द कर नाम निरञ्जन लेय।
अन्दर के पट तब खुलें, बाहर के पट देय॥
जब कोई किसी गम्भीर, अभौतिक चीज के सम्बन्ध में सोचता है या ध्यान लगाता है, तब स्वाभाविक रूप से दूसरी ओर (भौतिक) से नाता टूट जाता है। निरंजन, अभौतिक रूप से जुड़ने के लिए पहले स्थूल, भौतिक से अपने ध्यान को हटाना ही होगा। तभी अभौतिक का चिन्तन, मनन हो सकता है। जैसे गहरी नींद में जाते ही अन्य सबसे नाता स्वत: टूट जाता है।
इसका एक सरल रूप ये हो सकता है कि पूर्व चर्चित ईश्वर के स्वरूप के बोधक-ओम् नाम को लम्बी सांस के साथ ओ...म् का गुञ्जार करें और मन में ओम् वाच्य ईश्वर का चिन्तन हो। इस प्रकार बीच में थोड़ा-थोड़ा रुक कर पुन: ओम् का गुञ्जार करें।
उपसंहार- हमारे दुखी जीवन का सबसे बड़ा कारण है- दिनचर्या और जीवनचर्या की अव्यवस्था। इससे हमारी भौतिक इच्छायें पूर्ण नहीं होतीं या बहुत बढ़ जाती हैं। इसीलिए गीताकार (श्रीमद्भगवद्गीता 6.17) ने कहा हैकि जिसका खान-पान, रहन-सहन (भोग) रोजमर्रा के कार्य और सोना-जागना उपयुक्त एवं मर्यादित हैं, उसी का ही जीवन योग, दुःखरहित, सफल होता है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
इसीलिए ही चरककार ने कहा है- समयोग: सुखकारक:। इनकी अव्यवस्था ही सबसे बड़ा दुःख का कारण है। हमारे दुःख रोग के कारण होते हैं और रोग प्राय: आहार-विहार की अमर्यादा से होते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में भी जीवन को मर्यादित बनाने का ही प्रयास किया जाता है। आयुर्वेद में भी इसीलिए ही पथ्य-अपथ्य पर विशेष बल दिया जाता है।
जीवन को सुखी बनाने के लिए व्यक्ति को उन स्थितियों पर भी ध्यान देना चाहिए, जिनमें वह रहता है। जैसे कि ऋतुओ को समझने और उनके अनुकूल चलने से ही व्यक्ति सुखी होता है। ऐसे ही आज के युग में वैज्ञानिक भावना को अपनाने से ही व्यक्ति सुखी हो सकता हैं। जैसे कि जो नदी, पर्वत आदि पदार्थ जैसा है, उनको उसी-उसी रूप में स्वीकार करने से व्यक्ति धोखा नहीं खाता और तब उनका सही उपयोग करके उनसे लाभ, सुख प्राप्त किया जा सकता है, जैसे कि भूमि की गोलाई को समझने-मानने से भूगोल सम्बद्ध उपयोगिताओं से लाभान्वित हो सकते हैं। ऐसे ही परस्पर शिष्ट ढंग से बोलने पर सभी सुखी होते हैं। तभी तो कहा है-
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे आपू शीतल होए॥
अन्यथा कड़वे बोलों से जो महाभारत मचता है उसके उदाहरण पग-पग पर सामने आते रहते हैं और इसके परिणाम को दर्शाने के लिए कहा है-
खीरा मुख से काटिए, मलिए नमक लगाए।
रहिमन कड़वे मुखन को चाहिए यही सजाए॥ - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग - अगस्त 2014)
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