ओ3म् सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि व:।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥ अथर्ववेद 3.30.1॥
अन्वय- अहं (व:) युष्मान् सहृदयं, सामनस्यं अविद्वेषं कृणोमि। अन्य: अन्यम् अभिहर्यत, अघ्न्या जातं वत्सं इव॥
अर्थ- मैं (व:) तुमको (सहृदयम्) हृदयवाला (सामनस्यम्) मनवाला और (अविद्वेषम्) द्वेषरहित (कृणोमि) बनाता हूँ। (अन्य:) एक मनुष्य (अन्यम्) दूसरे मनुष्य के साथ (अभिहर्यत) ऐसा व्यवहार करे (इव) जैसे (अघ्न्या) गाय (जातम्) नव-उत्पन्न (वत्सम्) बछड़े के साथ करती है।
व्याख्या- इस मन्त्र में यह उपदेश दिया गया है कि मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ कैसे बर्तना चाहिए। (व:) तुम लोगों को (कृणादि) मैं बनाता हूँ अर्थात् मेरे उपदेश का उद्देश्य यह है कि आप ऐसे की जाएँ। यहाँ उपदेशक कौन है और किसको उपदेश दे रहा है? सभी वेदमन्त्रों की यह शैली है कि वे ईश्वर की ओर से मनुष्यों के लिए अथवा आचार्यों की ओर से शिष्यों को या उपदेशकों की ओर से श्रोताओं के प्रति उपदेश हैं। वैदिक भाषा में ऋषि वेद को कहते हैं अर्थात् प्रत्येक उपदेशक को ऐसा उपदेश देना चाहिए कि मनुष्य अपना आचरण सुधार सकें। कृणोमि का अर्थ है करोमि या बनाता हूँ, मनुष्य कैसे बन जाएँ? ‘सहृदयम्‘ या हृदयवाले, ‘सामनस्यम्‘ मस्तिष्क वाले, ‘अविद्वेषम्‘ द्वेष न करनेवाले। आदर्श मनुष्य के यही लक्षण हैं। हृदय प्रतीक है प्रेम का। मन या विचार प्रतीक है बुद्धि का। अविद्वेषिता प्रतीक है विश्वहित की। हृदय में प्रेम हो और बुद्धि न हो तो विश्वहित में बाधा पड़ती है । नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा समझा जाता है। जिसमें बुद्धि न हो ऐसा दोस्त अपने लिए भी हानिकारक है और दूसरों के लिए भी। कल्पना कीजिए कि आप सो रहे हैं । आपकी नाक पर एक भिड़ (बर्र) बैठ जाती है। आपका एक नादान दोस्त आपके पास बैठा है। आपके प्रेम से प्रेरित होकर वह आपको भिड़ के काटने से बचाना चाहता है और पास से एक पत्थर उठाकर आपकी नाक पर मार देता है। भिड़ उड़ जाती है और आपकी नाक घायल हो जाती है।
ऐसे व्यापार को आप क्या कहेंगे? दोस्त हृदयवाला है, परन्तु मस्तिष्क-शून्य नादान दोस्त है। क्या आपको ज्ञात है कि संसार में ऐसे बुद्धिहीन सहृदय कितने लोग हैं? लाखों माताएँ मूर्खता-युक्त प्रेम के कारण अपनी सन्तान को नष्ट कर देती हैं। हजारों प्रेमी लोग प्रेम का अनुचित प्रदर्शन करते हैं। बुद्धिहीन प्रेम के कई रूप हैं, कहीं मोह है, कहीं मद, कहीं प्रमाद, कहीं कामुकता। इन सबके हृदय में प्यार है। परन्तु यह सब प्यार नहीं है, प्यार का ढोंग है। इसमें सहृदयता का सर्वथा अभाव है। वेदमन्त्र का उद्देश्य ऐसी सहृदयता नहीं है। उसके लिए सौमनस्यता की आवश्यकता है। बुद्धिमान मित्र आपका हितैषी है। इसलिए प्रेम के साथ यथेष्ट ज्ञान की आवश्यकता है। जो बुद्धिमान शत्रु है वह कम-से-कम अपने हित को समझकर आपको अपने हित की सुरक्षा के लिए ही मित्र बनाना चाहता है। जो बुद्धिमान पुरुष है वह यह भी अनुभव करेगा कि दूसरों के हित में ही अपना हित है। अत: वह परमार्थ के लिए न सही, स्वार्थ के लिए भी विश्व-हित में भागीदार हो जाता है। वह मानो वृक्ष की शाखा पर बैठा हुआ यह समझता है कि यदि वृक्ष की शाखा कट गई तो वह कहाँ रहेगा? वह मनुष्य कितना मूर्ख है जो अपने स्वार्थ के लिए अपने देश को शत्रु के हवाले कर देता है! भारतवर्ष का इतिहास बताता है कि बुद्धिहीन देशहितैषियों ने कितनी बार भारत की स्वतन्त्रता को नष्ट कर दिया। इसलिए सहृदयता के लिए सौमनस्य की परम आवश्यकता है। दोनों भावनाएँ मिलकर ही विद्वेष की भावना को दूर कर सकेंगी।
विद्वेष भयानक रोग है, सांक्रमिक रोग है। जहाँ सब रोग समाप्त हो जाते हैं विद्वेष शेष रहता है। वेद के अन्य मन्त्रों में भी विद्वेष के दोषों की ओर संकेत किया गया है। उपनिषदों में उल्लेख मिलता है कि जब आचार्य शिष्य को उपदेश देता था तो आचार्य और शिष्य दोनों मिलकर व्रत करते थे कि ‘मा विद्विषावहै‘ अर्थात् हम दोनों कभी एक-दूसरे से द्वेष न करेंगे। यदि इस प्रथा को सत्यता के साथ सुव्यवस्थित रक्खा जाए तो देश के विद्यालय देश के कल्याण का कारण बन सकते हैं। सन्ध्या के मन्त्रों में बार-बार आता है- योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: तं वो जम्भे दध्म: । यहाँ भी वही भावना विद्यमान है । अत: मनुष्य को दूसरे मनुष्यों के साथ उचित व्यवहार करने के लिए तीन साधनों का सम्मिलन अत्यावश्यक है- 1. प्रेम करो, 2. बुद्धि के साथ प्रेम करो, 3. इस प्रकार बर्ताव करो कि द्वेष के लिए कोई स्थान न रहे। जहाँ द्वेष-भावना उत्पन्न होती दिखाई दे, स्मरण रक्खो कि वेदमन्त्र आपके कान में चिल्लाकर कह रहा है कि ऐसा करना सृष्टि-क्रम और ईश्वर की इच्छा के विरूद्ध है।
अन्यो अन्यमभिहर्यत। व्यवहार और अभिहार एक ही वस्तु है। व्यवहार=वि+अव-हार। अभिहार=अभि+हार। यहाँ ‘अभि‘ उपसर्ग का प्रयोग ‘वि‘ और ‘अव‘ की अपेक्षा अधिक प्राबल्य प्रकट करता है। व्यवहार उचित भी हो सकता है और अनुचित भी, परन्तु अभिहार तो उचित ही होगा। वेद में उपदेश है कि एक को दूसरे के साथ बिना किसी विशेषता के अच्छा व्यवहार करना चाहिए। सद्-व्यवहार में ये तीनों अंश सम्मिलित हैं- सहृदयता, सामनस्यता और अ-विद्वेष। इस सद्-व्यवहार के लिए एक बड़ा सुन्दर दृष्टान्त दिया है। इससे अधिक व्यापक दृष्टान्त तलाश करने से नहीं मिलेगा।
पहले आप ‘अघ्न्या‘ शब्द पर विचार करें। समस्त भाषाओं में तीन प्रकार के शब्द होते हैं- रूढि, योगरूढि और यौगिक। रूढि वे शब्द हैं जो बिना किसी मनोवैज्ञानिक कारण के अपने अर्थ का द्योतन करते हैं। किसी वस्तु का अर्थ बताने के लिए कोई शब्द चाहिए। आप किसी वस्तु के लिए कोई मनमाना नाम दे सकते हैं। ऐसे नामों को रुढि कहेंगे। इन शब्दों से अर्थों के विषय में किसी गुण की कल्पना नहीं कर सकते। शब्दों की दूसरी कोटि है यौगिक शब्दों की। अर्थात् जिस वस्तु में जो गुण-कर्म या स्वभाव पाया जाए उसका वैसा ही नाम रक्खा जाए। यौगिक शब्द धातुओं से बनते हैं। धातु किसी क्रिया के द्योतक होते हैं। उस क्रिया को ध्यान में रखकर ही उस वस्तु का नाम रखा जाता है। जैसे ‘रक्षक‘ नाम है ‘रक्षा‘ करनेवाले का। मनुष्य भी रक्षा कर सकता है, कुत्ता भी रक्षा कर सकता है, घोड़ा भी रक्षा कर सकता है, अत: ये सब रक्षक हुए। यहाँ ‘रक्षक‘ यौगिक शब्द हुआ। परन्तु जिस प्रकार पहाड़ की चट्टानों के टुकड़े पानी के बहाव में पड़कर कालान्तर में गोल-मोल बन जाते हैं, इसी प्रकार यौगिक शब्द लौकिक सरिता के बहाव के साथ विशेष वस्तुओं के द्योतक होने लगते हैं। इनका नाम है योगरूढि। अर्थात् धात्वर्थ लुप्त नहीं हुआ, इसलिए वे यौगिक हैं । परन्तु धात्वर्थ की व्यापकता संकुचित हो गई।
अत: धात्वर्थ बतानेवाले सब पदार्थों को छोड़कर अधिक प्रसिद्ध विशेष अर्थ का द्योतन करने से उनमें यौगिकता के साथ रूढिपन भी आ जाता है। जैसे ‘जलज‘ शब्द जब यौगिक रहा होगा तो जल से उत्पन्न होनेवाले सभी पदार्थों को जलज कहते होंगे। मछली भी जलज है, क्योंकि जल में उत्पन्न होती है। कीचड़ भी जलज है, क्योंकि कीचड़ की उत्पत्ति जल में होती है। परन्तु कालान्तर में ‘जलज‘ अपनी व्यापकता को छोड़कर संकुचित हो गया और केवल पुष्प-विशेष के लिए उसका प्रयोग होने लगा। इसलिए जलज का अर्थ केवल ‘कमल‘ है । अत: जलज योगरुढि शब्द है। जितना जनता में प्रचार अधिक बढता है, शब्द यौगिक से योगरूढि और योगरूढि से रूढि हो जाते हैं। जलज जब योगरूढि हुआ तो उसमें यौगिकता शेष थी। परन्तु यदि आप अपने पुत्र का नाम जलज या कमल रख लें तो जलजपना सर्वथा जाता रहा। अब नाम गुण का द्योतक नहीं है।
इस वेदमन्त्र में ‘अघ्न्या‘ शब्द आया है। ‘अघ्न्या‘ यहाँ योगरुढि है। इसका यौगिक अर्थ होगा ‘न मारने योग्य‘। यों तो हर-एक चीज ही न मारने योग्य है। संसार की जितनी वस्तुएँ उपकारक हैं वे सभी ‘अघ्न्या‘ हैं। यह यौगिक शब्द है। घोड़ा अघ्न्य है। बकरी अघ्न्या है। माता-पिता अघ्न्य हैं। हन्तव्य वही है जिससे दूसरों को हानि पहुँचे जैसे साँप-बिच्छू आदि और वे भी प्रत्येक अवस्था में नहीं । परन्तु इस वेदमन्त्र में ‘अघ्न्या‘ यौगिक न होकर योगरूढि शब्द है। यहाँ ‘अघ्न्या‘ विशेष पशु है अर्थात् गाय। एक बार एक यूरोपियन ने मुझसे पूछा कि आप गाय को मारने से क्यों परहेज करते हैं? मैंने कहा कि हम तो किसी प्राणी की हत्या नहीं करना चाहते। सभी को अपनी जान प्यारी है। किसी की जान लेना ठीक नहीं, परन्तु गाय के लिए एक विशेष बात है। हम उसका दूध पीते हैं और इसलिए हमारे मन में वही प्रेम उत्पन्न हो जाता है जो माता के लिए होना चाहिए। माता अविद्वेषता की न केवल प्रतीक है अपितु बहुत अच्छा दृष्टान्त है।
माता अघ्न्या है, पूज्या है, अविस्मृतव्या है। परन्तु गाय का दृष्टान्त सामान्य माता से भी विशेष है। गाय अपने बछड़े को प्यार करती है, परन्तु सबसे अधिक प्रेम ‘वत्सं जातम्‘ अर्थात नवोत्पन्न बछड़े के लिए होता है। आप कभी गाय को बछड़ा देते देखें और गाय की भावनाओं तथा गतियों का निरीक्षण करें। मनुष्य की माता बच्चा जनने के पश्चात् अपनी पीड़ाओं में विह्वल हो जाती है और बच्चे की ओर कम ध्यान जाता है। अत: प्रसवकाल में प्रसूता की देख-भाल का भार अधिकतर उसके सम्बन्धियों को सँभालना पड़ता है। परन्तु गाय का पहला काम यह होता है कि वह बछड़े के शरीर को गर्भ के मल से साफ कर दे। गाय के पास बछड़े को शुद्ध करने के लिए न तो जल होता है न कपड़ा। परन्तु प्रेम स्वयं साधन है और स्वयं साध्य भी। प्रेम के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं।
गाय का प्रेम जल और वस्त्र दोनों का स्थान लेने के लिए पर्याप्त है। शरीर का सबसे पवित्र स्थान जिह्वा है। आप गन्दी चीज को पैर या हाथ से छू सकते हैं, नाक से सूँघ सकते हैं, परन्तु जिह्वा इतनी पवित्र समझी जाती है कि कोई गन्दी चीज जीभ पर रखने में संकोच होता है। परन्तु गो-माता अपने पवित्र से पवित्र अंग अर्थात् जीभ से बछड़े की गन्दगी को साफ करती है। जब तक बछड़ा गन्दगी से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता वह बराबर चाटती रहती है। गन्दगी से छुटकारा बच्चे की पहली आवश्यकता थी। बच्चे की जान बचना कठिन था। जब बच्चा गन्दगी से मुक्त हो गया तब उसके भोजन का प्रश्न उठता है। गाय का बच्चे के लिए प्रेम उसके दूध के रूप में प्रकट होता है। गाय का प्रेम उसके भीतर से इतना जोर मारता है कि जब तक बच्चा उसके थन से मुँह लगाकर उसके दूध का पान नहीं कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता। प्रत्येक माता अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए उत्सुक रहती है परन्तु उतनी नहीं जितनी गौ। इसलिए ‘गौ का अपने नवजात शिशु के लिए प्रेम‘ इससे अधिक उत्कृष्ट और शिक्षाप्रद दृष्टान्त तो दूसरा दिखाई नहीं पड़ता। यह आदर्श है। इसलिए वेदमन्त्र में गाय के नवजात बछड़े का दृष्टान्त देकर मनुष्य के कर्तव्य का एक जाज्वल्यमान उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
अब इस दृष्टान्त के दार्ष्टान्त पर विचार कीजिए। मनुष्य को मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? गो-माता कहती है कि बच्चे की दो प्रमुख आवश्यकता हैं- पहला स्नान और दूसरा भोजन। स्नान पहला कर्म है, भोजन दूसरा। मैली बोतल में शुद्ध दूध डालने इसे दूध भी मैला हो जाता है। मल-युक्त शरीर में पुष्टिकारक भोजन भी बल का संचार नहीं करता। इसी प्रकार हर मनुष्य को चाहिए कि परोक्ष या प्रत्यक्षरूप में हम दूसरों की शुद्धि का ध्यान रक्खें। गाय पशु है, अत: वह केवल शरीर की शुद्धि का ही ध्यान रख सकती है। मनुष्य को मनुष्य की हर प्रकार की शुद्धि का ध्यान रखना है। हम स्वयं कोई ऐसा काम न करें जिससे संसार में किसी प्रकार का शारीरिक या सामाजिक मल अधिक हो और भरसक कोई ऐसा उपाय न छोड़ें जिससे दूसरों की शुद्धि होती हो। शुद्ध रहना अच्छी चीज है, परन्तु दूसरे को शुद्ध करना या शुद्ध रखना इससे भी अधिक आवश्यक है। प्रत्येक डाक्टर के लिए उचित है कि उसका शरीर, उसके अंग, उसके वस्त्र स्वच्छ हों। परन्तु जो डाक्टर अपने रोगियों के मल को दूर करते समय अपने कपड़ों की शुद्धता पर अधिक ध्यान रखता है वह योग्य डाक्टर नहीं हो सकता। जो माता अपने वस्त्रों को शुद्ध रखने के लिए अपने बच्चे को गन्दा रखती है वह माता कहलाने के योग्य नहीं है। उससे कई गुना अच्छी वह माता है जिसकी धोती रात को उसके बच्चे के पेशाब से गन्दी हो जाती है। स्वच्छ महलों में स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली महारानियाँ, जिनके बच्चे दूसरी नौकरानियों के अधीन रहते हैं, वास्तविक माता नहीं हैं। माता का पद महारानी के पद से कहीं ऊँचा है। इसलिए माता और विशेषकर गोमाता का दृष्टान्त हमको यह शिक्षा देता है कि अपने सम्पर्क में आनेवाले मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक शुद्धि का विचार रक्खें। भोजन का प्रश्न तो स्नान के पश्चात् उठेगा।
जो धनाढ्य सेठ अपने दरवाजे पर रोज भिखारियों को सदावर्त बाँटता है और भिखमंगों की शुद्धि पर ध्यान नहीं देता वह कोई प्रशंसा का काम नहीं करता। वह भिखमंगों की संख्या में वृद्धि करता है। भारतवर्ष की कंगाली का यह भी एक कारण है। हम परोपकार को भी बिना बुद्धि के करते हैं। अत: इस परोपकार से भी सामाजिक बुराइयाँ बढती हैं। यदि हमारे देश के ब्राह्मण लोग वेदमन्त्र के रहस्य को दृष्टि में रखते तो उनका पहला कर्तव्य था कि अछूतों की छूत को छुड़ाते। नवजात बछड़ा अछूत है, छूने के योग्य नहीं, मैला है, गन्दा है। गाय ने चाट-चाटकर उसको अस्पृश्य से स्पृश्य बना दिया। इसी प्रकार हमारा कर्तव्य है कि जितनी निम्न जातियाँ हैं, जो वस्तुत: अस्पृश्य हैं उनको स्पृश्य बना दें। परन्तु हमारा उनके साथ ऐसा व्यवहार है कि उनकी अस्पृश्यता अधिक हो जाती है। उनके घर, उनके वस्त्र, उनके रहन-सहन ऐसे हैं कि उनको शुद्ध होने का अवसर ही नहीं मिलता। यदि कोई अछूत पढना चाहे तो पढ नहीं पाता, अच्छे वस्त्र पहनना चाहे तो ऊँचे लोग इसमें अपना अपमान समझते हैं। यह ऐसा व्यवहार तो नहीं जिसकी प्रेरणा इस वेदमन्त्र से ली गई हो। अछूतों के गुण-कर्म और स्वभावों को मैला रखते हुए यदि उनके खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध भी कर दिया जाए तो यह मैली बोतल में शुद्ध दूध डालने के समान ही होगा। अत: जहाँ उनकी आर्थिक अवस्था सुधारी जाए वहाँ उनके गुण, कर्म और स्वभावों में जो मैलापन है उसको भी दूर करने की आवश्यकता है। हमारे मनों में द्वेष का जो विकार उत्पन्न हो जाता है उससे मुक्त रहने के लिए सहृदयता और सौमनस्यता की परम आवश्यकता है। परन्तु इन सूक्ष्म भावनाओं को मूर्त और स्पष्ट बनाने के लिए ‘वत्सं जातं इव अघ्न्या‘ का चित्र अपने समक्ष रखना होगा। इतना उच्च आदर्श व्यवहार में लाना कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं है। वैदिक उच्च आदर्श से प्रेरणा मिलती है। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग - जुलाई 2014)