ओ3म् य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात्।
स मातुर्योना परिवीतो अन्तर्बहुप्रजा निर्ऋतिमा विवेश॥ ऋग्वेद 1।164।32;अथर्व 9।10।10॥
ऋषि: दीर्घतमा॥ देवता-विश्वेदेवा:॥ छन्द:त्रिष्टुप्॥
विनय- मनुष्य संसार-सागर में डूबता जाता है। मनुष्य ज्यों-ज्यों ‘बहुप्रजा‘ होता जाता है, त्यों-त्यों यह ‘निर्ऋति‘ में, घोर कष्ट में पड़ता जाता है। विषय-ग्रस्त हुआ मनुष्य इस संसार में एक ही कार्य समझता है, अपने बच्चे पैदा करना। इस प्रकार प्रकृति में अपने विस्तार को नाना प्रकार से बढाता जाता है। इसीलिए वह बार-बार जन्म पाता है, बार-बार जन्म के घोर कष्टों को अनुभव करता है। ऋषि लोगों ने जाना है कि माता की योनि में आये हुए जीव को बार-बार भारी मानसिक क्लेश भोगना पड़ता है। उस समय वह जीव केवल झिल्ली से ढका हुआ नहीं होता, किन्तु घोर अज्ञान से भी ढका हुआ होता है, क्योंकि ‘बहुप्रजा:‘ के मार्ग पर जाना अज्ञान से ढके जाने से ही होता है। मनुष्य ‘ढका हुआ‘ (परिवीत) होने से ही इस संसार में पागल तथा अन्धे की भाँति रहता है। मनुष्य पागल इसलिए है, चूँकि वह जो दिन-रात अन्धाधुन्ध काम करता है उसे वह जानता नहीं, यूँ ही करता जाता है।
मनुष्य जो खाना-पीना, चलना-फिरना, प्रेम करना, द्वेष करना आदि जो कुछ करता है उसे वह कुछ भी नहीं जानता कि मैं यह क्या कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ, इसका क्या प्रभाव होगा। वह नहीं जानता कि इसका ही फल उसे भोगना होगा। वह नहीं जान पाता कि पहले जन्मों में वह न जाने क्या-क्या कर चुका है। अन्धाधुन्ध वह करता जाता है। इसी प्रकार का उसका सब संसार को देखना है। संसार में वह मनुष्य स्त्री, पशु, पहाड़, नदी, आकाश, सभा, समाज, बड़े-बड़े आनन्ददायक दृश्य और बड़े-बड़े रुलानेवाले दृश्य, इन सबको सोते-जागते देखता जाता है। पर असल में वह इन किन्हीं भी वस्तुओं को नहीं देखता। ये सब वस्तुएँ उससे वास्तव में छिपी ही रहती हैं। नि:सन्देह छिपी ही रहती हैं। वह देखता हुआ भी किसी भी वस्तु का तत्त्व नहीं देख पाता। इसीलिए वह ‘बहुप्रजा:‘ होने के, प्रकृति में ग्रस्त होने के-मार्ग का अवलम्बन करता है और ‘निर्ऋति‘ में पड़ता जाता है। निर्ऋति (घोर कष्ट एवं पृथिवी, ये दोनों अर्थ निर्ऋति शब्द के होते हैं) के इस अन्धकार में धँसते जाने की जगह यदि मनुष्य ‘द्यौ:‘ के प्रकाश की ओर जाने लगे, यदि वह इस संसार में जो कुछ करे उसे जानने लगे और कुछ देखे उसे साक्षात् करने लगे तभी उसका कल्याण है।
शब्दार्थ- य:= यह मनुष्य ईम्=यह जो कुछ चकार=करता है अस्य=इस किये को स: न वेद:= वह नहीं जानता। य:= वह मनुष्य ईं ददर्श= यह जो कुछ देखता है वह तस्मात्= उस देखनेवाले मनुष्य से नु हिरुक् इत्= नि:सन्देह छिपा हुआ ही है। स:=ऐसा वह मनुष्य मातु: योना अन्त:= माता के गर्भाश्य में परिवीत:=(झिल्ली से और अज्ञान से) ढका हुआ बहुप्रजा:= बार-बार जन्म लेता हुआ और बच्चे पैदा करता हुआ निर्ऋतिम् आविवेश =बड़े घोर कष्ट में प्रविष्ट होता जाता है।