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सन् 1857 की क्रान्ति और महर्षि दयानन्द सरस्वती

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Revolution of 1857 and Maharishi Dayanand Saraswati

सन् 1857 ई. की क्रान्ति अर्थात् अंग्रेजों के लगातार बढ़ते अत्याचारों और गुलामी की घुटन से अकुलाई हुई भारतीय जनता का स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु शंखनाद! यद्यपि इस प्रयास को पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु यह निश्‍चित है कि इससे अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल गई।

यूं तो इस संग्राम के विषय में अनेक इतिहासकारों ने अनेक तथ्य और विचार प्रस्तुत किये हैं, किन्तु एक बात आज भी स्पष्ट नहीं हुई है कि यह स्वतन्त्रता संग्राम योजनाबद्ध था या अचानक ही चारों ओर क्रान्ति का स्वर गूंजने लगा था। लेकिन इन सब बातों के बीच एक बात निश्‍चित तौर पर कही जा सकती है कि इस स्वतन्त्रता संग्राम में भारत के वीरों ने एक बार पुनः अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था।

इस क्रान्ति में यूं तो अनेक वीरों और क्रान्तिकारियों का योगदान रहा, परन्तु महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अनूठा ही दिखाई देता है। सन् 1824 ई. में गुजरात के टंकारा, (राजकोट) के ब्राह्मण कुल में जन्में बालक मूलशंकर को बचपन में ही ईश्‍वर के सच्चे स्वरूप को पाने और जानने की तीव्र इच्छा जागी। और इसी इच्छा के चलते वे एक रात घर से निकल गये। लम्बे समय तक वे सच्चे ईश्‍वर की तलाश में भटकते रहे। अलकनन्दा के उद्गम स्थल पर स्थित माना ग्राम में पहुँचे, जिसके आगे चारों ओर घनी पर्वत शृंखलाएं थी, कोई मार्ग न था। स्वामी जी यह सोचकर कि शायद नदी के पार रास्ता मिले, अलखनन्दा के पानी में उतर गये। पहाड़ी नदी का तीव्र वेग, बर्फानी पानी, दुर्गम चढ़ाई और भूख प्यास से क्लान्त दयानन्द! तेज धार वाले बर्फ के टुकड़ों से पैरों में घाव हो गये, जिनसे खून बहने लगा। दयानन्द अब इतने अशक्त हो चुके थे कि नदी पार कर पाना असम्भव था। तभी ईश्‍वर कृपा से कुछ पहाड़ी लोगों ने आकर उन्हें बाहर निकाला। ईश्‍वर प्राप्ति की इच्छा लिए दयानन्द पहले बद्रीनाथ गये, फिर मैदानी क्षेत्र में आ गए।

जब दयानन्द उत्तराखण्ड से वापस लौटे, उस समय देश में राजनौतिक क्रान्ति के स्वर धीरे-धीरे उभरने लगे थे। लोगों की हृदयविदारक निर्धनता और असहायावस्था से उनका हृदय क्लान्त था। उन्होंने हजारों लोगों को भूख से तड़पते और मरते देखा, भूख से सूखकर पिंजर होते देखा। उन्होंने देखा कि शिक्षा के अभाव में लोग अपनी पैतृक सम्पदा से बेखबर हैं, अपनी शक्तियों से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने उन पर भी दृष्टि डाली जो धन के नशे में चूर मौज करते थे, किन्तु अपनी जिम्मेदारी का जिन्हें कोई अहसास न था। उन्होंने देखा कि किस प्रकार स्वार्थी लोगों ने भोली-भाली जनता को अन्धविश्‍वासों में उलझा रखा था। उन्होंने देखा कि लोग आपस की फूट, विद्वेष और घृणा से आक्रान्त व परेशान थे।

ऐसी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक दुरवस्था को देखकर ऋषि ने सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाया। उन्होंने संकल्प लिया कि इस देश के नागरिकों को अपने वर्तमान का ज्ञान हो, अपने गौरवशाली अतीत की अनुभूति हो और उनमें भ्रष्टाचार, अज्ञान, अभाव, अन्याय तथा आन्तरिक कलह के गर्त से निकलकर राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने के लिए तड़प हो, ऐसे राष्ट्र का निर्माण होना चाहिए।

अब तक दयानन्द योगियों के पीछे दिवाने थे, लेकिन अब उनका राष्ट्रीय क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ। उस समय देश में भीषण अकाल पड़ रहा था। लोग दाने-दाने को मोहताज थे। ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति पर चलते हुए बन्दरबाँट द्वारा अंग्रेजों ने अधिकांश देशी राजाओं को समाप्त कर दिया था। देश उस समय भीषण परिस्थितियों से गुजर रहा था।

एक दिन स्वामी दयानन्द नदी के किनारे समाधिस्थ थे। उसी समय एक महिला अपने बच्चे के शव को लेकर नदी के तट पर आई। शव को नदी के जल में प्रवाहित किया और उसके कफन को उतार लिया तथा उसे निचोड़कर वापस ले चली, क्योंकि उसके पास तन ढ़कने को दूसरा कपड़ा न था। महिला की चीत्कार की आवाज से उनकी समाधि टूट गई। उस दृश्य को देखकर दयानन्द रो पड़े और राष्ट्र को स्वतन्त्रता दिलाने का संकल्प और भी दृढ़ हो गया।

सन् 1855 ई. में स्वामी जी फर्रूखाबाद पहुंचे। वहाँ से कानपुर गये और लगभग पाँच महीनों तक कानपुर और इलाहाबाद के बीच लोगों को जाग्रत करने का कार्य करते रहे। यहाँ से वे मिर्जापुर गए और लगभग एक माह तक आशील जी के मन्दिर में रहे। वहाँ से काशी जाकर एक गुफा में कुछ समय तक रहे।

स्वामी जी की इन यात्राओं की विशेष बात यह है कि इन यात्राओं के दौरान वे हर उस स्थान पर गये, जहाँ अंग्रेजों की सैनिक छावनियाँ थीं। उनका उद्देश्य यही देखना था कि सिपाहियों और जनता के मन में विदेशी दासता के प्रति आक्रोश की मात्रा कितनी है।

स्वामीजी के काशी प्रवास के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उनके मिलने गई और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर, उनका सत्कार कर वापस गई। स्वामी जी काशी के बाद विन्ध्याचल की ओर गये तथा विन्ध्याटवी और बुन्देलखण्ड को पार कर नर्मदा और उसके आस-पास के प्रदेशों में अनेक राजाओें से मिले। स्वामी जी ने इस समय में देश की जनता को जबरदस्त तरीके से क्रान्ति के लिए तैयार किया। इसी दौरान सन् 1857 की क्रान्ति हुई, जिसको अंग्रेजों ने ‘गदर’ का नाम दिया।
स्वामी जी अपनी आत्मकथा में भी 1856 से 1858 के बीच के कार्यों की कोई चर्चा नहीं करते। उनकी चुप्पी और 1857 में क्रान्ति का होना इस बात का प्रमाण है कि इस समय में उनका मिर्जापुर, कानपुर, काशी, प्रयाग और फिर नर्मदा की ओर जाना, राजाओं से और क्रान्तिकारियों से मिलना उनकी क्रान्ति को निर्देशित करने के लिए हुई यात्रायें थीं, जिनके परिणामस्वरूप देश की जनता ने एक स्वर में क्रान्ति का शंखनाद किया।

यद्यपि 1857 की क्रान्ति सफल नहीं हुई। परन्तु स्वामी जी का प्रयास नहीं रुका। वे निरन्तर देश के कोने-कोने में घूमकर राष्ट्रप्रेम और वैदिक संस्कृति का प्रचार करते रहे। उनके बलिदान के बाद उनके अनुयायियों ने इस देश की आजादी में प्रमुख भूमिका निभाई।

परन्तु खेद की बात यह है कि अधिकतर इतिहासकारों ने इस महान् क्रान्तिकारी व्यक्तित्व को, जिसने देश को स्वतन्त्रता संग्राम के लिए हर दृष्टि से समर्थ बनाया, उपेक्षित ही रखा है। किसी ने उन्हें समाज सुधारक कहकर, तो किसी ने उन्हें विद्वान् संन्यासी मात्र कहकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ा है। परन्तु यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि यदि ऋषि दयानन्द न होते, तो देश को स्वतन्त्रता मिलना इतना आसान न होता।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने एक ओर जहाँ देशभक्ति का सन्देश दिया, तो दूसरी ओर ‘वेदों की ओर चलो’ का नारा देकर तथा तर्क के तराजू में सब धर्मों को तोलकर जनता को अंधविश्‍वासों और रूढ़ियों से बाहर निकालकर अपनी गौरवशाली वैदिक संस्कृति को पहचानने के लिए तैयार किया। - पं. नागेश शर्मा

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