न केवलं रूपमतीयमस्ति धु्रवं च संस्कारवती तथैव ।
धन्या हि कन्या भवतेऽस्तु मान्या मित्रत्वमग्रेऽपि दृढं भवेन्न: ॥51॥
पूर्वं भवत्-कीर्ति-सुधां निपीय,दृष्ट्वा रणेऽस्मिन् भवतश्च शौर्यम्।
जानामि तां प्रेमरसातिसिक्ताम् रत्नोपहारो भवतेऽर्पणीय: ॥52॥
वीरा भवन्तो न धनाभिलाषा कन्यापि शूरार्पितमानसीयम्।
धन्या हि कन्या वरवीरसङ्गे शौर्येण सौन्दर्यधनं विभाति ॥53॥
न केवलं प्रत्युपकार एव ममास्ति हेतुर्दुहितु: प्रदाने ।
मान्यं प्रणामेर्मम धर्मतत्त्वम् तत् प्रेम यद् भातु हि भारतेऽपि ॥54॥
न वै भवे वैभवमेव भाव्यम् भवस्य भक्त: शिवराज-राज्ञ:।
तस्यैव कार्यं क्रियते भवद्भि: तथापि किञ्चिच्च मयापि देयम्॥55॥
इयं सुकन्या ननु वल्लरीव समीहते त्वां तरुणं तरुं सा ।
समर्पये रत्नमिदं भवद्भ्य: स्वयं हृदा स्वीकुरुतोपहारम् ॥56॥
रावोऽप्युवाच प्रणतो नृपं तम् कन्योपहारो भवतां प्रियोऽपि।
भवद्भिरेषा यदि दीयते चेद् भविष्यतीयम् चिरसङ्गिगनी मे॥57॥
ज्येष्ठा भवन्तोऽपि वदान्य-धन्या: न केवलं सुन्दररूपमस्या:।
संस्कारयुक्ता मयि सानुरक्ता दत्तोपहारोऽपि न वर्जनीय:॥58॥
दृष्ट्वा तु रावं त्वनिमेषनेत्रं तां वीक्षते सर्वजनान् विहाय।
स्ववस्त्र भागान्तविचालयन्ती सा लज्जया नम्रमुखी बभूव॥59॥
रावस्य रूपं हृदि सन्निविष्टम् तदोदितं किं प्रथमं स्मितं तत् ?
स्मितं मितं चाप्यमितप्रभावं अपूर्वरागाभिमतं च दृष्टम् ॥60॥
हिन्दी भावार्थ
यह मस्तानी केवल सौन्दर्यवती ही नहीं है, उसके संस्कार भी अच्छे हैं । यदि यह कन्या आपको स्वीकार्य है, तो यह धन्य हो जाएगी और हम दोनों में मित्रता भविष्य में भी सृदृढ रूप में रहेगी ॥51॥
पूर्व में आप के यशरूपी अमृत का पान कर तथा अब रण में आपका पराक्रम देखकर मस्तानी आप से प्रेम करने लगी है, यह मैं जानता हूँ । अत: चाहता हूँ कि यह कन्यारत्न आप को उपहारस्वरूप भेंट करूं ॥52॥
आप शूर हैं । आप धन की भी अभिलाषा नहीं रखते हैं । यह कन्या भी (आप जैसे) पराक्रमी पुरुष को अपना मन अर्पित कर चुकी है । यह कन्या धन्य है, जिसने शूर व्यक्ति की इच्छा की है । सौंदर्य-धन पराक्रम के साथ ही शोभा देता है ॥53॥
आयुष्मन् ! आपने मुझपर जो उपकार किया है, उसके केवल प्रत्युपकार के लिए यह मेरी कन्या आपको नहीं दे रहा हूँ । अपितु मेरे प्रणामिधर्म का एक तत्त्व है प्रेम, वह सारे भारत में फैलाना चाहता हूँ । प्रणामि धर्म के अनुसार ईश्वर और जगत् के मध्य प्रेम ही धर्म का तत्त्व है ॥54॥
इस संसार में ऐश्वर्य के लिए ही अभिलाषा नहीं करनी चाहिए । छत्रपति शिवाजी महाराज की भक्ति वैभव में नहीं, अपितु भव अर्थात् भगवान् श्रीशंकर (और भवानी) के प्रति थी । आप उन्हीं का राष्ट्रकार्य कर रहे हैं। तथापि कुछ तो आपको देना ही है ॥55॥
एक लता के समान यह सुन्दर कन्या नये वृक्ष के समान आपके आश्रय की कामना करती है । इसे मैं आपको समर्पित करता हूँ । आप इस भेंट को हृदय से स्वीकार कीजिए ॥56॥
श्री बाजीराव ने भी विनम्र होकर राजा से कहा कि आपकी लाड़ली कन्या होने पर भी इसे आप भेंट स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं, यह प्रसन्नता की बात है । यदि आप इसे मुझे सौंप देंगे, तो यह मस्तानी हमेशा मेरी जीवनसाथी रहेगी। यह मेरा वादा रहा ॥57॥
आप मेरे लिए बड़े हैं, उदार एवं धन्य हैं । मस्तानी केवल सुन्दर कन्या ही नहीं है, अपितु इसमें अच्छे संस्कार हैं और मेरे प्रति इसके मन में प्रेम जो है । और तो और, किसी भेंट का अनादर कैसे कर सकता हूँ ॥58॥
जब मस्तानी ने देखा कि बाजीराव अन्यों को छोड़कर उसे एकटक होकर देख रहे हैं, तब वह अपनी साड़ी के पल्ले को हाथ में लेकर (अनजाने में) खेलने लगी और उसने लज्जा से अपना मुख नीचे कर लिया ॥59॥
मस्तानी के हृदय में बाजीराव का रूप पैठ गया। क्या उसी समय उसके मुख पर पहला स्मित उदित हुआ ? उसका स्मित किंचित् था, याने सीमित था, किन्तु उस स्मित का प्रभाव असीम था । प्रथम प्यार की सम्मति देता हुआ वह स्मित दिखाई दिया ॥60॥ - डॉ. प्रभाकरनारायण कवठेकर (दिव्ययुग जुलाई 2007)
Bajirao Mastaniyam-6 | Historical Poetry | Mastani not only Saundaryavati | His Rites are Also Good | Friendship in Both of Us | Nectar Pan | Bajirao in the Heart of Mastani | First Love Advice | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Maindargi - Vathirairuppu - Hathras | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Mainpuri - Kauria ganj - Jalaun | दिव्ययुग | दिव्य युग