विशेष :

सत्य सदा नवीन

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

ARya samaj Annapurna omसत्य प्रायः अविज्ञात रहता है। कभी वह स्वर्ण में आवृत रहता है (हिरण्यमयेन पात्रेण सत्य-स्यापिहितं मुखम्) और कभी मिट्टी से। आवरण का ही भेद है। आवृत रहना अनिवार्य है। जब तक हमारी दृष्टि भूतकाल की स्मृति पर आधारित राग- द्वेष, शोक, तृष्णा, भय या मोह आदि आवेशों में बन्धी रहती है, तब तक सत्य का दर्शन नहीं कर सकती।

मोहग्रस्त होना बुद्धि का सबसे बड़ा अभिशाप है- मोहग्रस्त मन में सत्य के साथ आगे बढ़ने की क्षमता नहीं रहती। वह जड़ हो जाता है। और जड़ता में ही वह झूठा आनन्द पाता है।

स्वार्थमूलक मर्यादाएँ उसके लिए श्रद्धाकेन्द्र बन जाती है। अविवेकपूर्ण, अकारण उत्पन्न भयों की वह श्रद्धानिष्ठ पूजा प्रारम्भ कर देता है। विगतकाल की भूलों को दोहराने में ही उसे आत्म सन्तोष अनुभव होता है। इसे मृत्यु प्रेम सकते हैं।

लोक कथाओं में इस प्रकार की अविवेकपूर्ण श्रद्धा को गौरवास्पद बनाने के सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं।

एक कथा है कि एक दिन काशिराज के राज्य का व्याध खगारि शिकार के लिये वन में गया। खगारि अचूक लक्ष्यवेधी व्याध था। लेकिन उस दिन सभी वनविहारी मृग उसके तीर का लक्ष्य बनने से बच गये थे।

ऐसा ही लक्ष्यभ्रष्ट विषबुझा तीर व्याध की प्रत्यंचा से छूटकर पीपल के मोटे तने को बींध कर रह गया। उसके विषैले प्रभाव से पीपल क्षण भर में सूख गया। वृक्ष पर बैठे हुए पक्षी इस अकाल आपतित पतझड से डरकर भाग गये। किन्तु उस सूखे वृक्ष के कोटर में बैठा एक तोता वहीं बैठा रहा। अपने बचपन के साथी वृक्ष को वह दुर्दिन में अकेला छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता था। समवेदना सूचित करने के लिए उसने भी अन्न-जल का परित्याग कर अपने आश्रयदाता वृक्ष के समान निर्जीव होने का निश्‍चय किया।

निकट के कुटीर से जब एक मुनिराज बाहर आये तो उन्हें भी तपस्वी शुक ने कहा- “मैं इस मृत्युगामी वृक्ष के साथ ही प्राण त्याग करूंगा। बूढ़े वृक्ष पर मेरी अटूट श्रद्धा है। मैं उस श्रद्धा का प्रमाण दूंगा।’’

हम प्रायः इस प्रकार कालदग्ध वस्तुओं पर श्रद्धा कर लेते हैं। पर यह श्रद्धा सत्य नहीं, अविवेकपूर्ण मोह है। हम मन को ऐसे मोह, भय एवं तृष्णा के बन्धन से विमुक्त करके ही सत्य की अनुभूति कर सकते हैं। प्रतिक्षण नवीन पथ से गुजरने वाले सत्य के साथ वही चल सकता है, जिसके पैर स्मृति शृखंलाओं से बंधे न हों।

सत्य को देखने के लिये सर्वप्रथम मन का विमुक्त, निर्मल होना आवश्यक है। मन निर्मल तभी होगा, जब हम मनस्तल पर आवृत होते रागद्वेषादि कोहरे को सदा साफ करते रहें।

सत्य के अनुभूत मार्ग पर चलने के लिये जिस चित्तशुद्धि की आवश्यकता है, वह केवल कठोर दैहिक तप से प्राप्त नहीं होतीं। कठोर तप या अभ्यास से मन की कई सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। यह भी सम्भव है कि चमत्कारिक शक्ति भी मिल जाये, किन्तु सत्य के दर्शन नहीं होते। सिद्धि प्राप्त योगी सिद्ध तो बन जाता है, किन्तु उसकी आत्मिक रिक्तता कभी पूर्ण नहीं होती। वह कभी पूर्णानन्द प्राप्त नहीं करता। एक मशहूर कहानी है।

एक बार एक मल्लाह कुछ यात्रियों को लेकर नदी के पार जा रहा था। बीच धारा में एक विचित्र बाबाजी दिखाई पड़े। वे बे खटके पानी पर चल रहे थे। दर्शकों को कौतूहल हुआ। मल्लाह ने पूछा- “महाराज! यह सिद्धि आपको कैसे और कितने दिनों में मिली है?’’ बाबा ने गर्व से उत्तर दिया- ‘’बेटा यह पूरे अठारह वर्षों की घोर तपस्या का फल है।’’ मल्लाह- ’‘तब तो आप बड़े घाटे में रहे। आप से अच्छे तो ये लोग हैं, जो दो-दो पैसे देकर आराम से बैठे हुए नदी के पार जा रहे हैं।’’

हम प्रायः ऐसी अहंप्रधान तान्त्रिक शक्तियों की उपलब्धियों के लिए यह जीवन नष्ट कर डालते हैं, जो हमारे लिए निर्दोष आनन्द का कारण बन सकता था।

यह सब इस कारण होता है कि हम अपनी ही स्मृतियों के पाश में बन्धे रहते हैं तथा अतीत की अस्पष्ट आस्थाओं और परिस्थितियों में आसक्त रहते हैं। इसलिए हमारे जीवन की नवीनताओं का स्रोत सूख जाता है। सत्य की धारा लुप्त हो जाती है। आवेशों और स्वार्थों में आसक्त हुआ मन, सत्य के आनन्द का भोग नहीं कर सकता। सत्य के परम आनन्द की ज्योति तभी हृदय में जागती है, जब हम केवल हृदय के आनन्द से प्रेरित होकर काम करते हैं। - सत्यकाम विद्यालंकार

True Always New | Memory of Past | Philosophy of Truth | To Be Enamored | Self Satisfaction Experience | My Unwavering Reverence | Proof of Reverence | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Karnawad - Vadgaon Kasba - Dholka | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Karoran - Vadipatti - Dhoraji | दिव्ययुग | दिव्य युग


स्वागत योग्य है नागरिकता संशोधन अधिनियम
Support for CAA & NRC

राष्ट्र कभी धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता - 2

मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

बलात्कारी को जिन्दा जला दो - धर्मशास्त्रों का विधान