विशेष :

पांच बहुमूल्य रत्न

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महर्षि कपिल प्रतिदिन गंगा-स्नान के लिए जाया करते थे। मार्ग में एक गाँव पड़ता था। कृषक लोग उसमें रहा करते थे। जिस रास्ते से महामुनि जाया करते थे। उसमें एक विधवा ब्राह्मणी की झोंपड़ी पड़ती थी। जब भी उधर से निकलते विधवा या तो चर्खा कातते मिलती या धान कूटते। पूछने पर पता चला कि उसके पति के अतिरिक्त घर में आजीविका चलाने वाला और कोई नहीं, सारे परिवार का भरण-पोषण उसी को करना पड़ता है।

मुनि कपिल को उसकी इस अवस्था पर बड़ी दया आई। उन्होंने उसके घर जाकर कहा- ’’भद्रे! मैं इस आश्रम का कुलपति कपिल हूँ। मेरे कई शिष्य राज्य-परिवारों से सम्बन्ध रखते हैं, तुम चाहो तो तुम्हारे लिए आजीविका की स्थाई व्यवस्था कराई जा सकती है। तुम्हारी अवस्था मुझसे देखी नहीं जाती।’’

ब्राह्मणी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा- “देव! आपकी इस दयालुता के लिए हार्दिक धन्यवाद! किन्तु आपने पहचानने में भूल की, न तो मैं असहाय हूँ और न ही निर्धन। आपने देखा नहीं मेरे पास पाँच ऐसे रत्न हैं, जिनसे चाहूं तो मैं स्वयं राजाओं जैसा जीवन प्राप्त कर सकती हूँ। मैंने उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं की, इसलिये वह पांच रत्न सुरक्षित रखे हैं।’’

कपिल बड़े आश्‍चर्यचकित हुए, उन्होंने पूछा- “भद्रे! अनुचित न समझें तो वह रत्न कृपया मुझे भी दिखायें। देखूं तो तुम्हारे पास कैसे रत्न हैं?’’

ब्राह्मणी ने आसन बिछा दिया। बोली- “आप थोड़ी देर बैठें, अभी रत्न दिखाती हूँ।’’ यह कहकर ब्राह्मणी पुनः चरखा कातने लगी। थोड़ी देर में उसके पाँच बेटे विद्यालय से लौटकर आये। उन्होंने माँ के पैर छूकर कहा- “माँ! हमने आज भी किसी से झूठ नहीं बोला, किसी की बुराई नहीं की, किसी को कटु वचन नहीं कहा, गुरुदेव ने जो सिखाया और बताया उसे परिश्रमपूर्वक पूरा किया है।’’

कपिल मुनि को और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने ब्राह्मणी को प्रणाम कर कहा- “भद्रे! सचमुच तुम्हारें पाँच रत्न बहुमूल्य हैं, ऐसे अनुशासित बच्चे जिस घर में, जिस देश में हों, वह कभी अभाव ग्रस्त नहीं रह सकता।’’

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