शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन की गौरवगाथा सुनकर किसका सर गर्व से ऊँचा नहीं हो जाता? भारतीयों के लिए तो वह सागरमाथा की भाँति रस से सराबोर एवं ऊँचाई से विभोर कर देने वाला है। पहले तो उस विश्व-सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द को प्रवेश ही कठिनाई से मिला। मिला तो उनके प्रथम व्याख्यान के सम्बोधन ने ही उपस्थित श्रोताओं का न केवल मन मोह लिया, प्रत्युत भारतीय संस्कृति की महानता के समक्ष अपने माथे को नत-विनत व प्रणत कर दिया। जब भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने मत की प्रधानता के प्रतिपादन के लिए वितण्डावाद में उलझ जाते थे, तब स्वामी विवेकानन्द को ही शान्ति स्थापनार्थ मन्च पर आमन्त्रित किया जाता था। ऐसे ही एक अवसर पर स्वामी जी ने एक कहानी सुनाकर सबको सहज व सावधान कर दिया था। उन्होंने सुनाया कि कुएँ में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। वह वहीं जन्मा और वहीं उसका पोषण हुआ, इससे वह खूब मोटा-ताजा हो गया था। एक दिन समुद्र में रहने वाला मेंढक वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा। कूपमण्डूक ने उससे पूछा- “तुम कहाँ से आये हो?’’ “मैं समुद्र से आया हूँ,’’ उसने उत्तर दिया। समुद्र कितना बड़ा है? क्या इतना ही बड़ा है जितना मेरा यह कुआँ है? यह कहते हुए उसने कुएँ में छलांग मारी। समुद्रमण्डूक ने कहा “मेरे मित्र! भला समुद्र की उपमा इस छोटे से कुएँ से कैसे दी जा सकती है?’’ तब उस कूपमण्डूक ने दूसरी छलांग मारी। पूछा, तो क्या इतना बड़ा है? सिन्धूपमण्डूक ने कहा कि कुएँ की तुलना समुद्र से असम्भव है। अब तो कूपमण्डूक चिढ़कर बोला- जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। झूठा कहीं का। अरे! इसे पकड़कर बाहर कर दो। स्वामी जी ने इस कथा के माध्यम से लोगों की छिपी संकीर्ण भावना को उजाकर कर दिया था।
दशाब्दियों पूर्व शिकागो में स्वामी जी द्वारा सुनाई गई वह कहानी वहीं पर समाप्त नहीं हो गयी, वह विभिन्न रूपों में आज भी बोल पड़ती है। एक शेर ने एक बन्दर को पकड़ा और पूछा, जंगल का राजा कौन? बन्दर ने डरते हुए उत्तर दिया- ’‘माई बाप, आप और कौन?’’ इसके बाद शेर ने कई जानवरों के साथ ऐसा ही वार्तालाप किया, सबने वैसा ही उत्तर भी दिया। शेर का अहम् खून बढ़ चुका था। चलते-चलते शेर एक हाथी के पास जा पहुँचा और उसकी सूँड पकड़कर बोला- ’‘बोल जंगल का राजा कौन?’’ हाथी ने शेर को सूँड में लपेटकर दूर फेंक दिया। फिर उसकी पूँछ पकड़कर एक पटखनी भी लगा दी। पिटने के बाद शेर बोला, अगर जवाब नहीं पता था तो पहले कह देते!
नवरात्र पर्व के व्रत की एक घटना है। एक पत्नी व्रत से अधिक देवी की निवृत्ति के लिए व्यग्र है। पति महोदय कार्यालय से थके-हारे घर पहुँचे हैं। पत्नी बिफर पड़ी। पति से बोली कि आज डाक्टर के यहाँ जाँच के लिए चलना था। अगर लड़की निकली तो भुगतना तो मुझे पड़ेगा। आपको क्या, आप तो हाथ झाड़कर अलग खड़े हो जायेंगे। खेद, प्रिये हम अभी चलते हैं। लड़की हुई तो आज ही तुम्हें उससे मुक्ति दिला देंगे, जिससे तुम्हें और भुगतना न पड़े। पति के इन सहानुभूतिपूर्ण शब्दों को सुनकर पत्नी सामान्य होकर बोली- आप कभी देर से नहीं आते थे, आज क्या हो गया था। क्या बतायें, काम ही ऐसा आ पड़ा था, जिसे छोड़ा नहीं जा सकता था। आज हमारे प्रतिष्ठान की ओर से सामूहिक विरोध प्रदर्शन था। और उसके बाद मुख्यमन्त्री जी को ज्ञापन भी देना था। इसी में देर हो गई। किस विषय में था आपका आन्दोलन, प्रदर्शन और ज्ञापन? बताइए। कुछ नहीं, कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध और क्या? पति महोदय ने कड़वा सा मुँह बनाते हुए कहा और पत्नी को लेकर डॉक्टर की ओर चल दिए।
आज नगर में विशाल शोभा यात्रा निकल रही है। एक भव्य मन्दिर में शिव-परिवार की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। मूर्तियों का दुग्ध-दही-गंगाजल से अभिषेक होगा। भगवान भोलेनाथ, माता पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, पुत्र गणेश और नन्दी महाराज की मूर्तियाँ मन्दिर में प्रतिष्ठापित होगी। भक्तगण मन्दिर में आकर इनकी पूजा-अर्चना करके अपनी मनोकामनायें पूर्ण किया करेंगे। यह रहा पाँच मूर्तियों का परिवार, जिसकी कथा आपको वृथा लगने लगेगी। तब आप पाँच जीवित प्राणियों की व्यथा सुनकर अपने अश्रुओं का अर्ध्य मूतियों पर न चढ़ाकर मृतकों पर चढ़ाने के लिए विवश हो उठेंगे। माण्डा के गरेठा गाँव का रामगोपाल पुणे में नौकरी करता था। वह चार-पांच दिन पहले ही गांव से आया था। सुबह लगभग दस बजे रामगोपाल पत्नी-बच्चों के साथ घर से निकला और गाँव के बाहर रेलवे लाईन पर पहुँच गया। वहाँ पति-पत्नी तथा तीनों बच्चे सरिता (8) शिवम् (5) कृष्णा (3) पटरी पर लेट गये। माँ-बाप ने बच्चों को हाथों से पकड़ रखा था। कुछ दूरी पर क्रिकेट खेलते बच्चों की निगाह उन पर पड़ी। वे उन्हें बचाने के लिए दौड़े भी, इसी बीच ट्रेन आ गई और पांचों के प्राण पखेरु उड़ गए। नित्यप्रति होने वाले यह हृदय विदारक काण्ड धर्म के संविदायकों और शासन के नायकों के मुख पर कलंक हैं, पर उनके चिकने-चुपड़े मुखड़ों पर लज्जा की बूंदें भला ठहरती कहाँ? वेदमाता! आप ही कुछ बताइये।
असच्छाखां प्रतिष्ठन्तीं परममिव जना विदुः॥
उतो सन्मन्यन्तेऽवरे येते शाखामुपासते॥ (अथर्ववेद 20.7.21 )
पामरजन फैलती-प्रतिष्ठा प्राप्त करती अनित्य कार्यरूप जगत की व्याप्ति को परम उत्कृष्ट पदार्थ के समान जानते हैं। जो इस कार्यरूप जगत् का सत्-नित्य कारण परमेश प्रभु को मानते हैं, वे इसकी व्याप्ति को भजते और जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाते हैं।
सत्-असत् के देवासुर संग्राम के प्रकरण वेद में अनेकत्र मिलते हैं। शासक, राज्याचार्य एवं सेनानायक प्रजा को असत् मार्ग से हटाकर सदा सत् मार्ग पर चलाते हैं। जब ये स्वयं ही असत् मार्गगामी हो जाते हैं, तो प्रजा का भ्रमित होकर असत्-अधर्म की शाखा-प्रतिशाखाओं के जंजाल में उलझ जाना अस्वाभाविक नहीं है।
निशिचरहीन करौहुँ महि, भुज उठाहि प्रण कीन्ह। सकल मुनिन के आश्रमहि जाय जाय सुखदीन्ह॥ राजा राम ने क्षण भर को अपनी बाँह उठाकर जो प्रतिज्ञा की थी, उसका प्राणपण से निर्वाह किया। बाँह उठाने वाले आप को आज भी मिल जायेंगे। कुम्भ वर्ष 2010 में हरिद्वार पहुँचे हठयोगी उर्ध्वबाहु अमर भारती तीस वर्ष से ऊपर हो गये, अपनी दाहिनी भुजा उठाये हुए हैं। राजीव रंजन द्विवेदी इच्छाधारी बाबा भीमानन्द चित्रकूट वाले के विस्तृत सेक्स रैकेट का भण्डाफोड़ उनके ही एक शिष्य ने कर दिया। इसके बाद उन पर मुकदमे दर्ज किये गए और उन्हें दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया गया। दक्षिण भारत की एक अभिनेत्री ने सार्वजनिक वक्तव्य दिया कि विवाह से पूर्व मुझे स्त्री-पुरुष सम्बन्ध बनाने में कोई संकोच नहीं। समाज में कलुषित वातावरण न बढ़े, सो इस के विरोध में किसी चिन्तक ने याचिका डाल दी। क्या आपको मालूम है कि सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने क्या निर्णय दिया? अभिनेत्री के कथन का समर्थन तो किया ही, साथ ही यह भी जोड़ दिया कि कृष्ण और राधा भी तो ऐसे ही रहते थे। जबकि किसी भी धर्मग्रन्थ यथा भागवत तक में ऐसा कोई संकेत नहीं है। मिथ्या धारणाओं को ऐसा प्रचारित किया गया कि सर्वोच्च न्यायालय इसे सत्य मान बैठा। समाचार पत्रों में यह समाचार पढ़कर लेखक हतप्रभ रह गया।
ब्रिटेन के एक कस्बे के निकट स्थित जंगल में लोगों को यौन सम्बन्ध बनाने से रोकने के लिए करीब छः हजार पेड़ काट दिए गए। करदाताओं के संघ के मुख्य कार्यकारी मैथ्यू इलियट ने कहा- यह बेहद निराशाजनक है कि स्थानीय लोगों की सम्पत्ति और हरे-भरे जंगल को बिना सोचे-समझे नष्ट कर दिया गया। दैनिक हिन्दुस्तान दि. 24.3.10 को प्रकाशित यह समाचार दोहरी मार मारने वाला है। पेड़ बचायें या स्वच्छन्द अनैतिक यौनाचार। यह स्थिति सभ्य कहे जाने वाले युरोप के देश की है। महामना पं. मदनमोहन मालवीय, महात्मा मोहनदास करमचन्द गान्धी एवं महर्षि अरविन्द घोष ने ऐसी सभ्यताओं को निकट से देखा और उससे दूर रहने के आदर्श भारत के सामने प्रस्तुत किये थे। आइए! हम इन असत् की शाखाओं को लांघते हुए सत् के वृक्ष की छाया को पकड़ लें और अपने परिवार व राष्ट्र के जीवन को सुखद गतिशील आयाम प्रदान करें। राष्ट्र कवि रामधारीसिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ हमें यों सावधान करती हैं-
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है। उलझने अपनी बनाकर आप ही फंसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। - पं. देवनारायण भारद्वाज
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