भारत माता क्या है? क्या यह कोरी कल्पना है या साक्षात् देवी? ऐसे अनेक प्रश्न प्रत्येक देशभक्त के मन में अवश्य उठते होंगे। इस देश के हर प्राणी के लिए यह भूमि उसकी माता है, धरती माता। धरती माता अर्थात् जन्मभूमि। वह जन्मभूमि जिसे भगवान ने स्वयं स्वर्ग से भी बढ़कर कहा है। इसलिए हम सभी भारतवासियों के लिए वे चाहे किसी भी पन्थ अथवा जाति के हो, यह धरती माँ भारती है।
माँ भारती का कहना है, ’‘ऐ मेरे बच्चे! निस्सन्देह विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की है। वह प्रगति मानव के लिये वरदान तभी बन सकती है, जब उससे प्राप्त होने वाले फलों और उपकरणों के छलावे से मनुष्य अपने को बचाकर रखे। अभी तो ‘सफलता’ का मुखौटा लगाकर केवल धन, ख्याति और प्रभुसत्ता ही प्रकट हुए हैं। आगे तो और न जाने कितने तत्त्व सफलता का मुखौटा पहनकर मुझे मोहित करने के लिए प्रकट होंगे। याद रख, सफलता का केवल एक ही रूप है, दूसरा सम्भव नहीं है। वास्तविक सफलता किसी भी फल की प्राप्ति में निहित नहीं है। वह तो केवल अपने अस्तित्व के उद्देश्य को पूरा करने में सतत रत रहने में ही निहित है। इसी सफलता को जीवन के प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण में सुनिश्चित करना है। मुझे तो हर क्षण परम सतर्क रहना है और अपने जीवन-यापन के साधन में ही नहीं, अपितु सारे ही दायित्वों में निहित मौलिक उद्देश्य को कभी भी विस्मृत नहीं होने देना है। उसी उद्देश्य की पूर्ति में ही तेरी वास्तविक सफलता निहित है। स्मरण रख कि कितना ही दिव्य रूप क्यों न अर्जित कर ले, जीवन-यापन का साधन अन्ततः मात्र साधन है और साधन ही रहेगा। उसे साधना बनाने की भयंकर भूल कभी मत करना। परम शक्तिमान परमपिता सदा तेरे साथ है।’’
अतः माँ भारती का कहना है कि, “यदि तुझे सच्चा मानव बनना है, तो मेरी इस पुकार को सुन और इसे अपने हृदय तक जाने दे। मेरे बेटे! मैंने अपनी इस पुकार में उन समस्त रहस्यों को उद्घाटित कर डाला है, जिनको जान लेने पर तुझे स्वयं पता चल जायेगा कि तेरे यशस्वी पूर्वजों ने, मेरे उन पुत्र रत्नों ने, बल, तेज, पराक्रम तथा पूर्ण प्रतिभा ही नहीं, अपितु दुर्लभ पूर्णता कैसे प्राप्त की थीं। तू स्वयं जान लेगा कि वही पूर्णता तू भी प्राप्त करने की पूरी क्षमता रखता है। तू जहाँ भी है, जो भी है, मेरा ही पुत्र है। अपनी पूर्व गरिमा, अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करने की क्षमता तुझमें है। तू अमृतत्त्व प्राप्त कर सकता है । तू अपने को पहचान, अपनी क्षमताओं को पहचान और अपने इस मानव जीवन को सार्थक बना ले। आवश्यकता है केवल संकल्प की, आत्मविश्वास की, लगन की, उत्साह एवं पुरुषार्थ की। मेरे जिस पुत्र के पास ये सारे लक्षण होंगे, वह परिस्थितियों, मजबूरियों, सिफारिशों, भाग्य, नक्षत्र और दैवी इच्छा जैसी अफीम की गोलियों से अपने को उतना ही दूर पायेगा, जितना सूर्य से अन्धकार।’’
यह विचित्र रहस्य केवल इतना ही है कि जीवन को कुछ आस्थाओं और कुछ मूल्यों के आधार पर ही अनिवार्य रूप से चलाया जाये, तभी व्यक्ति दिव्य बन सकता है। किसी भी काल के, किसी भी देश के मानव-रत्नों की जीवनी का विश्लेषण करने पर बहुत स्पष्ट रूप से विदित होने लगता है कि दिव्य शक्तियों अथवा दिव्य समाजों का निर्माण जब-जब हुआ, तब-तब समाज के लोगों में ये गुण और लक्षण विद्यमान थे।
कोई लड़का कितना ही दीन-हीन क्यों न हो, पर यदि कोई करोड़पति उस युवक को गोद ले ले, तो उस परिवार का सदस्य बनते ही समाज में उसकी गणना भी बड़े आदमियों में होने लगेगी। अर्थात् किसी अत्यन्त छोटे का अभिन्न रिश्ता किसी बड़े घर से हो जाये,तो उसकी गणना भी बड़े लोगों में हो जाती है। ठीक इसी प्रकार कोई व्यक्ति कितना ही साधारण क्यों न हो, पर यदि उसने अपने भौतिक जीवन का रिश्ता किसी दिव्य लक्ष्य से जोड़ लिया है, तो वह व्यक्ति अनायास ही एक दिव्य मानव कहलाने का अधिकारी बन जाता है।
रानियाँ और महारानियाँ तो अनगिनत हुईं, पर रानी लक्ष्मीबाई और रानी चैन्नम्मा दिव्यता प्राप्त कर गईं, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का रिश्ता एक दिव्य लक्ष्य ‘भारत माँ’ को स्वतन्त्र कराने से जोड़ डाला था। इसी तरह चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह या सुभाषचन्द्र बोस और अनगिनत देशभक्त भी अपने जीवन का रिश्ता अपनी माँ को स्वतन्त्रता दिलाने के दिव्य उद्देश्य से जोड़कर अमर हो गये।
राजे-महाराजे न जाने कितने हुए, पर न्याय जैसे दिव्य लक्ष्य के साथ अपने जीवन का रिश्ता जोड़कर राजा हरिश्चन्द्र, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य अमर मानव बन गये। अहिंसा के दिव्य उद्देश्य के साथ अपने जीवन का रिश्ता जोड़कर विश्व को अहिंसा का सन्देश देने वाले माहत्मा बुद्ध, सम्राट अशोक, महात्मा गान्धी विश्व के महामानव कहलाये। इसी प्रकार मानव के अभ्युदय के दिव्य उद्देश्य से अपने जीवन को जोड़ने वाले अनगिनत ज्ञानी, महात्मा, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाज वैज्ञानिक महापुरुषों की श्रेणी में पहुंच गये।
अतः दूसरे मार्ग द्वारा सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी यदि अपने जीवन का रिश्ता किसी दिव्य लक्ष्य से कर ले तो संसार की कोई शक्ति उसे एक दिव्य मानव बनने से रोक नहीं सकेगी। यह प्रकृति का विधान है कि किसी भी व्यक्ति के भौतिक जीवन का लक्ष्य जितना दिव्य होगा, वह व्यक्ति स्वयं भी उतनी ही दिव्यता प्राप्त करेगा।
सांराश यह है कि दिव्य मानव बनने का यह तीसरा मार्ग प्रत्येक छोटे से छोटे, अदने से अदने व्यक्ति को उपलब्ध है। शर्त केवल इतनी है कि उसका जो भी काम है, उसे वह असाधारण कौशल से, सम्पूर्ण सामर्थ्य से करता चला जाये। कालान्तर में यह विश्व में विख्यात हो पाये या नहीं, परन्तु अपने समाज में उसकी गिनती दिव्य मानवों में अनायास होने लगेगी, इसमें किंचित् भी संशय नहीं। अतः माँ भारती का कहना है, “ऐ वत्स! न जाने कितने व्यक्ति लाखों कीट-पतंगों की तरह पैदा हुए और चल बसे, पर कुछ ही दिव्य मानव बनकर संसार के लिए ऐसे चरण चिह्न छोड़ गये कि जिनसे विश्व को मार्गदर्शन मिला। जीवन जीने योग्य बनाना है, तो उसे किन्हीं मूल्यों पर आधारित होकर चलना पड़ेगा। तात्कालीन स्वार्थ के लिए उन मूल्यों को तोड़ने-मरोड़ने के प्रलोभन से अपने को स्वार्थ मुक्त रखना ही होगा। फिर दिव्य मानव बनने के लिये एक नहीं, तीन स्पष्ट और सुलभ मार्गों की कुंजी मिल जाने के उपरान्त तू दिव्य पुरुष या दिव्य नारी बनकर न सिर्फ अपनी जन्म देने वाली माँ की कोख को धन्य कर, अपितु मुझे भी गौरवान्वित कर।’’
मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता तो उस मौलिक प्यास को बुझाना है जो आत्मा से उदय होती है, न कि उसके कृत्रिम रूपों से। अतः जो वस्तु, व्यक्ति अथवा गतिविधि तथा विचार, वाणी तथा कर्म आत्मा से उदय होने वाली किसी भी भौतिक प्यास को तृप्त करे, वास्तव में वही मूल्यवान हैं। उस प्यास के अन्य कृत्रिम रूपों को तृप्त करने वाले समस्त तत्त्व वस्तुतः मूल्यवान नहीं हैं, क्योंकि यदि उन तत्त्वों को एकत्रित करके उनका प्रयोग भी कर लिया जाये, तो भी तृप्ति तो होनी ही नहीं है। अतः सारी दौड़-धूप निरर्थक ही रहेगी।
माँ भारती की पुकार है- ‘ऐ वत्स ! यदि आज के समाज की कुरीतियों से, उसकी असंगतियों से उसमें व्याप्त अत्याचार और अनाचार से तू त्रस्त है और यदि तुझे मुझसे तनिक भी ममता है, तो आज ही तू अपने समस्त मूल्यों को, मान्यताओं को, आस्थाओं को अपने सच्चे विवेक की कसौटी पर परख और फिर उस पर खरी उतरें केवल उन्हीं को तू अपना और जो गलत हों, उन्हें तत्काल त्याग। ध्यान रहे कि जो साधन हैं उन्हें भूलकर भी साध्य न बनाना। तेरी गति वही होगी, जो तेरे मूल्यों की है। तेरे मूल्य शाश्वत होंगे तो तू भी अमृतत्व प्राप्त करेगा। तेरे मूल्य नश्वर होंगे तो तू भी नष्ट होकर मिट्टी में मिल जायेगा। यदि वे सार्थक हैं, तो तेरा जीवन भी सार्थक होगा। जीवन का प्रत्येक पल परम आनन्दमय एवं परम रसमय बनाना तेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।
बहुधा यह सोचा जाता है कि ऐसा मार्ग पकड़कर संसार में मुझे क्या मिलेगा? ऐ मेरे बेटे! याद रख जीवन व्यापार नहीं है। वह तुझे एक उद्देश्य विशेष की पूर्ति हेतु मिला है। जब तक तू उसे पूरा करने को उद्यत नहीं होगा तब तक तेरे जीवन में शान्ति और आनन्द का सर्वथा अभाव ही रहेगा, भले ही तू त्रैलौक्य का साम्राज्य ही क्यों न अर्जित कर ले। अपने जीवन की बागडोर अपने ही हाथों में ले। स्मरण रहे, तेरे पास दो-चार जीवन नही हैं। केवल एक ही है, केवल एक। अपने को अपने ही सद्विवेक अर्थात् ‘स्व’ के अधीन बना, तुझे सच्चे अर्थों में ‘स्वाधीन’ देखने के लिए मेरी आँखें तरस रही हैं।’’
धन से वस्तु, वस्तु से शरीर, शारीरिक गति से मानसिक गति, मानसिक गति से नैतिक गति, नैतिक गति से आध्यात्मिक गति, आध्यात्मिक गति से मूल्यों की गति (जिसमें स्वधर्म पालन, सत्य, प्यार, न्याय आदि आत्मा की समस्त मौलिक प्यासें आती हैं) तथा मूल्यों की गति से राष्ट्रीय सुरक्षा, हर काल, हर परिस्थिति में अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण है।
अतः माँ भारती का कथन है कि, ’’ऐ मेरे बेटे! तुम्हारी दीन दशा का, तुम्हारी दरिद्रता का जिम्मेदार तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं है। यदि तर्क के लिये यह मान भी लिया जाये कि अमुक व्यक्ति तुम्हारे दरिद्र्य का जिम्मेदार है और उसके इस भयंकर अपराध के लिये मैं उसको फांसी पर लटका दूं, तो क्या तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जायेगी? दरिद्रता का भौतिक परिस्थितियों से कोई सम्बन्ध नहीं है। बड़े सम्पन्न व्यक्ति के पूर्वज किसी काल में अत्यन्त दरिद्र रहे, पर उन्हीं में से कोई ऐसा पुरुष निकला जिसने अपने दारिद्र्य को सम्पन्नता में परिणत कर लिया। दारिद्र्य दूर होता है पुरुषार्थ से और पुरुषार्थ का उदय होता है अपने अन्दर आत्मविश्वास से, अपनी संकल्पशक्ति का भरपूर उपयोग करने से, अपने भवितव्य पर निष्ठावान होने से, अपने अन्दर अनन्त उत्साह का सृजन करने से, निरालस्य से तथा जो कुछ भी इस क्षण तेरे करने के लिए है, उसे अपनी सामर्थ्यभर सम्पूर्ण कौशल से करने से। यह सारे गुण अन्तर्जगत् में सर्जित होते हैं। इनमें से प्रत्येक गुण कैसे सर्जित होता है, उसकी विधि से तुझे मैंने अवगत करा दिया है। मेरे बेटे! अब तनिक भी और विलम्ब न कर! उठ और अपने अन्दर दिव्य पुरुषार्थ का सृजन करके अपनी दीनता, अपनी दरिद्रता को सदा के लिये दूर करके अपने को मुक्त कर। किसी भी झूठी आशा में फंसकर अपने को भूलावे में रखने की गलती भूलकर भी न करना। तेरा दारिद्र्य तेरे पुरुषार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई भी दूर नहीं कर सकता। पुरुषार्थहीन की लॉटरी भी निकल जाये, तो उसे पुनः दरिद्र हो जाने में समय नहीं लगता। सब झूठी आशाओं को त्यागकर अपने भाग्य का निर्माता स्वयं बन। अपने हर पुत्र को दिव्य पुरुषार्थ से युक्त होता देखने के लिए कब से मेरी आँखें तरस रही हैं! एक समय था जब मेरे आंचल में इतने महामानव और महापुरुष रहते थे कि सारा संसार मुझे विस्मय से देखता था। ऐ वत्स! तुझे मेरी सौगन्ध है! मुझे एक बार फिर उसी गरिमा, उसी गौरव के शिखर पर पहुंचा दे। फिर से मुझे विश्व के राष्ट्रों का मार्गदर्शक बना दे। ऐसा करना तेरे और केवल तेरे ही हाथ में है।’’ - हंसराज कामराह
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