विशेष :

वैदिक वर्ण व्यवस्था

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Vaidik Varn Vyavastha

ओ3म् ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद् वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ ऋग्वेद 10.90.12॥

अन्वय- अस्य मुखम् ब्राह्मण: आसीत्। अस्य बाहू राजन्य: कृत:। अस्य तद् ऊरू यद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्र: अजायत।

अर्थ- (अस्य) इस पुरुष का (मुखम्) मुख (ब्राह्मण:) ब्राह्मण (आसीत्) हो गया। (अस्य बाहू) इसके दोनों बाहु (राजन्य:) क्षत्रिय (कृत:) मान लिये गये। (अस्य तद् ऊरु) इसकी वही दोनों जांघें समझिए (यद् वैश्य:) जो वैश्य है। (पद्भ्याम्) दो पैरों से अर्थात् दो पैरों की कल्पना, भावना या उपमा से (शूद्र: अजायत) शूद्र उत्पन्न हो गया।

व्याख्या- यह मन्त्र उन थोड़े-से वेदमन्त्रों में से है जिससे अधिक-से-अधिक लोग परिचित हैं। हिन्दुओं में जो वर्तमान जाति-भेद, छूत-छात, ऊँच-नीच, वर्गद्वेष फैला हुआ है, उसका आधार यही मन्त्र समझा जाता है। परन्तु यदि कल्पित गाथाओं को सर्वथा भुलाकर केवल मन्त्रों पर ही विचार किया जाए तो यह वेदमन्त्र वैदिक समाजशास्त्र का बड़ा उत्कृष्ट सुदृढ आधार सिद्ध होगा। मलाई कीचड़ में पड़कर मल बन जाती है। सोना मूर्खों के अधिकार में आकर मैला पड़ जाता है। ओषधि कुवैद्य के हाथ में पड़कर विष बन जाती है। ये सब अविद्या के परिणाम हैं और यह मन्त्र दुर्भाग्य से उन परिणामों का एक जीता-जागता नमूना है जिसने हिन्दू जाति को नष्ट और हिन्दू सभ्यता को कलंकित कर दिया।

इस मन्त्र का लोकपरिचित अर्थ यह है- प्रजापति के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र। इसलिए ब्राह्मण सबसे ऊँचे और शूद्र सबसे निकृष्ट हैं। परिणाम स्वरूप शूद्र अछूत समझे जाते हैं और उनको बहुत-से वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो ब्राह्मण आदि को हैं। यदि कोई पूछे कि आजकल तो ब्राह्मण मुख से उत्पन्न नहीं होते, न क्षत्रिय बाहू से, न वैश्य जंघाओं से, न शूद्र पैरों से। आजकल तो सबका उत्पत्ति-स्थान तथा उत्पत्ति-विधान समान है, फिर यह भेदभाव क्यों? तो इसका यह उत्तर दिया जाता है कि आदि सृष्टि में ऐसा ही हुआ था। अब जन्म-जन्मान्तरों से वही पूर्वजों का दोष सन्तति में भी चला आता है और अन्तकाल तक चलता जाएगा। उस प्रतिपत्ति की पुष्टि में न तो कोई तर्क था न इतिहास की साक्षी। परन्तु जब एक मत वायुमण्डल में फैल गया तो भाष्यकारों ने भी किसी न किसी प्रामाणिक अथवा अप्रामाणिक ग्रन्थ के कुछ कथनों को बिना किसी परीक्षा के अपने भाष्यों का आधार बना लिया।

श्री सायणाचार्य ने लिखा है- इयं च मुखादिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजु: संहितायां सप्तमकाण्डे ‘स मुखत: त्रिवृतं निरमिमीत‘ (तैत्तिरीय संहिता 7-1-1-4) इत्यादौ विस्पष्टमाम्नाता। अर्थात् कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीयसंहिता में स्पष्ट शब्द-प्रमाण है कि ‘‘प्रजापति ने मुख से तीन वर्णों का निर्माण किया।‘‘ जब जनता में यह प्रसिद्ध कर दिया जाता है कि अमुक बात उनके धर्म-ग्रन्थों में लिखी है तो जनता घोर-से-घोर पाप को भी पुण्य समझकर उस पर आरुढ हो जाती है। धर्म-ग्रन्थों को आँख बन्द करके मान लेने का यह अत्यन्त दोषपूर्ण परिणाम है। इस युग में ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने धर्म-ग्रन्थों के परीक्षण को भी आवश्यक बताया और ‘ब्राह्मणोऽस्य‘ इस मन्त्र के तर्कयुक्त उत्तम अर्थ हमारे सामने उपस्थित किये। यह बात नहीं कि अन्य भाष्यकारों को उन प्रचलित मतों की निस्सारता खटकती न थी। भाष्यकार बुद्धिहीन तो न थे, विद्वान् थे, मतिमान् थे। मन में समझते रहे होंगे कि ऐसी थोथी बात को कैसे मान्यता दी जाए?

मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति का अर्थ ही क्या हो सकता था? परन्तु बहुत प्राचीनकाल से यह रोग चला आता है कि धार्मिक बातें परोक्ष हैं, उनमें बुद्धि लड़ाना पाप है। यह बीमारी इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन सबमें पाई जाती है। इसको छोड़ने का साहस नहीं होता। इससे पहले मन्त्र (ऋग्वेद 10.9.11) के भाष्य में सायणाचार्य ने ‘व्यदधु:‘ का अर्थ किया है- संकल्पेन उत्पादितवन्त:। अर्थात् ऐसा मान लिया गया कि ब्राह्मण मुख है। कौ च पादावुच्येते (पैर किनको कहोगे?)। यहाँ प्रश्‍न यह नहीं कि शूद्र कहाँ से उत्पन्न होते हैं, अपितु शूद्र किसको कहते है? ‘उच्येते‘ वेदमन्त्र का शब्द है और उसको सावधानी से याद रखना चाहिए। 11वें मन्त्र के इसी प्रश्‍न के उत्तर में 12वें मन्त्र का उत्तर है- पद्भ्यां शूद्रोऽजायत। महीधर ने यजुर्वेद के भाष्य में भी ‘उच्येते‘ का अर्थ किया है- पादावपि किमास्ताम्। इस प्रकार बात तो सबको खटकती रही, परन्तु तर्क का प्रयोग करने से डरते रहे कि कहीं जनता की मान्यताओं को ठेस न लग जाए और समाज के ढाँचे में उथल-पुथल करनी पड़े। आज के परिवर्तित युग में भी वह धुकधुकी अब भी बनी हुई है। विचार-यात्रा के बीच में यह एक बड़ा रोड़ा था। इसीलिए हमने आवश्यक समझा कि इसको हटा दिया जाए, जिससे मन्त्र की व्याख्या करने में सुगमता हो सके।

मन्त्र के महत्त्व को समझने के लिए एक और आवश्यक बात यह है कि मन्त्र के प्रकरण पर विचार करना चाहिए। यह मन्त्र पुरुषसूक्त का एक भाग है और थोड़े-से साधारण पाठ-भेद या क्रम-भेद से ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में भी आया है। पुरुषसूक्त में क्या है, यह देखना होगा।

पुरुषसूक्त पूरा-का-पूरा लुप्तोपमा अलंकार है। केवल एक उपमा नहीं अपितु उपमाओं की एक शृङ्खला, जिसमें सब उपमाएँ एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। ‘पुरुष‘ का अर्थ है ‘शरीर‘। केवल भौतिक शरीर नहीं, क्योंकि भौतिक शरीर तो जड़ है। जीवात्मा-युक्त शरीर, जिसको लोक-भाषा में कहते हैं जिन्दा, जीता-जागता, क्योंकि बिना शरीरी के शरीर नहीं होता। शरीरी के पृथक् हो जाने पर शरीर शरीर नहीं कहलाता, लाश कहलाती है। शरीर वही है जिसमें जीवात्मा पूर्णरूपेण जाग्रत् या कार्य करता हो। (A Body is a Body Only So Long as the Soul there in is Functioning in Full Vigour) न्यायदर्शन में शरीर के ये लक्षण किये हैं- चेष्टेन्द्रियार्थाश्रय: शरीरम् (न्यायदर्शन 1.1.11) चेष्टा-इन्द्रिय-अर्थ का जो आश्रय हो वह शरीर है। मेरी ऐसी भावना है कि शरीर का लक्षण करते समय सूत्रकार के मस्तिष्क में कोई ऐसी धातु रही होगी जिसका सादृश्य आश्रय शब्द से रहा होगा। इस कल्पना के लिए मेरे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं, परन्तु अनुमान यही कहता है। इसी प्रकार पुरुषसूक्त में पुरुष शब्द का अर्थ शरीर है, परन्तु ऐसा शरीर जो चेष्टा-इन्द्रिय-अर्थ का आश्रय हो। पुरुष का यह नाम इसलिए है कि वह पुर में सोता या निवास करता है। समस्त पुरुषसूक्त में इस प्रकार के शरीर की उपमा दी गई है। कहीं तो साधर्म्य प्रत्यक्ष है, कहीं परोक्ष, परन्तु है अवश्य। संसार और पुरुष अर्थात् शरीर में साधर्म्य क्या है? शरीर कई ऐसे अवयवों या वस्तुओं का संघात नहीं जो असम्बद्ध हों। शरीर एक संस्थान या आर्गेनिज्म (Organism) है अर्थात् इसका हर एक अंग अपने और अंगों के संरक्षण में सहायक होता है। आँख अपना भी संरक्षण करती है और शरीर का भी। भोजन को पचानेवाले अंग (Digestive Organs) शरीर को भी शक्ति देते हैं और स्वयं अपने को भी, क्योंकि इनमें पुरुषत्व या शरीरत्व है। रेल का इंजन भाप बनाता है परन्तु भाप उस इंजन को शक्ति नहीं देती। जितनी अधिक भाप बनेगी इंजन घिसेगा और कमजोर होगा, क्योंकि इंजन पुरुष नहीं है, परन्तु हमारा जठर पुरुष का अंग है। खाना न पाने से जठर भी नष्ट होगा और समस्त शरीर भी। यह एक विचित्र गुण है जो ‘पुरुष‘ अर्थात् शरीर में ही पाया जाता है।

इस उपमा को जब हम जगत् पर घटाते हैं तो जगत् के पुरुषत्व का महत्त्व हमारे हृदय पर अंकित होने लगता है। वेद ने कहा-सहस्रशीर्षा पुरुष:। सायण ने इसकी यह व्याख्या की है-
सर्वप्राणि-समष्टिरूपो ब्रह्माण्डदेहो विराडाख्यो य: पुरुष: सोऽयं सहस्रशीर्षा।
सहस्रशब्दस्योपलक्षणत्वादनन्तै: शिरोभिर्युक्त इत्यर्थ:।
यानि सर्वप्राणिनां शिरांसि तानि सर्वाणि तद्देहान्त:पातित्वात्तदीयान्येवेति सहस्रशीर्षत्वम्।

इस स्थल पर सायण का यह उद्धरण हमने इसलिए दिया है कि जो बालबुद्धि लोग इस मन्त्र के आधार पर रावण के दश सिरों की भाँति ईश्‍वर के एक हजार सिर मानते हैं, वे भूल करते हैं। परन्तु यहाँ हमारा मुख्य प्रयोजन यह है कि पुरुष की उपमा देकर वेदमन्त्र इस सूक्ष्म रहस्य को व्यक्त करता है कि जैसे शरीर एक पुरुष या आर्गेनिज्म है, उसी प्रकार जगत् भी एक आर्गेनिज्म है जिसका हर भाग जगत् के रक्षण में भागीदार है। समस्त पुरुषसूक्त में आदि से लेकर अन्त तक किसी-न-किसी रूप में लुप्तोपमा का महत्त्व दर्शाया गया है।

परन्तु ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखं‘ इस मन्त्र में जगत् के अन्य अंगों से हटकर विशेषत: मानव-समाज को पुरुष माना गया है और उसी प्रकार प्रत्येक अंग का पूरे मानव-समाज से सम्बन्ध दिखाया गया है। इसके दो पक्ष हैं- एक तो प्रत्येक अंग का दूसरे अंगों से भिन्न होना, दूसरा हर अंग का दूसरे अंगों का पूरक होना। ‘भिन्नत्व‘ और ‘पूरकत्व‘ दोनों को एक-साथ समझने की आवश्यकता है। जिस भिन्नत्व में पूरकत्व नहीं वह पुरुष का अंग नहीं। शरीर में दो आँखें है। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। दाहिनी आँख अलग, बाईं अलग। परन्तु दाहिनी बाई के रूप के यथेष्ट प्रदर्शन में पूरक है। काना आदमी दो आँखों वाले के समान नहीं। इसी प्रकार हर अंग का हाल है। जब मानव-समाज को विराट् रूप देकर पुरुष कहा गया तो उसके अंग गिनाये गये। उनके भिन्नत्व पर बल देने के लिए नहीं, अपितु पूरक होने पर। शरीर को पुरुष तभी तक कहेंगे, जब तक कि इसके अंग दूसरे अंगों के पूरक हैं। यदि एक अंग दूसरे की पूर्ति नहीं करता तो वह या तो रोगी शरीर है या मृत शरीर।

दो ही अवस्थाएं है जब शरीर के अंगों में सहयोग नहीं रहता- एक रोग, दूसरा मृत्यु। रोग भी मृत्यु न सही, मृत्यु का सेनापति सही। यदि एक सुन्दरी स्त्री या सुन्दर पुरुष के अंगों को काट-काटकर अलग शीशों में रख दिया जाए तो उन्हें कौन सुन्दर कहेगा! शरीर के सब अंगों के योग या जोड़ का नाम शरीर नहीं है। अवयवों के संघात का नाम अवयवी नहीं है। न्यायदर्शन का एक सूत्र है- न चावयव्यवयवा:। (न्याय 4.2.10) यदि केवल अवयवों के संख्या-सम्बन्धी जोड़ का नाम ही अवयवी होता तो अवयवों की विशेष व्यवस्था न होती। इसी प्रकार समाजरूपी पुरुष के अंग भी सुव्यवस्थित होने चाहिएँ, जैसे स्वस्थ शरीर के अंग होते हैं। समाजशास्त्र इसी व्यवस्था का तन्त्र है। मनुष्यों की गिनती से समाज नहीं बनता। यदि किसी शरीर का सिर कट जाए तो यह नहीं कह सकते कि इस अंगों में एक ही अंग तो कटा है, अत: 9/10 भाग अवयवों के उपस्थित रहते हुए शरीर भी 9/10 सुरक्षित होगा, क्योंकि सिर के कटने से व्यवस्था टूट गई। जब आप वेदमन्त्र को इस दृष्टि से देखेंगे कि यह पुरुष-सूक्त का अंग है और पुरुष का अर्थ है सुव्यवस्थित अंगों वाला शरीर, तो इस मन्त्र की उपयोगिता समझ में आ सकेगी। मन्त्र में मानव-पुरुष या मानव-विराट् के अंगों की गिनती नहीं गिनाई गई। यह अंगों का सूचीपत्र (Catalogue) नहीं है, जिसमें कहा हो कि समाजरूपी दुकान पर एक सिर या ब्राह्मण है। दूसरा बाहू या क्षत्रिय है। यहाँ प्रत्येक अंग की इति कर्त्तव्यता का विधान है। मानव-शरीर पर दृष्टि डालिए। उपमा के साधर्म्य को सोचिए। भोजन हमारे हृदय में शुद्ध रक्त बनाता है। इस रक्त के जो बिन्दु मस्तिष्क में पहँच जाते हैं वे मस्तिष्क का कार्य करने लगते हैं, जो पैर की अँगुली में पहुँचते हैं वे पैर बन जाते हैं। रक्त शुद्ध होना चाहिए। जब डॉक्टर बताता है कि बादाम खाओ, आँख की रोशनी बढेगी, तो उसका यही तो अभिप्राय होता है कि बादाम से जो रक्त बनेगा वह आँख में जाकर आँख बन जाएगा। इस उपमा को आप सब क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर घटा लीजिए।

अब आप वेदमन्त्र पर आइए। लोगों ने मूर्खता से यह समझा कि शरीर के अंगों की भिन्नता दिखाई गई है, अर्थात् जो चार वर्ण हैं वे एक-दूसरे से भिन्न हैं, पूरक नहीं। अत: ब्राह्मण अलग हो गये, क्षत्रिय अलग हो गये, वैश्य अलग और शूद्र अलग। एक-दूसरे से सम्पर्क नहीं। प्रत्येक अंग अपनी ही रक्षा के लिए प्रयत्नशील हुआ। परस्पर सहयोग जाता रहा। हिन्दू समाज की प्रचलित वर्ण-व्यवस्था में यही दोष है। नाम के लिए चार वर्ण हैं, परन्तु वे हैं अलग-अलग अर्थात् हिन्दू-समाज स्वस्थ समाज नहीं रुग्ण समाज है या मृतप्राय: समाज। वेदमन्त्र का यह आशय कदापि नहीं था।

दूसरी भूल यह हुई कि वाक्य में जो उद्देश्य था उसको विधेय समझ लिया गया। वाक्य था ‘अस्य मुखं ब्राह्मण आसीत्‘ अर्थात् मानव-समाजरूपी विराट् पुरुष को जो मुख्य भाग होगा उसका नाम हम ‘ब्राह्मण‘ रक्खेंगे इत्यादि। परन्तु हमने इसका अर्थ लिया कि जो ब्राह्मण कहलाता होगा उसको हम समाज का मुखिया कहेंगे। इन दोनों की भावनाएँ बदल जाती हैं। जो वैद्य का काम करने योग्य होगा और जो उस काम को योग्यता से करेगा, उसको हम वैद्य कहेंगे। यह भावना सुव्यवस्था की सूचक है। जिनका नाम वैद्य होगा उससे हम वैद्य का काम लेंगे। यह भावना कुव्यवस्थित समाज की है। वर्तमान हिन्दू-समाज की भावनाएँ पूर्वकथित नहीं, उत्तरकथित हैं। इसलिए हिन्दू समाज वर्ण व्यवस्थाहीन है और जो कुछ सम्प्रदाय अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए ‘वर्णधर्म-वर्णधर्म‘ की दुहाई देते हैं, वे दूषित विचारों का प्रचार करते हैं। जन्म से वर्णव्यवस्था मानने का यही दोष है।

सबसे भयानक और घातक भावना यह है कि चार वर्ण प्रजापति के चार अंगों से उत्पन्न हुए। ग्यारहवें और बारहवें दोनों मन्त्रों के शब्दों को मिलाइए। ग्यारहवें मन्त्र में पादों के साथ ‘उच्येते‘ (पुकारे जाते हैं) क्रिया है। यही क्रिया मुख, बाहू और ऊरू के साथ भी लगेगी। बारहवें मन्त्र में ‘आसीत्, कृत:‘ ये दो क्रियाएँ हैं। वैश्य के साथ भी ‘आसीत्‘ ही लागू होती है। केवल चौथी शूद्र के साथ ‘अजायत‘ और पंचम्यन्त ‘पद्भ्यां‘ शब्द आये हैं। इनको पहले मन्त्र के ‘व्यकल्पयन्‘ और ‘उच्येते‘ के साथ पढने से स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार मनुष्य माता की योनि से उत्पन्न होता है ऐसा अर्थ नहीं हो सकता और न इस भावना का कोई बुद्धि-संगत आधार है। यहाँ तो तात्पर्य यह है कि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों (गुण, कर्म और स्वभाव) तथा उनमें से हर एक का मानव-समाजरूपी स्वस्थ शरीर के रक्षण का उत्तरदायित्व दृष्टि में रखकर ऐसी व्यवस्था करनी आवश्यक है कि समष्टि-रूप से मानव-समाज उन्नति करता रहे और इसमें रोग न होने पाये। इसकी सबसे अच्छी उपमा शरीर या पुरुष से ही दी जा सकती थी। इस भावना के लिए इससे अच्छी उपमा मिलनी कठिन थी।

रोम के इतिहास में एक घटना वर्णित है। एक बार रोम की सेना में विद्वेष की अग्नि भड़क उठी। उसके नेता (इस नेता का नाम शायद Marcus Vespanius Agippa मार्कस वैस्पेनिया अग्रिपा था) ने सबको बुलाकर उपदेश दिया कि भाइयो ! तुम सब एक शरीर हो। शरीर तभी उन्नति करेगा जब तुम अपने को इस शरीर का अंग समझकर एक-दूसरे के पूरक और सहायक बनो। इस उपमा को सुनकर लोग फड़क उठे। उन्होंने पहले कभी यह उपमा सुनी न थी। परन्तु वेद में तो यह उपमा न जाने कितने काल से चली आती है। ईरान के प्रसिद्ध कवि, सादी शीराजी ने कहा है- बनी आदम आजाये यक दीगरन्द। अर्थात् मनुष्य परस्पर एक-दूसरे के अंग हैं। अंग कहने का अर्थ ही यह है कि वे पूरक या सहायक हैं। आँख स्वयं ही नहीं देखती, पैर और हाथ को भी देखने के योग्य बनाती है। आँखों की सहायता से हाथ मीठे फल को पकड़ लेता है। तुलसीदास ने कहा- गिरा अनयन, नयन बिनु वाणी। फिर भी गिरा नयन का काम करती है और नयन वाणी का। क्योंकि हैं तो दोनों एक पुरुष के ही अंग या पूरक। काव्य इसी का नाम है। वाणी और नयन दोनों मिलकर काव्य बनाते हैं और जहाँ इस सहयोग का अभाव है वहाँ काव्य भी नहीं। इसी प्रकार वेदमन्त्रों का अर्थ न समझने के कारण हमारे समाज का सुकाव्य कुकाव्य बना हुआ है।

यह वर्णव्यवस्था जिसे चातुर्वर्ण्य कहते हैं स्वत: सिद्ध नहीं, अपितु समाज-कल्पित और समाज-शासित है। प्रत्येक व्यवस्था का ऐसा ही रूप होता है। स्वयंसिद्ध वस्तु के लिए न बिगाड़ का भय होता है न सुधार या संरक्षण की चिन्ता। स्वयंसिद्ध चीज मानव-चिन्ता के क्षेत्र से बाहर की वस्तु है। मनुष्य का सिर कन्धों के ऊपर होता है, यह स्वयंसिद्ध बात है। किसी को इसमें हस्तक्षेप की गुंजायश नहीं है, न कोई चिन्ता करता है। परन्तु मुख-प्रक्षालन मानव-कल्पित और मानवशासित वस्तु है। अत: बचपन से इसकी शिक्षा दी जाती है। इसी प्रकार जहाँ तक मानव-समाज के वर्गीकरण का प्रश्‍न है, इससे पहले मन्त्र में स्पष्ट कहा गया है- यत् पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन्। (ऋग्वेद 10.9.11)

जब इस मानव-समाज रूपी ‘पुरुष‘ (Organism) की व्यवस्था की गई तो ‘कतिधा‘ ‘व्यकल्पयन्‘ कितने वर्ग किये। इस संकल्प या कल्प के दो लक्ष्य थे- व्यक्ति की रक्षा और समष्टि की रक्षा। व्यक्ति की रक्षा के लिए जीविका का प्रबन्ध सोचा गया और समष्टि की रक्षा के लिए व्यक्ति के कर्तव्य निर्धारित किये गये। इन दोनों भावनाओं के समन्वय का नाम वर्णव्यवस्था है। इसी के सम्बन्ध में गीता का प्रसिद्ध श्‍लोक है- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। (गीता 4.13)

यहाँ ‘श:‘ प्रत्यय गुण, कर्म और विभाग तीनों के लिए आया है अर्थात् गुणश:, कर्मश: तथा विभागश:। चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का प्रयोजन यह है कि समाज प्रत्येक व्यक्ति के गुणों (योग्यता) का निरीक्षण करे। उसके अनुकूल उसके कर्म (कर्तव्यता) की नियुक्ति हो अर्थात् समाज प्रेरणा तथा आदेश द्वारा उससे अधिक-से-अधिक काम ले और उसके बदले विभाग (जीवन-साधनों के विभाजन) का प्रबन्ध करे। अच्छा शासन (गवर्मेण्ट) उसको कहेंगे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता की परीक्षा की जाती है और उस योग्यता के अनुकूल उसको सामाजिक संगठन तथा संरक्षण का काम सौंपा जाता है। इसी का नाम है प्रजा का परिपालन। यह परिपालन केवल क्षत्रिय ही नहीं कर सकता, इस परिपालन में प्रत्येक छोटे-बड़े आदमी का हाथ है। समाज की गाड़ी को सभी मिलकर आगे बढाते हैं। इसी का नाम तो सर्वतन्त्र शासन (डिमाक्रेसी) है। सरकार का काम तो केवल यह प्रबन्ध करना है कि कोई व्यक्ति ऐसा न छूट जाए जो समाज की उन्नति में उचित मात्रा में भागीदार नहीं बनता। यह भी देखना है कि कोई भूखा तो नहीं मर रहा?

जहाँ कहीं शास्त्रों में विधान है कि राजा का कर्तव्य है कि चातुर्वर्ण्य की उचित व्यवस्था करे, वहाँ उसका यह तात्पर्य नहीं है कि थोड़े-से वेदमन्त्र सुनकर या एक लिखित परीक्षा लेकर यह घोषणा कर दे कि तुम ब्राह्मण वर्ण के हो अपने नाम के आगे ‘शर्मा‘ लगाया करो, तुम क्षत्रिय वर्ण के हुए तुमको ‘वर्मा‘ लगाने का अधिकार हो गया, तुम वैश्य वर्ण के हो तुमको अपने नाम के साथ ‘गुप्त‘ लगाने का अधिकार है, शासन ने तुमको शूद्र प्रमाणित किया है तुम अपने को ‘दास‘ लिख सकते हो। वस्तुत: यह वर्णव्यवस्था नहीं, वर्णव्यवस्था का दुरुपयोग है और इससे द्वेष तथा भेद-भाव बढता है। वस्तुत: वैदिक आदर्श राज्य वह होगा कि जिसके प्रबन्ध में हर ब्राह्मणत्व की योग्यता रखने वाले को ब्राह्मण के कर्तव्यों के पालन का अवसर मिले और उसी के द्वारा वह जीविका प्राप्त कर सके। इसी प्रकार अन्य लोग भी। न कोई निठल्ला रहे, न भूखा रहे, न अपने गुणों का दुरुपयोग करने के लिए प्रेरित हो सके। इस प्रकार वर्णव्यवस्था कर्म तथा फल दोनों का यथोचित निर्धारण करती है।

वर्णव्यवस्था केवल आध्यात्मिक प्रश्‍न नहीं, आर्थिक प्रश्‍न भी है, जीविका का भी प्रश्‍न है। इसलिए एक बात और स्पष्ट हो जाती है, जो शायद नई-सी प्रतीत हो परन्तु वेदमन्त्र पर विचार करने से उचित प्रतीत होती है, वह यह कि चातुर्वर्ण्य का सम्बन्ध केवल गृहस्थ-आश्रम से है, क्योंकि गृहस्थ-आश्रम ही मानव-समाज का मुख्य और व्यावहारिक भाग है। मनु जी ने भी गृहस्थ-आश्रम को सब आश्रमों का मूलाधार माना है। अन्य आश्रम गृहस्थ के ही आश्रित हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में समाज के चार वर्गों का प्रश्‍न ही नहीं उठता। हर शिशु को पूर्ण रीति से विकास करने का अवसर मिलना चाहिए। वर्ण तो गुणों की परीक्षा के पश्‍चात् ही निश्‍चित हो सकेगा। कच्चे फलों का वर्गीकरण कैसा? जिस देश में पिताओं की प्रतिष्ठा देखकर बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध हो वह देश उन्नत तो नहीं कहा जा सकता। जहाँ वेद पढाने के लिए कुल के पूर्वजों का इतिहास देखना आवश्यक हो वहाँ पक्षपात भी अवश्य होगा और बहुत-से शिशु शैशवकाल में ही अयोग्य सिद्ध हो जाएँगे। मध्यकालीन संस्कारों तथा रस्मोरिवाज में जो पग-पग पर वर्ग-भेद के चिह्न मिलते हैं, वे आदिम वैदिक काल के तो नहीं हो सकते और उन्होंने अपने काल में समाज की पर्याप्त हानि की है। वही संस्कार हमको दायभाय में मिले हैं। वानप्रस्थी और संन्यासियों में चार वर्गों का भेदभाव होना भी ठीक प्रतीत नहीं होता। ब्राह्मण वानप्रस्थी, क्षत्रिय वानप्रस्थी, वैश्य वानप्रस्थी, शूद्र वानप्रस्थी और इसी प्रकार ब्राह्मण संन्यासी, क्षत्रिय संन्यासी, वैश्य संन्यासी और शूद्र संन्यासी का क्या अर्थ? ये दोनों आश्रम तो वर्ण-भेद से ऊपर उठ जाते हैं। जब वर्णव्यवस्था जन्म-परक मान ली गई तो संन्यासियों में भी दलबन्दी हुई। सम्प्रदायों की अपेक्षा से संन्यासियों का भी वर्गीकरण हुआ। पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा का केवल रूप बदला। पुत्रैषणा का स्थान लिया शिष्यैषणा ने, वित्तैषणा का स्थान लिया मठैषणा ने और लोकैषणा कुछ बढ गई, घटी नहीं। यह है साम्प्रदायिकता की घुड़दौड़ जो आजकल भी वातावरण को दूषित करती रहती है। यदि वानप्रस्थी का काम तपस्या है और यदि संन्यासी का काम धर्म-प्रचार है तो कौन संन्यासी किस सम्प्रदाय का है इसका क्या अर्थ? सभी वानप्रस्थी सत्य की खोज करें और सभी संन्यासी बिना मत-मतान्तर की अपेक्षा के सर्वतन्त्र धर्म की प्रेरणा करें तो समाजरूपी पुरुष के अंग और उपाङ्ग ठीक हो सकते हैं।• - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- फरवरी 2015)

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