ओ3म् इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्।
क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे॥ ऋग्वेद 10.85.42॥
अन्वय- युवाम् इह एव स्तम्। मा वियौष्टम्। विश्वम् आयु: व्यश्नुतम्। पुत्रै: नप्तृभि: कीळन्तौ स्यातम्। स्वे गृहे मोदमानौ स्यातम्।
अर्थ- (इह एव) यहीं (स्तम्) तुम दोनों रहो। (मा वियौष्टम्) तुम दोनों वियोग मत करो, अलग-अलग न रहो। (विश्वम् आयु:) पूरी आयु को (व्यश्नुतम) तुम दोनों भोगो, (पुत्रै:) पुत्रों के साथ (नप्तृभि:) नातियों के साथ (क्रीळन्तौ) तुम दोनों खेलते हुए (स्वे गृहे) अपने घर में (मोदमानौ) तुम दोनों आनन्द करते हुए।
व्याख्या- यह मन्त्र गृहस्थ-आश्रम का मूलाधार है। इसमें वर और वधू को विवाह के समय का उपदेश है। ‘स्तम्‘, ‘वियौष्टम्‘, ‘व्यश्नुतम्‘, तीनों लोट्लकार (आज्ञा) मध्यमपुरुष द्विवचन क्रियाएँ हैं। क्रीळन्तौ‘ और ‘मोदमानौ‘ भी द्विवचन हैं- शत् और शानच् प्रत्यायान्त। इनसे पहली बात तो यह निकलती है कि वैदिक विवाह एक पुरुष का एक स्त्री के साथ ही होना चाहिए। बहुपत्नी-भाव और बहुपति-भाव वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध हैं। न तो एक पति की कई स्त्रियाँ होनी चाहिएँ, न एक स्त्री के कई पति। भिन्न-भिन्न देशों और युगों में भिन्न-भिन्न प्रथाएँ प्रचलित रही हैं। कहीं एक स्त्री के कई पति होते हैं, कहीं एक पति की कई स्त्रियाँ होती हैं। हिन्दुओं में बहुपत्नी-प्रथा तो बहुत दिनों से चली आई है, विशेषकर राजाओं में। ऋषि-महात्माओं के साथ भी कहीं-कहीं कई पत्नियों का उल्लेख मिलता है जैसे याज्ञवल्क्य के दो पत्नियाँ थीं। द्रौपदी के पाँच पति विख्यात हैं। परन्तु ये अपवाद मात्र हैं और समाज की उस समय क्या अवस्था थी इसका पूरा ऐतिहासिक ज्ञान नहीं है। अत: यह कहना कठिन है कि एक पति और एक पत्नी की वैदिक व्यवस्था कब और क्यों तोड़ी गई। पौराणिक गाथाओं ने अनेक प्रकार के बहाने खोजने के लिए कहानियाँ गढ ली जिनका सिर-पैर नहीं मिलता।
जैसे द्रौपदी के विषय में कुन्ती का अज्ञानवश वरदान। इससे यह तो पता चलता है कि भारतवर्ष में बहुपत्नी-प्रथा तो रही, परन्तु उसको प्रशंसनीय नहीं समझा गया। सम्भव है जब जाति-भेद के कारण रोटी-बेटी का प्रश्न उपस्थित हुआ तो लड़के-लड़कियों की संख्या में अधिक भेद होने के कारण या किसी राजनैतिक भय के उपस्थित होने पर उस समय के नेताओं ने कुछ सामयिक व्यवस्थाएँ जारी कर दी हों। परन्तु वेदमन्त्रों तथा संस्कार-पद्धतियों को देखने से तो यही जान पड़ता है कि एक पत्नी और एक पति की व्यवस्था ही प्रशंसनीय मानी गई है। सम्भव है उच्छृङ्खल राजाओं ने अपनी शक्ति के घमण्ड में शास्त्रकारों को विशेष व्यवस्था देने पर बाधित किया हो और ‘‘समरथ को नहिं दोष गुसांई‘‘ का सिद्धान्त धर्म में शामिल कर लिया गया हो। परन्तु बहुपति-भाव तो संसार में लगभग ‘नहीं‘ के बराबर है। कुछ पहाड़ी जातियाँ ही इसके उदाहरण हैं। बहुपत्नी-प्रथा यद्यपि अनेक देशों और मतों में विहित मान ली गई है परन्तु उसके दुष्परिणाम भी कुछ कम नहीं हैं। रामायण की कहानी तो अनेक पत्नी प्रथा का ही दुष्परिणाम है।
मुसलमानों में अनेक पत्नी विधान ने इस्लाम मत के बहुत से अच्छे गुणों को नष्ट कर दिया। इस्लाम के फूलने-फलने में जो कुछ बाधाएँ उपस्थित हुईं उनका कारण हजरत मुहम्मद साहेब की कई पत्नियाँ थीं। यदि खुदैजा न मरती और मुहम्मद साहेब का चित्त डाँवाडोल न होता तो इस्लाम का वह इतिहास न होता जिसके लिए इस्लाम के बुद्धिमान् पोषकों को लज्जित और खिन्न होना पड़ता है।
वेदमन्त्र का आदेश है कि गृहस्थ के दो स्तम्भ हैं- एक ‘पति‘ और दूसरा ‘पत्नी‘। यदि पति को मुख्यतम पति और स्त्री को उपपति कहा जाए तो ठीक होगा। परन्तु स्त्री के लिए स्त्री-प्रत्ययान्त शब्द होना चाहिए, अत: ‘पत्नी‘ शब्द का प्रयोग किया गया। पाणिनि व्याकरण में इसके लिए विशेष सूत्र बनाये गये। ‘पति‘ शब्द को स्त्रीलिंग बनाने के लिए ‘ङीप्‘ प्रत्यय लगाना चाहिए और ‘पत्युर्नो यज्ञसंयोगे‘ (पाणिनि 4-1-33) से ‘पति‘ शब्द के इकार को ‘न‘ आदेश किया गया। इस प्रकार पत्नी शब्द बना। परन्तु हर स्त्री को ‘पत्नी‘ नहीं कह सकते। पत्नी वही है जिसका यज्ञ अर्थात् विवाह-संस्कार के द्वारा सम्बन्ध हुआ हो। अत: पति और पत्नी का पवित्र सम्बन्ध यज्ञ द्वारा होना चाहिए और कई पत्नियों के साथ विवाह नहीं होता। विवाह-संस्कार के जितने अङ्ग शास्त्रों में दिये हुए हैं उनमें द्विवचन का ही प्रयोग है, बहुवचन का नहीं। पौराणिकों ने और विशेषकर कुलीन ब्राह्मणों ने बहुत स्त्रियों के पक्ष में जो कपोलकल्पित विधान गढ रक्खा है कि जिस प्रकार एक यूप में कई पशु बाँधे जा सकते हैं और एक पशु कई यूपों में नहीं बँध सकता, इसी प्रकार एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह कर सकता हैं, एक स्त्री कई पतियों से नहीं। यह युक्ति तो नि:सार है ही, परन्तु यह अवैदिक भी है, वेदमन्त्र में द्विवचन का प्रयोग इसीलिए है। याज्ञिक लोगों ने भी जहाँ यज्ञ में पति के साथ पत्नी के भी बैठने का विधान दिया है वहाँ एक पत्नी का ही उल्लेख है। इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण का निम्न उद्धरण बड़े महत्त्व का है-
स रोक्ष्यन् जायामामन्त्रयते जायऽएहि। स्वो रोहावेति।
रोहावेत्याह जाया।
तद् यज्जायामामन्त्रयतेऽर्धो वा एष आत्मनो यज्जाया।
तस्माद् यावज्जायां न विन्दते नैव तावत् प्रजायते।
असर्वो हि तावद् भवति।
अथ यदेव जायां विन्देते अथ प्रजायते।
तर्हि हि सर्वो भवति।
सर्व एतां गतिं गच्छानीति।
तस्माज्जायामामन्त्रयते। (शतपथ ब्राह्मण 5-2-1-10)
अर्थ- यज्ञ करते समय पति पत्नी को बुलाता है- हे देवी ! आ, हम दोनों स्वर्ग को चढें। अर्थात् स्वर्ग की इच्छा से जो यज्ञ किया जा रहा है उसमें हम तुम दोनों का साझा है। यज्ञ तभी सफल होगा जब हम दोनों मिलकर यज्ञ करेंगे। पत्नी उत्तर देती है, अच्छा हम दोनों चढें। (याद रखिए ‘रोहाव‘ द्विवचन है।) पत्नी को क्यों बुलाया, क्योंकि पत्नी पति का आधा भाग है। जब तक पत्नी नहीं होती सन्तान भी नहीं होती और मनुष्य उस समय तक ‘असर्व‘ अर्थात् अधूरा रहता है। अत: जब पत्नी को प्राप्त करता है तो सन्तान होती है। तभी ‘सर्व‘ अर्थात् पूर्ण होता है। पति पत्नी को इसलिए बुलाता है कि जब तक अधूरा रहूँगा यज्ञ में मेरी गति कैसे होगी? इसलिए मैं पूरा होकर यज्ञ करूँ, अधूरा होकर नहीं।
शतपथ का यह उद्धरण विवाह और गृहस्थ की पवित्रता और गौरव को बड़ी उत्तम रीति से प्रतिपादित करता है। विवाह स्वर्ग की सीढी है। गृहस्थाश्रम में पति और पत्नी मिलकर जो यज्ञ करते हैं मानो स्वर्ग की सीढी पर चढ रहे हों। विवाह सन्तान के लिए आवश्यक है। इसीलिए वेदमन्त्र कहता है (इह एव स्तम्) गृहस्थ बनकर स्थिरता के साथ यहीं रहो। पति और पत्नी का कामवासना के लिए क्षणिक सम्बन्ध नहीं है कि जब चाहा तोड़ दिया, जब चाहा जोड़ लिया, यह तो व्यभिचार या वेश्यावृत्ति है। क्षणिक सम्बन्ध से बच्चे तो उत्पन्न हो सकते हैं जैसे पशु-पक्षियों के, परन्तु उसे सन्तान (सन्तनोति इति) या सन्तति नहीं कह सकते। ‘इह एव‘ शब्द से वैवाहिक सम्बन्ध के स्थैर्य पर बल दिया गया है। उसको अधिक सुदृढ करने के लिए मन्त्र में उपदेश है ‘मा वि यौष्टम्‘- दोनों में वियोग न हो। पति-पत्नी के अलग-अलग रहने से गृहस्थ का संगठन टूट जाता है। अनेक पत्नियाँ होने से पति और पत्नी के बीच में दूसरी पत्नी व्यवधान या रुकावट पैदा करती है। इसका सन्तान पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दोनों का साथ रहना पूरी आयु के लिए भी आवश्यक है। बहुत-से विद्वानों ने आंकड़े इकट्ठे करके यह सिद्ध किया है कि वैवाहिक जीवनवालों की आयु अविवाहित स्त्री-पुरुष की अपेक्षा लम्बी होती है। होना भी ऐसा ही चाहिए। क्योंकि यदि स्त्री-पुरुष का सहयोग आयु की क्षीणता का कारण होता तो सृष्टि का क्रम ऐसा न होता। यह ठीक है कि हर नियम का दुरुपयोग हो सकता है और वह दुरुपयोग हानिकारक भी होता है । परन्तु यदि शास्त्र की मर्यादा का आदर किया जाए तो गृहस्थ-आश्रम जीवन को दीर्घ बनाने में भी सहायक होता है। अत: वेद का स्पष्ट आदेश है कि पति-पत्नी को यथाशक्ति साथ रहने और हर काम में परस्पर सहायक होने की आवश्यकता है।
विवाह का उद्देश्य है सन्तान-निर्माण। निर्माण का अर्थ केवल जन्म देना ही नहीं है अपितु उसको धार्मिक बनाना भी है। अत: वेद ने एक मनोवैज्ञानिक बात कही- ‘क्रीळन्तौ पुत्रै: नप्तृभि:‘- नाती-पोतों के साथ खेलो। बच्चों के साथ खेलने में जो आनन्द लेते हैं उनकी वृद्धावस्था में भी नवीनपन रहता है। जो माता-पिता बच्चों के साथ खेलना नहीं जानते उनके बच्चे उच्च भावनाओं को प्राप्त नहीं कर सकते। यदि आपके बच्चे आपसे डरते हैं तो समझ लीजिए कि आपकी गृहस्थ-व्यवस्था में कोई त्रुटि है। जिन रईसों या राजाओं के बच्चे सदैव नौकरों के साथ रहते हैं वे बहुधा द्वेष आदि दोषों के भागी हो जाते हैं। जो माताएँ अपने कष्ट को कम करने के लिए अपने बच्चों को नौकरों के हवाले कर देती हैं वे नहीं जानतीं कि बच्चे की संवृद्धि के लिए केवल भोजन की ही आवश्यकता नहीं है, प्रेम भी एक सूक्ष्म भोजन है जो मनुष्य के स्वभाव को बनाता है। अत: माता-पिता का प्रेम बच्चों के निर्माण के लिए अत्यन्त आवश्यक है। माता के हृदय में अपनी सन्तान के लिए एक नैसर्गिक प्रेम होता है। वह गर्भ के कष्टों को सहते हुए आनन्द मानती है और बच्चे के पालने-पोसने में उसको जो कष्ट-उठाने पड़ते हैं उनको सहन करने में उसे शिकायत नहीं होती। कष्ट सहते हुए हर्षित होना यह माताओं का अद्वितीय गुण है और किसी माता को अपने इस गुण का अनादर नहीं करना चाहिए। कहते हैं कि तुलसीदास ने एक दोहे का पहला भाग बनाया और लिखकर रख दिया-
सुरतिय, नरतिय, नागतिय कष्ट सहें सब कोय।
रहीम ने इसे पढा और इन शब्दों में दोहे की पूर्ति कर दी-
गर्भ लिये हुलसी फिरै तुलसी सों सुत होय॥
सन्तान के निर्माण में जो माता का भाग है उससे कम पिता का नहीं। इस विषय में जनता में एक भ्रम है और आजकल के भौतिक-विज्ञान-वेत्ताओं ने इस भ्रम को कुछ बढा दिया है। लोग समझते हैं कि जीव माता के गर्भ में उस समय आता है जब शरीर बनकर या आधा बनकर तैयार हो जाता है, अत: पिता के गुणों का सन्तति पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। इससे सन्तति-निर्माण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व माता पर छोड़ दिया जाता है। यदि कई पत्नियाँ हुई और उनकी भिन्न-भिन्न सन्तानें हुई तो स्थिति और भी विचित्र हो जाती है और पिता केवल उसी पत्नी की सन्तान पर प्यार करता है जो सबसे प्रिय होती है। परन्तु वैदिक शास्त्रों में पिता और माता दोनों को बराबर-बराबर उत्तरदाता ठहराया गया है। इसीलिए द्वन्द्व समास बनाने में एकशेष कर देते हैं- ‘माता च पिता च पितरौ‘। ‘पितरौ‘ का अर्थ माता भी है और पिता भी। यदि जीव माता के ही गर्भ में प्रविष्ट होता तो उसका पिता से कोई सम्बन्ध न होता। फिर पिता के गुण बच्चे में कैसे पाए जाते? परन्तु पशु-पक्षियों में भी देखा जाता है कि पिता के शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के गुण सन्तान में विद्यमान रहते हैं और समय पाकर उनका विकास होता है। ऐतरेय-उपनिषद् के निम्न वाक्य से हमारे कथन की पुष्टि होती है-
पुरुषे ह वा अयमादितो गर्भो भवति।
यदेतद् रेतस्तदेतत् सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेज: सम्भूतमात्मन्येवात्मानं बिभर्ति तद् यदा स्त्रियां सिंचत्यथैनज्जनयति।
तदस्य प्रथमं जन्म। (ऐतरेय उपनिषद् 2।1)
अर्थ- गर्भ पहले तो पुरुष के शरीर में होता है। यह रेत या वीर्य कहलाता है अर्थात् वीर्य ही उसका शरीर है। वहाँ वह पिता के शरीर के सब अंगों से तेज को खींचता और अपने में धारण करता है अर्थात् पिता के शरीर में उसके वीर्यरूपी भवन में ठहरकर वह पिता के गुणों से समन्वित हो जाता है। जब वह पिता के गर्भ से चलकर गर्भाधान-संस्कार द्वारा माता के गर्भ में आता है तो यह उसका पहला जन्म है।
इस प्रकार माता और पिता का दीर्घकाल तक बच्चों के साथ रहना और उनकी देखभाल करना आवश्यक है।
‘मोदमानौ स्वे गृहे‘- अपने निज घर में सुख मनाएँ। यहाँ गृह से तात्पर्य ईंट-पत्थर के मकान से नहीं है। मकान गृह नहीं है, गृह बनाने का एक स्थानमात्र है। गृह तो एक आध्यात्मिक, अधिमास्तिष्कि और सामाजिक वस्तु है जो परस्पर प्रेम से ही बन सकती है। गृह समस्त समाज की इकाई है। यहाँ समाज की आरम्भिक शिक्षा दी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति का समस्त मानव-समाज के साथ सीधा सम्बन्ध हो ही नहीं सकता जब तक गृहस्थ के माध्यम की सहायता न ली जाए। कुछ नेताओं ने कभी-कभी ऐसे परीक्षण किये जिनमें स्त्री और पुरुष बिना गृहस्थ की मर्यादा के सन्तानोत्पत्ति करें और जो बच्चे उत्पन्न हों वे देश या जाति के बच्चे समझें जाएँ।
यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) की यही राय थी, यद्यपि उसके इस प्रस्ताव का कभी किसी ने परीक्षण नहीं किया। रूस में जब कम्यूनिज्म की आँधी आई और उस आँधी में सब पुराने वृक्ष उखड़कर धराशायी हो गये तब विवाह-वृक्ष की प्रथा भी ध्वस्त हो गई। तब गृहस्थ की मर्यादा के बिना सन्तानोत्पत्ति आरम्भ हुई, परन्तु परीक्षण आरम्भ होते ही यह बिना दीर्घकाल तक चले ही शान्त हो गया। क्योंकि उसके दुष्परिणाम स्वयं लेनिन आदि को समाज-घातक दिखाई पड़े। गृहस्थ आश्रम में भी अन्य संस्थाओं के समान दोष हैं। परन्तु आवश्यकता रोग को दूर करने की है, रोगी को मार डालने की नहीं। वेदमन्त्रों के भावों को समझकर उन पर चलने से ये रोग दूर हो सकते हैं। अति प्राचीनकाल में जब प्लैटो आदि दार्शनिक या अन्य मतमतान्तर नहीं थे, ऐसे शुद्ध और सर्वोत्कृष्ट भावों की विद्यमानता वेदों के गौरव को सिद्ध करती है। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- मार्च 2015)
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