ओ3म् कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥ यजुर्वेद 40.2॥
अन्वय- इह कर्माणि कुर्वन् एव शतं समा: जिजीविषेत्। एवं त्वयि नरे न कर्म लिप्यते। इत: अन्यथा न अस्ति।
अर्थ- (इह) इस संसार में (कर्माणि) कर्मों को (कुर्वन् एव) करते हुए ही मनुष्य (शतम् समा:) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। (एवम्) यही एक साधन है जिसके द्वारा (त्वयि नरे) तुझ मनुष्य में कर्म लिप्त न होंगे। (इत: अन्यथा) इससे भिन्न दूसरा कोई मार्ग (न अस्ति) नहीं है।
व्याख्या- इस मन्त्र में ‘कर्म‘ का गौरव और माहात्म्य दिखाया गया है। विस्तृत व्याख्या करने से पहले मुख्य भावना को समझने का यत्न करना चाहिए। जब एक बार भावना हृदयंगम हो जाती है तो अन्य तत्सम्बन्धी बारीक बातें समझने में सुगमता होती है। मुख्य भावना यह है-‘‘कर्म करो तभी कर्म के बन्धनों से छुटकारा मिलेगा।‘‘ कर्म क्या है और कर्म का बन्धन क्या है? इसके लिए एक दृष्टान्त पर विचार कीजिए। एक चोरी ने चोरी की। चोरी एक कर्म था। शासन की ओर से उसे कारागार मिला। यह कारागार ही कर्म का बन्धन है। बाधनालक्षणं दु:खम्, (न्यायदर्शन 1।1।21)। बन्धन ही दु:ख का लक्षण है। कैदी जेल में बन्द है। यह बन्धन है। वह नहीं चाहता फिर भी चक्की पीसनी पड़ती है। यह बन्धन है। कहीं आ-जा नहीं सकता, यह कर्म का बन्धन है। किसी अपने प्यारे से मिल नहीं सकता, यही बन्धन है। ये सब कर्म के बन्धन हुए। कर्म था चोरी। कर्म के बन्धन हुए वे कर्म जो बिना इच्छा के जबरदस्ती करने पड़ते हैं। वेदमन्त्र कहता है कि इन कर्म के बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए भी निरन्तर कर्म करने चाहिएँ। उन कर्मों का प्रकार भिन्न होगा। उनकी प्रकृति भी भिन्न होगी। उनके लक्षण भी भिन्न होंगे, परन्तु वे होंगे ‘कर्म‘ ही। कर्म के बन्धन बिना कर्म किये नहीं छूट सकते। अनाचार-दोष से रोग उत्पन्न होता है। उपचार से रोग दूर होता है। अनाचार भी कर्म था जिसका बन्धन हुआ रोग। उपचार भी कर्म है परन्तु भिन्न प्रकार का। इसलिए वह ‘बन्धन‘ को छुड़ानेवाला है, बन्धन को कड़ा करनेवाला नहीं।
यह प्रशन केवल दार्शनिक नहीं, लोक-व्यवहार की नित्य की चीज है। हम रोज तकदीर और तदबीर की बहस सुनते हैं। तकदीर बन्धन है और तदबीर कर्म है। जीवन में हम सैकड़ों बन्धन देखते हैं जिनको हमने नहीं बनाया। वे बन्धन कहीं से बने-बनाये आ गये। जेल के विशाल भवन को चोर ने नहीं बनाया। किसी और शक्ति ने जबरदस्ती उस पर यह बन्धन थोप दिया। वह जकड़ा है। जैसा तकदीर में दिया है, होगा। इससे छुटकारा नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि खुदा (ईश्वर) जो चाहता है करता है, जिसको चाहता है सन्मार्ग दिखाता है, जिसको चाहता है ‘गुमराह‘ करता है। अल्लाह की मर्जी के विरुद्ध हो भी क्या सकता है? सरकार जबरदस्त है, उसने मजबूत जेलखाना बनाकर उसमें चोर को ठूँस दिया। कितनी ही भागने की तदबीर करो, भाग नहीं सकते। इसलिए उस घड़ी की प्रतीक्षा करो जब ईश्वर की ही मर्जी हो और वह बन्धन से मुक्त कर दे। ऐसे तकदीर के गुलामों की संख्या ईश्वर-भक्तों में सबसे अधिक है। इसका परिणाम है आलस्य, क्रियाहीनता। आलस्य के साथ इसी के बहुत-से बाल-बच्चे हैं जो अन्य रूपों में प्रकट होते हैं और बन्धनों को जकड़ते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो बन्धन से छूटने के लिए हाथ-पैर मारते हैं। कोई जेल की दीवार फाँदकर भागता है। कोई खिड़कियों की छड़ों को तोड़ देता है। कोई चौकीदार की आँख में धूल डालता है। इसको आप तदबीर कह सकते हैं। तदबीर के नाम पर हजारों पाप किये जाते हैं, जिनसे बन्धन ढीले नहीं होते, अधिक कड़े हो जाते हैं। यह ‘तदबीर‘ थे तो कर्म, परन्तु सोचकर नहीं किये गये थे। अत: ऐसे कर्म छुटकारे के हेतु सिद्ध नहीं होते।
कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है। कर्म करना संसार की हर वस्तु का स्वभाव है। मनुष्य भी इसी संसार का एक भाग है। सारी मशीन चलती है तो ऐसा कौन-सा पुर्जा है जो बिना चले रह सके। लेकिन एक काम इच्छा से किया जाता है और एक बिना इच्छा के। जीते तो सभी हैं, परन्तु जीकर क्या करेंगे ऐसा तो बहुत कम लोग सोचते हैं। इसीलिए वेदमन्त्र में एक शब्द आया है ‘जिजीविषेत्‘। इस रहस्य का सौन्दर्य समझने के लिए कुछ संस्कृत व्याकरण का पारिभाषिक ज्ञान आवश्यक है। यह क्रिया है ‘विधिलिङ्‘ और साथ ही ‘सन्नन्त‘ भी है। जिनको ‘विधिल़िङ्‘ और सन्नन्त के स्वरूप का ज्ञान नहीं उनके लिए मन्त्र का महत्त्व समझने में कठिनाई होगी। ‘विधि-निमन्त्रण-आमन्त्रण-अधीष्ट-संप्रश्न-प्रार्थनेषु ल़िङ्।‘ (अष्टाध्यायी 3-3-161) यहाँ ‘ल़िङ्‘ लकार विधि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अर्थात् जब किसी को आदेश देते हैं कि उसको अमुक काम करना ही चाहिए तो ‘लिङ्‘ लकार का प्रयोग किया जाता है। अब ‘सन्नन्त‘ (सन्-अन्त) पर विचार कीजिए। ‘धातो: कर्मण: समान-कर्तृकात् इच्छायां वा।‘ (अष्टाध्यायी 3-1-7)। यहाँ इतना जानना पर्याप्त होगा कि जहाँ ‘इच्छा‘ प्रकट करनी हो वहाँ क्रिया की धातु में ‘सन्‘ जोड़ देते हैं। इस प्रकार जिजीविषेत् विधिलिङ् भी है और ‘सन्नन्त‘ भी है । अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि जीने की इच्छा करे। किस प्रकार? ‘कर्माणि कुर्वन् एव‘ ‘कर्म करते हुए ही‘। बिना कर्म किए जीने की इच्छा से कोई लाभ नहीं।
यदि कुदरत को यह मंजूर न होता कि हम चलें तो हमको पैर न मिलने चाहिएं थे। यदि यह मंजूर न होता कि हम देखें तो आँखें देना निरर्थक था। इसलिए कुदरत ने हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव में कुछ ऐसी प्रेरणा दी हुई है कि निरन्तर काम करना ही है। भेद केवल इतना ही है कि जो काम हम अपनी इच्छा से करते हैं उसके करने में मजा आता है। लोग नित्य सैर को जाते हैं, यदि सरकार आदेश दे दे कि तुमको अवश्य ही सैर को जाना पड़ेगा तो सैर भी जान का वबाल हो जाती है। इसलिए वेदमन्त्र में उपदेश है कि पहले से ही ऐसी इच्छा करो कि सौ वर्ष जीना है तो निष्क्रिय न होकर, अपितु कार्यक्रम बनाकर निरन्तर कर्म करने की योजना भी हो और इच्छा भी।
सभी जीते रहना चाहते हैं। उनसे पूछो ‘‘क्यों? किस काम के लिए?‘‘ तो इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। यदि दो वर्ष और जीते रहो तो क्या करोगे? विचारा नहीं। ‘‘बस खायेंगे, पियेंगे, मौज करेंगे।‘‘ खाना-पीना और मौज करना कर्म तो नहीं। ये तो जीवन के साधनमात्र हैं। खाना आसान है, पीना आसान है, परन्तु मौज करना तो आसान नहीं। इसलिए कर्म करने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए। जो बुद्धिमत्ता से कर्मों की योजना बनाता है और उस पर चलने का यत्न करता है, उसका बन्धन छूट जाता है। जेल का जो कैदी जेल में रहकर नियुक्त कर्म करता रहता है, वह जेल के बन्धन से अवश्य छूट जाता है। कर्मों के करने में तीन प्रकार के दोष आ सकते हैं- कर्तव्य को न करना, अकर्तव्य का करना, कर्तव्य का उलटा करना। ये तीनों प्रकार के दोष कर्मबन्धन के कारण होते हैं। यदि गेहूँ न बोये जाएँ तो गेहूँ पैदा न होगा। उगे हुए गेहूँ में अधिक पानी दे दिया जाएगा, तो गेहूँ उत्पन्न होकर नष्ट हो जाएँगे और गेहूँ के स्थान पर जौ बो दिये जाएंगे, तब भी गेहूँ पैदा न होगा। अत: कर्तव्यकर्म के करने पर ही बन्धन छूटेगा। गीता में इसी वेदमन्त्र पर आधारित एक श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
यहाँ अधिकार का अर्थ है कर्तव्य। अधिकार और अधिकरण ये दोनों समानार्थक हैं। सूत्र-ग्रन्थों में अधिकार-सूत्र वे होते हैं जिनमें अन्य सूत्रों का समावेश होता है। गीता के श्लोक का तात्पर्य यह है कि कर्म मनुष्य के चिन्तन-क्षेत्र का विषय या अधिकरण है, फल नहीं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बिना सोचे-समझे अर्थात् किस कर्म से क्या फल होगा, किसी काम को कर दिया जाए। कर्म की प्रेरणा ही उसके फल की दृष्टि से होती है। गेहूँ बोनेवाला पहले देख लेता है कि गेहूँ उगाने रूपी फल की प्राप्ति तभी होगी जब गेहूँ बोया जाएगा। स्वर्गकामोयजेत अर्थात् स्वर्ग की कामनावाले को यज्ञ करना चाहिए। यहाँ फल की न अपेक्षा है न अवहेलना। प्रश्न यहाँ चिन्तन का है। जब यह निश्चित हो गया कि अमुक कर्म हमारा कर्तव्य है तो फल का चिन्तन छोड़ देना चाहिए। फल की प्रेरणा आरम्भ में होती है, परन्तु यदि कर्तव्य-पालन के समय मन में फल की उत्कण्ठता बनी रहेगी तो मन में दुविधा उत्पन्न हो जाएगी और कर्तव्य के यथेष्ट पालन में बाधा होगी। कर्म का फल तुम्हारे हाथ में नहीं, अत: फल का अपने को हेतु समझना मूर्खता होगी।
इसके लिए एक दृष्टान्त लीजिए-
आप सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं। आपने पद को स्वीकार ही तब किया जब आपको निश्चित हो गया कि अमुक वेतन मिलेगा, परन्तु जब आप अपने काम में लगे तो वेतन आपके चिन्तनक्षेत्र का विषय नहीं रहा। कार्यालय का कार्य ही एकमात्र चिन्तन का विषय है, वेतन आपके शासन के चिन्तन का विषय है। अत: जो सेवक सेवा का ध्यान छोड़कर हर घड़ी वेतन पर दृष्टि रखता है वह अपने पद का काम न करके अनेक भूलें करता है, क्योंकि वह कर्म का हेतु न होकर कर्मफल का हेतु बन जाता है। गीता में कहा है कि तेरा अकर्म से सम्पर्क न होना चाहिए। कर्महीनता का नाम भी अकर्म है और उलटे काम का नाम भी अकर्म है। (अकर्म=अ+कर्म=जो कर्म नहीं उसको करना या जो कर्म है उसको न करना)।
कुछ लोगों ने इस मन्त्र के उलटे ही अर्थ लगाये हैं। उनका कहना है कि इस मन्त्र में जिन कर्मों पर बल दिया गया है वे केवल मूर्खों के लिए हैं। जो ज्ञानी हैं उनके लिए तो कर्म की आवश्यकता ही नहीं रहती। शंकराचार्य जी ईशोपनिषद् के भाष्य में लिखते हैं- अथ इतरस्यानात्मज्ञतया आत्मग्रहणाय अशक्तस्येदमुपदिशति मन्त्र: कुर्वन्नेवेहेति। अर्थात् इस मन्त्र में केवल उन लोगोें के लिए उपदेश है जो अनात्मज्ञ हैं अर्थात् जिनको आत्मज्ञान नहीं हुआ और अशक्त अर्थात् सामर्थ्यहीन हैं। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह निकला कि वेद में जहाँ कहीं कर्मों का गौरव दर्शाया गया है वह केवल मूर्ख और अशक्तों के लिए है। जो विज्ञ हैं वे कर्मों की कर्तव्यता से ऊपर हैं। इस पर शांकरमत में ज्ञानकाण्ड को कर्मकाण्ड से पृथक् कर दिया गया और ब्रह्मज्ञों के मन में कर्म की अवहेलना बैठ गई। इसी मन्त्र की व्याख्या के अन्त में शांकरभाष्य में एक प्रश्न उठाया है- कथं पुनरिदमवगम्यते पूर्वेण संन्यासिनो ज्ञाननिष्ठोक्ता द्वितीयेन तदशक्तस्य कर्मनिष्ठेति।
अर्थात् यह कैसे ज्ञात हुआ कि पहले मन्त्र ‘ईशावास्य‘ से सन्यांसी की ज्ञाननिष्ठा और दूसरे मन्त्र ‘कुर्वन्ने‘ से ज्ञान की सामर्थ्य से अशक्त की कर्मनिष्ठा अभिप्रेत है? वस्तुत: यह प्रश्न तो समीचीन ही था कि वेद के इन दोनों मन्त्रों में से किसी शब्द से यह विदित नहीं होता कि पहला मन्त्र ज्ञानियों के लिए है और दूसरा अनात्मज्ञ के लिए। परन्तु भाष्यकार ने इसका यह उत्तर दिया है- उच्यते, ज्ञानकर्मणोविरोधं पर्वतवदकम्प्यं यथोक्तं न स्मरसि: किम्।
क्या तुमको हमारी यह बात याद नहीं रही कि ज्ञान और कर्म का परस्पर विरोध तो पहाड़ के समान अकम्प या अटल है?
वस्तुत: यह शंका का समाधान नहीं, समाधानाभास-मात्र है। ज्ञान और कर्म परस्पर विरोधी नहीं अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं। ज्ञाननिष्ठ ही कर्मनिष्ठ हो सकता है और ज्ञाननिष्ठ ही ‘मा ते संगोऽस्त्व कर्मणि‘ का पालन कर सकता है। जो ज्ञानी नहीं वह कर्मनिष्ठ कैसे होगा? गीता के भक्त भी तो यही कहते हैं कि भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को अकर्म की भावना से मुक्त करने और कर्मनिष्ठ बनाने के लिए गीता का उपदेश किया था। जिनमें कर्म की निष्ठा है वे अज्ञानी नहीं हैं। जो ज्ञान से शून्य हैं वे कर्मनिष्ठ कैसे होंगे? भगवान् ने हमारे शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दोनों ही दी हैं। ये एक-दूसरे की पूरक हैं विरोधी नहीं । और न उनका विरोध पर्वत के समान अटल है। जब ज्ञान और कर्म में पर्वत के समान अकम्प विरोध हो उठता है और मस्तिष्क तथा हाथ-पैर एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं तो इसे पागलपन की दशा ही कहते हैं। ज्ञान और कर्मेन्द्रियों का परस्पर विरोध केवल पागलों में मिलता है, ज्ञानियों में नहीं। इस प्रकार के निराधार और काल्पनिक भाष्य वैदिक संस्कृति के ह्रास के कारण ही सिद्ध हुए हैं। यह वेदमन्त्रों के आशय को न समझने अथवा कल्पित भावनाओं के अध्यारोप के कारण हुआ है। वस्तुत: यह वेदमन्त्र कर्म के गौरव को बताता है और स्पष्ट शब्दों में कहता है कि यथेष्ट कर्मों की इच्छा करके जीना और उन कर्मों का यथाविधि पालन करना सब कर्म के बन्धनों के छुटकारे का साधन होगा।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देनी चाहिए। ‘कर्मकाण्ड‘ के अर्थों में भी बहुत-कुछ विकार हुआ है। श्रीशंकर स्वामी के समय में कर्मकाण्ड का केवल यही अर्थ लिया जाता था कि यज्ञों के विषय में प्रचलित कुछ क्रियाएँ करना, जैसे पात्र साफ करना, वेदी बनाना, अमुक मन्त्र पढकर चावल निकालना या पकाना या अमुक मन्त्र पढकर अमुक आहुति देना। सम्भव है कि किसी अंश तक यह कर्मकाण्ड का बाह्यरूप रहा हो परन्तु यह वास्तविक कर्मकाण्ड नहीं है। केवल हल को एक मन्त्र पढकर उठा लेने का नाम कृषि-कर्म नहीं है और न व्यापार-सम्बन्धी किसी मन्त्र के पढ देने का नाम व्यापार है। समिधा कितनी बड़ी हो यह कर्मकाण्ड नहीं। सम्भव है कि वेदानुयायी को ऐसे निरर्थक कृत्यों से बचाने के लिए ही शंकर स्वामी ने इस प्रकार के तर्कों का प्रयोग किया हो, क्योंकि उस युग के कुमारिल भट्ट या मण्डन मिश्र आदि ऐसे ही कर्मकाण्ड के प्रचारक थे और महात्मा बुद्ध आदि ने इसी जाल से मनुष्यों को सुरक्षित रखने के लिए वेदों का विरोध किया था, परन्तु यह तो कल्पित उपचार था जिसने एक रोग दूर करने के लिए दूसरा रोग उत्पन्न कर दिया। कर्म के जाल से छूटे तो मायाजाल के शिकार हो गये। इससे कर्म का बन्धन तो नहीं छूटा। कर्म (वैदिक कर्म)अवश्य ही छूट गये। देश निरुद्यम हो गया। कर्म और ज्ञान के बीच अकम्प पर्वत खड़ा हो गया। परन्तु यह पर्वत भाष्यकारों की कल्पना का फल है। कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के बीच से इस व्यवधान को हटाने की आवश्यकता है और यह बात केवल यथेष्ट स्वाध्याय से ही पूरी हो सकती है। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग - जून 2014)