ओ3म् इदं सु मे जरितरा चिकिद्धि प्रतीपं शापं नद्यो वहन्ति।
लोपाश: सिंह प्रत्यञ्चमत्सा: कोष्टा वराहं निरतक्तकक्षात्॥ ऋग्वेद 10।28।4॥
शब्दार्थ- (जरित:) हे शत्रुओं का नाश करनेवाले ! आप (इदं) यह (मे) मुझ वीर का (हि) ही (सुचिकित्) सामर्थ्य जानो कि (नद्य:) नदियाँ (प्रतीपम् शापं आ वहन्ति) विपरीत दिशा को जल बहाने लगती हैं (लोपाश:) तृणचारी पशु भी (प्रत्यञ्चम् सिंहम्) सम्मुख आते हुए सिंह को (अत्सा:) नष्ट कर देता है। और (कोष्टा:) शृगालवत् रोनेवाला निर्बल भी (वराहम्) शूकर के समान बलवान् को (कक्षात निर् अतक्त) मैदान से बाहर निकाल भगाता है।
भावार्थ- मन्त्र में वीर पुरुष की महिमा का गुणगान है। संसार में ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे वीर पुरुष नहीं कर सकता? वीर पुरुष नदियों पर इस प्रकार के बन्ध बाँध देते हैं कि नदियाँ विपरीत दिशा में बहने लग जाती हैं। अथवा वीर पुरुष संसाररूपी नदी के प्रवाह को मोड़कर उलटा बहा देते हैं।
वीर पुरुष तृण भक्षण करने वाले पशुओं को ऐसा प्रशिक्षण देते हैं कि वे सम्मुख आते हुए सिंह को मार भगाते हैं। भाव यह है कि वीर तुरुष तुच्छ साधनों से महान् कार्यों को सम्पन्न कर लेते हैं। गुरु गोविन्दसिंह जी ने ठीक ही तो कहा था- चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, तो गोविन्दसिंह नाम धराऊँ।
कर्मवीर निर्बल मनुष्य में भी ऐसा पराक्रम फूँक देते हैं कि वे बलवान् शत्रु को भी मार भगाते हैं। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग - जून 2014)