विशेष :

सत्य को समझें

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ओ3म् न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम्।
हन्ति रक्षो हन्त्यासद् वदन्तम् उभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयातै॥ ऋग्वेद 7।104।13;अ.8।4।13॥

ऋषि: वसिष्ठ:॥ देवता सोम:॥ छन्द: निचृत्त्रिष्टुप्॥

विनय- जगदीश्‍वर सोमरूप से सब जगत् का पालन-पोषण कर रहे हैं। सोमप्रभु के जीवनदायी रस को पाकर ही सब संसार बढ रहा है, पुष्ट हो रहा है। पर ये भगवान् पाप को कभी नहीं बढाते, इनका यह सोमरस पाप को कभी नहीं पहुँचता और सब पापों का मूल स्रोत, जो असत्यता है, उसे तो परमेश्‍वर का जीवनरस मिलता ही नहीं है।

जब मनुष्य सदा इस तरह वर्तमान ‘सत्‘के विरुद्ध कुछ और असत् की अपने अन्दर रचना करता है, असत् पर असत् दुहरी बातों को अपने अन्दर धारण करता है, तो यह ‘मिथुया धारयन्‘ मनुष्य अपने इस दूसरे असत् द्वारा अपने-आपको आच्छादित कर लेता है और इस प्रकार सत्य की सोम-धारा से अपने को वञ्चित कर लेता है। हरेक पाप का करना भी क्रिया द्वारा सत् से इन्कार करना है, अत: ज्यूँही मनुष्य असत् की अपने में रचना करता है या ज्योंही वह क्रिया से सत्य-विरुद्ध कर्म (पाप-वृजिन) करता है, त्योंही उसका सत्स्वरूप जीवनरसदायी सोम से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है। वह ईश्‍वरीय जगत् से जुदा हो जाता है, मानो वह परमेश्‍वर के बन्धनागार में पड़ जाता है। अपने द्वारा ही वह ढक जाता है, वह बन्ध जाता है। जहाँ परमेश्‍वर सोमरूप से सब ठीक चलनेवालों को जीवन देकर बढा रहे हैं, वहाँं इन्द्र के (इदं दारयिता) रूप से ये ही परमेश्‍वर विपरीतगामी को जुदा करके बान्धनेवाले भी हैं। इस तरह असत्य बोलनेवाला या पाप करनेवाला जीवन-रस वञ्चित होकर, सूखकर नष्ट हो जाता है। इसीलिए वर्जनीय होने से पाप का नाम ‘वृजिन‘ है तथा पाप ही ‘रक्ष:‘ कहलाता है, चूँकि इससे अपने-आपको सदा रक्षित (रक्षितव्यं यस्मात्, निरुक्त 4।3।2) रखना चाहिए। इस वृजिन को, ‘रक्ष:‘ को वह परमेश्‍वर नष्ट ही कर देता है, कभी बढाता नहीं है।

मनुष्य यदि इस सत्य को समझे, इसमें उसे जरा भी सन्देह न हो, तो वह पाप करते हुए घबराये और असत्य बोलते हुए उसका कलेजा काँपे। संसार में यद्यपि हमें दीखता है कि परमेश्‍वर भी पाप को ही मदद दे रहा है और झूठे को बढा रहा है, परन्तु यह हम क्षुद्र बुद्धिवाले अल्पज्ञों का भ्रम है। हम अल्पज्ञ नहीं देख सकते कि किस पाप का फल कब और कैसे मिलता है?

शब्दार्थ- सोम:= सोमरूप परमेश्‍वर वै =नि:सन्देह न उ= न तो वृजिनम्=वर्जनीय पाप को हिनोति=बढाता है, न समर्थन करता है और न=ना ही मिथुया धारयन्तम्= दुहरी बात को, झूठ को धारण करनेवाले क्षत्रियम्=बलवान को ही बढाता है, किन्तु वह तो रक्ष:= पाप-राक्षस का हन्ति=हनन करता है और असद् वदन्तम= असत्य बोलने वाले का हन्ति=हनन करता है, ये उभौ=दोनों ही इन्द्रस्य= इन्द्र-रूप परमेश्‍वर के प्रसितौ=बन्धन में शयाते=पड़ते हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - अप्रैल 2014)