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रासलीला का रहस्य

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Krishna Raslilaहिन्दुओं में कृष्ण के नाम पर एक प्रथा प्रसिद्ध है जिसे रासलीला कहते हैं। इस रासलीला के विषय में अनेक मिथ्या बातें जनसाधारण में फैली हुई हैं, जिनसे कृष्ण के निर्मल नाम और यश पर धब्बा लगता है। यहाँ तक कि लोग उसी आशय से कृष्ण को विषयी और दुराचारी बताते हैं। लाखों हिन्दू तो कृष्ण का नाम केवल रासलीला के सम्बन्ध से ही जानते हैं। वे न कृष्ण की उच्च शिक्षा से परिचित हैं और न उनको यह ज्ञात है कि कृष्ण ने अपने जीवनकाल में अपने देश के लिए क्या-क्या कार्य किए और इतिहास उनको किस प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखता है। वे केवल उस कृष्ण से परिचित हैं और उसी की पूजा-अर्चना करते हैं जो रासलीला में गोपियों के साथ नाचता और गाता था।

स्मरण रखना चाहिए कि कृष्ण और बलराम 12 वर्ष से अधिक गोप लोगों में नहीं रहे। 12 वर्ष की अवस्था में या उसके लगभग अथवा उससे कुछ पश्‍चात् वे मथुरा चले आए और फिर यावज्जीवन उनको कभी गोकुल एवं वृन्दावन में जाने का अवकाश नहीं मिला, यहाँ तक कि उन्हें मथुरा भी छोड़नी पड़ी। ऐसी दशा में विचारना चाहिए कि गोपियों से प्रेम या सहवास करने का उन्हें कब या किस आयु में अवसर मिला होगा।

अतः वह उन सब अत्याचारों के कर्त्ता कैसे कहे जा सकते हैं जो उनके नाम से रासलीला या ब्रह्मोत्सव में दिखाये जाते हैं। हिन्दुओं की सामाजिक अधोगति की यदि थाह लेनी हो तो केवल ब्रह्मोत्सव देख लेना चाहिए। संसार की एक ऐसी धार्मिक जाति जिसकी धर्मोन्नति किसी समय जगद्विख्यात थी, आज अपने उस धर्म पर यों उपहास करने पर उतारू हो गई है। धर्म के नाम पर हजारों पाप करने लगी है और फिर आड़ के लिए ऐसे धार्मिक महान् पुरुष को चुन लिया है, जिसकी शिक्षा में पवित्र भक्ति कूट-कूटकर भरी हुई है।

दुःख की बात है कि हमने अपने महान् पुरुषों का कैसा अपमान किया है! कदाचित् यह इसी पाप का फल है कि हम इस अधःपतन को पहुँच गए और कोई हमारी रक्षा नहीं कर सका।
रासलीला का यथार्थ चित्र तो इस प्रकार है कि वर्षा की ऋतु है। चारों ओर हरियाली लहलहा रही है। एक प्रशस्त मैदान में मीलों तक घास-पात या वनस्पतियों के अतिरिक्त और कुछ दीख नहीं पड़ता। वृक्षों में फूल खिले हुए हैं और फल लटक रहे हैं। प्रकृति देवी का यौवन काल है। आकाश-मण्डल मेघों से घिर रहा है। मेघों का रह-रहकर मधुर स्वर से गरज जाना कानों को कैसा भला लगता है। कभी-कभी बिजली ऐसे वेग से इधर से उधर तड़प जाती है जिससे सारी पृथ्वी ज्योतिर्मयी हो जाती है। मेघ धीरे-धीरे बरस रहा है। पक्षिगण वृक्षों पर कलोल कर रहे हैं और उन्मत होकर पानी में स्नान कर रहे हैं। पत्तों पर पानी की बून्दें मोती सी दीख पड़ती हैं और हाथ लगाते ही चूर-चूर हो जाती हैं। वायु के झोकों से वृक्ष जिस समय झूमने लगते हैं और उनसे पानी टप-टप चूने लगता है तो जान पड़ता है मानो अपनी प्रिया की चाह में आँसू बहा रहे हैं। उनके आँसुओं की बूँदें जिन पर पड़ती है उनके अशान्त तथा संतप्त हृदय को ठण्डक पहुँचाती है। ऐसे सुहावने समय में प्रकृति मनुष्य के चित्त को चंचल कर देती है। दुराचारी मनुष्य अपनी अपवित्रता में उन्मत प्रकृति देवी के इस पवित्र सौन्दर्य पर हस्तक्षेप करने लगते हैं, पर लज्जावश मनुष्य दृष्टि से छिपकर केवल कुछ मित्रों में ही ऐसा करने पाते हैं। परन्तु जनसाधारण का हृदय अपनी सरलता में यों ही उछला पड़ता है। ऐसे सुहावने समय में प्रत्येक मनुष्य की कवित्व शक्ति उत्साहित हो गाने-बजाने की ओर जाती है। गोपों की छोटी सी मण्डली अपनी प्राकृतिक फुलवाड़ी में आनन्द मंगल से गाने-बजाने में मग्न है। बालक कृष्ण को मुरली बजाने की बड़ी चाह है। उसने इस बाजे में प्रवीणता भी प्राप्त की है। जब वह मुरली बजाता है तो उसके चारों ओर भीड़ लग जाती है। गोपों के लड़के और लड़कियाँ वृत्त बनाकर उसके चारों ओर खड़े हैं और नाचना तथा गाना आरम्भ करते हैं। इस मण्डली में जिसे देखिये वही इस रंग में रँगा हुआ दीख रहा है। ऐसे समय में कृष्ण भी मुरली बजाते-बजाते नाचते लगते हैं। बस यही रासलीला है और यही रासलीला की विधि है।

पाठक वृन्द! यथार्थ तो बस इतना ही था, जिस पर हमारे पौराणिक कवियों ने ऐसी-ऐसी युक्तियाँ लगाई, इतना ताना-बाना बुना कि बस पृथ्वी और आकाश को एक कर दिया। इन तांत्रिक कवियों ने कृष्ण का ऐसा चित्र खींचा कि यदि उसका सहस्रांश भी सत्य हो तो हम यह कहने में तनिक भी नहीं सकुचाएँगे कि कृष्ण अपने जीवन के इस काल में बड़े विषयी और कामातुर थे। आजकल के पौराणिक विद्वानों की भी इस बात की पोल खुल गई है और वे इन प्रेम प्रहसनों से परमेश्‍वरी प्रेम का सार निकालने की चेष्टा करते हैं। पर हमारी समझ में यह चेष्टा वृथा है। क्योंकि हम देखते हैं कि विष्णुपुराण में न तो राधा का वर्णन है, न गोपियों के संग कृष्ण की मुँहजोरियों का ही कुछ इशारा है और न चीर हरण की ही कहानी है। हरिवंश और महाभारत में भी इन बातों का कहीं वर्णन नहीं। ये सारी कथाएँ ब्रह्मवैवर्त और भागवत पुराण के कर्त्ताओं की गढ़न्त हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण वल्लभाचारी गोसाइयों का बनाया है, जिन्होंने देश में धर्म की आड़ में कैसा जाल रच रखा है, और अकथनीय अत्याचार किया करते हैं। उन्हीं के एक चेले नारायण भट्ट ने ‘व्रजयात्रा’ और रासलीला की नींव डाली। जितनी पुस्तकें राधा के प्रेम विषय की मिलती है वे प्रायः सब इसी पन्थ के गोस्वामियों की रची हुई हैं।

परमेश्‍वर जाने इन लोगों ने कृष्ण के जीवन को क्यों कलंकित कर दिया। जब इससे पहले के ग्रन्थों में इन बातों का कहीं वर्णन नहीं, तो इन पर विश्‍वास करने का हमें कोई कारण नहीं दिखता।

दूसरे, कई एक पुराणों के अनुसार कृष्ण की अवस्था उस समय जब (वे मथुरा में आये हैं) 12 वर्ष की थी। तब यह कैसे सम्भव हो सकता है कि 12 वर्ष की अल्प आयु में उन्हें यह सब बातें प्रकट होतीं और उनके पास तरुण स्त्रियाँ भोग-विलास की इच्छा से आतीं और कामातुर हो उनसे अपना सतीत्व नष्ट करातीं। तीसरे, महाभारत में प्रायः ऐसे स्थान आये हैं जहाँ कृष्ण को उनके शत्रुओं ने अनेक दुर्ववचन कहे हैं और उनके जीवन के सब दोष गिनाये हैं। उदाहरणार्थ राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल क्रोध में आकर कृष्ण के अवगुण बताने लगा और उसके बचपन के सब दोष कह गया, पर उनके दुराचारी या विषयी होने का तनिक इशारा भी नहीं किया। क्या यह सम्भव था कि कृष्ण की जीवनी इतनी गन्दी हो (जैसा कि ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है) और शिशुपाल क्रोधवश सभा के बीच उनके सब छोटे-बड़े अवगुण प्रकट करे और इसका (जो महादोष कहा जा सकता है) वर्णन तक न करे? वह अवसर तो उनके प्रकट करने का था, क्योंकि भीष्म पितामह ने सारी सभा में उन्हीं को (श्रीकृष्ण को) उच्चासन देना चाहा था।

कृष्ण उनके समकालीन थे। यदि वास्तव में कृष्ण में ये दोष होते तो यह कैसे सम्भव था कि ऐसे-ऐसे धर्मात्मा महान् पुरुष उनका ऐसा सम्मान करते और सारे आर्यावर्त में उसका यों मान होता? संस्कृत की प्रायः सभी पुस्तकों में कृष्ण को ‘जितेन्द्रिय’ लिखा गया है। ‘जितेन्द्रिय’ उसको कहते हैं जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया हो। यदि कृष्ण का वास्तव में राधा या मानवती से प्रेम था तो इन पुस्तकों में उन्हें ‘जितेन्द्रिय’ क्यों लिखा? रासलीला के नृत्य के विषय में प्राचीन ग्रन्थों से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय वृत्त बनकर नाचने की प्रथा सारे भारत में थी। बहुत से ग्रन्थकार तो कहते हैं कि स्त्री-पुरुष मिलकर वैसे ही नाचते थे जैसे कि आजकल अँग्ररेजों में उसका चलन है।

हाँ, ‘चीरहरण लीला’ की कथा भागवत में है। विष्णुपुराण, महाभारत और हरिवंश में इसका वर्णन नहीं है। आजकल के पौराणिक पण्डित तो इसको आलंकारिक बतलाते हैं। इसकी कथा इस प्रकार है। एक दिन गोपियाँ किसी सरोवर में नहा रही थीं। उनके वस्त्र किनारे पर रखे थे। कृष्ण संयोग से वहाँ आ पहुँचे। वे इसी ताक में छिपे बैठे थे और उन वस्त्रों को लेकर एक वृक्ष पर जा बैठे। जब गोपियाँ स्नान कर जल के बाहर आईं तो देखती हैं कि उनके वस्त्र नहीं है। इधर-उधर ढूँढने पर देखा कि कृष्ण महाशय एक वृक्ष पर बैठे हैं और वस्त्रों की गठड़ी पास रख छोड़ी है।

तब गोपियाँ अपने वस्त्र उनसे माँगने लगीं और हाथ जोड़कर विनती करने लगीं। तब कृष्ण ने कहा कि “नंगी मेरे सामने आओ तो दूँगा।’’ अतः वे सब नंगी (वस्त्रहीन) उनके सामने आईं तब उन महाशय ने उनके वस्त्र लौटा दिये।

आजकल के पौराणिक टीकाकार इसका सार यों निकालते हैं कि यहाँ पर ‘कृष्ण’ शब्द परमेश्‍वर के लिये प्रयुक्त होता है। यमुना से तात्पर्य परमेश्‍वर का प्रेम और गोपियों के वस्र से अभिप्राय सांसारिक पदार्थों से है। अतः इस कथा से यह भाव निकलता है कि परमात्मा के प्रेम में मग्न होकर मनुष्य को चाहिए कि किसी सांसारिक पदार्थ का विचार न करे, वरन् उनका ध्यान छोड़ दे। पर खेद है कि मनुष्य प्रेम की नदी में स्नान करके भी उन्हीं पदार्थों के पीछे दौड़ता है। परमात्मा उसे पश्‍चाताप दिलाने हेतु उन पदार्थों को उठा लेता है, जिससे उनका सम्बन्ध है। यहाँ तक कि मनुष्य अपने इष्ट पदार्थों के लिए कोलाहल मचाता है। परमात्मा उसकी पुकार सुनकर उसे अपने समीप बुलाता है। जब वह वस्त्रहीन आने में संकोच करता है तो परमात्मा उसको उपदेश करता है कि मेरे पास नग्न आने में संकोच मत कर। मेरे पास आने में अपना तन वस्त्र से ढकने की आवश्यकता नहीं। स्वयं को सांसारिक पदार्थों से पृथक् कर मेरे पास आ। तब मैं तेरी सारी कामनाएँ पूरी करूँगा और तन ढकने को वस्त्र दूँगा।

यह वाक्य रचना चाहे कितनी ही उत्तम क्यों न हो पर इससे भ्रम पड़ने की आशंका है। यदि इन सब कथाओं में ऐसी अत्युक्ति बाँधी गई है तो हमारी राय है कि इन अत्युक्तियों ने हिन्दुओं को बड़ी हानि पहुँचाई है और उनके आचार-व्यवहार को भी बिगाड़ दिया है। परमेश्‍वर के लिए अब उनको छोड़ो और सीधी रीति से परब्रह्म परमेश्‍वर के सम्मुख उपस्थित होकर भक्ति और प्रेम के फूल चुनो। कम-से-कम कृष्ण जैसे महापुरुष को कलंकित मत करो। और किसी विचार से नहीं तो अपना पूज्य और मान्य समझकर ही उन पर दया करो। उन्हें पाप कर्म का नायक मत बनाओ और उन महानुभावों से बचो जो इस महापुरुष के नाम पर तुम्हारा व्रत बिगाड़ रहे हैं और तुमको और तुम्हारी ललनाओं को नरकगामी बनाते हैं। - पंजाब केसरी लाला लाजपतराय

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