ओ3म् सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति ।
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी न: कृणोतु ॥ अथर्व 12.1.1॥
अन्वय- बृहत्, सत्यम्, उग्रम, ऋतम्, दीक्षा:, तप:, ब्रह्म, यज्ञ: (एते सर्वे) पृथिवीम् धारयन्ति। सा पृथिवी न: भूतस्य भव्यस्य पत्नी (अस्ति)। सा पृथिवी न: लोकम् उरुम् कृणोतु ।
अर्थ- पृथिवी को इतनी चीजें पालती हैं--(बृहत् सत्यम्) बड़ा सच, (उग्रम् ऋतम्) तीव्र ऋत, (दीक्षा) दीक्षा, (तप:) तप, (ब्रह्म) ब्रह्म और (यज्ञ:) यज्ञ । यह पृथिवी (न:) हमारे (भूतस्य) भूतकाल, (भव्यस्य) और भविष्यत् काल की (पत्नी) पालनेवाली है । वह पृथिवी हमारे (लोकम्) जीवन को (उरुम् कृणोतु) ऊँचा बनाए ।
व्याख्या- इस मन्त्र में पृथिवी अर्थात् देश की उन्नति के साधन बताये गये हैं । पृथिवी पर हम लोगों का जन्म होता है, इसी पर बढ़ते हैं और इसी पर हमारी अन्त्येष्टि हो जाती है । अत: इसकी उन्नति में हमारी उन्नति और इसके ह्रास में ह्रास है । ’उन्नति’ में भौतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी उन्नतियों का समावेश है । पृथिवी या देश के समुन्नत होने के बहुत-से भौतिक साधन हैं, जिनको देश की सरकारें वैज्ञानिकों की सहायता द्वारा प्रयुक्त किया करती हैं । जैसे विभिन्न प्रकार की भूमि को कृषि के उपयुक्त बनाना, ऊसरों को तोड़ना, पहाड़ी जमीनों को चौरस करना, जहाँ पानी की कमी हो वहाँ दूरस्थ नदियों से नहरें निकालकर पानी पहुँचाना, विद्युत-शक्ति को कृषकों के लिए सुलभ बनाना इत्यादि ।
परन्तु वेदमन्त्र में कुछ ऐसे अभौतिक तथा मानसिक गुणों का वर्णन किया गया है जो ऊपर दिये भौतिक साधनों से भी अधिक आवश्यक हैं, जिनके सहयोग से ही भौतिक साधन सफल हो सकते हैं और जिनके अभाव में ये भौतिक साधन सर्वथा विपरीत सिद्ध होते हैं । कृषि आदि भौतिक साधन मनुष्य के कल्याण के लिए हैं न कि मनुष्य उन साधनों के लिए । अत: यदि देश में खाद्य पदार्थ बहुत हों और खानेवाले निकम्मे हों तो उन पदार्थो का उपयोग नहीं हो सकता । कल्पना कीजिए कि एक धनाढ्य परिवार है । अच्छे मकान, खाने के लिए पुष्कल अन्न और पहनने के लिए उत्तम वस्त्र हैं। परन्तु परिवार के लोग आलसी, स्वार्थी और कलह-प्रिय हैं तो घर की समृद्धि भी चलायमान हो जाएगी । राजा दशरथ के चार लडके थे- राम और उन्हीं के सदृश लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। इनमें कुछ मानसिक गुण थे जिनकी सहायता से वे दशरथ के राज्य को विस्तृत और समृद्धिशाली बना सके । शाहजहाँ के भी चार पुत्र थे, दारा और उसके ही सदृश शुजा, औरंगजेब और मुराद, इनमें कुछ गुणों की कमी थी, अत: सुसमृद्ध मुगल राज्य शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो गया ।
इन्हीं गुणों का वेदमन्त्र में वर्णन है । एक-एक करके देखिए । पहला है- सत्यं बृहत्। अत्यन्त सत्यप्रियता अर्थात् असत्य से घोर अप्रीति। ऋग्वेद (10.85.1) में आया है- सत्येनोत्तभिता भूमि: । अर्थात् सत्य भूमि को ऊपर उठाये हुए है, उसे गिरने नहीं देता ।
यहाँ ’सत्य’ कोई लोहे का खम्भा नहीं है, न शेषनाग का फन है, न अटलस जैसा कोई देव है जो भूमि को कन्धे पर उठाये रखता हो । यहाँ तो भूमि पर रहने वाले मनुष्यों के मानसिक गुण से अभिप्राय है । सत्यनिष्ठ लोग दरिद्र देश को भी श्री-सम्पन्न बना देते हैं और असत्यनिष्ठ लोग सम्पन्न देश की सम्पदा को भी नष्ट कर देते हैं । सत्य का एक विशेषण दिया है ’बृहत्’ । यों तो सभी सत्य को अच्छा समझते हैं । परन्तु व्यवहार में सत्य को कम मान्यता दी जाती है । हर व्यापारी का विश्वास है कि सत्य से व्यापार नष्ट हो जाता है । हर वकील कहता है कि वकालत सत्यता से नहीं चल सकती । हर राजनीतिज्ञ कहता है कि राज करना है तो सत्य छोड़ो । सत्य ग्रहण करना है तो लंगोटी लगाकर वन को चले जाओ । राजनीति में सत्य का क्या काम? हाँ, सत्य का ढिंढ़ोरा पीटते रहो । दूसरों को उनके असत्य व्यवहार के लिए बदनाम करते रहो ।
भारतीय शास्त्रों में सत्य की महिमा बहुतायत से गाई गई है । परन्तु गाजर बेचनेवाले कँजड़े से लेकर महाधनाढ्य सेठ-साहूकारों तक सभी असत्य को समृद्धि का साधन समझते हैं । इससे भारतवर्ष की उन्नति तो नहीं होती । वेद कहता है कि पृथिवी को धारण करनेवाले गुणों में से मुख्य गुण बृहत्-सत्य है । नकली सत्य और असली सत्य में भेद है । क्या यह अचम्भे की बात नहीं है कि ’सत्य’ की महिमा को स्थापित करने के लिए किसी ने हरिश्चन्द्र नाटक में अनेक असत्य बातें मिला दी? क्या हरिश्चन्द्र नाटक के लिखनेवाले को भी यह विश्वास था कि असत्य का मिश्रण किये बिना नाटक सफल नहीं होगा? असत्य की विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि लाखों मनुष्य नाटक देखकर हरिश्चन्द्र की बड़ाई करते हैं परन्तु इन नाटकों ने संसार के असत्य-व्यवहार में कमी तो नहीं की । केवल दर्शकों द्वारा धन-प्राप्ति ही तो नाटक की सफलता नहीं है । इसी प्रकार वैज्ञानिक उद्योगों के साथ-साथ यदि सत्य का प्रचार नहीं होता तो देश के सम्पन्न और कल्याण-समृद्ध होने में सन्देह ही है।
दूसरा गुण है उग्रम ऋतम्। ऋत का अर्थ है सृष्टि के नियमों का सहयोग । सृष्टि किसी को अपने नियमों का असहयोग करने नहीं देती । जो ऐसा करता है तुरन्त उसे दण्ड मिलता है । आप रोटी के ग्रास को मुख के बजाय नाक से खाने लगें, तुरन्त ही दण्ड मिलेगा। सिर के बल चलना आरम्भ कीजिए । दिन में सोइए, रात में जागिए, ये सब उद्दण्डता के काम हैं और उद्दण्डता के लिए दण्डित होना अवश्यम्भावी है । आजकल साइंस का युग है। ऋत को विस्तारपूर्वक जानने का यत्न किया जाता है । सृष्टि के नियमों की नित्यप्रति खोज हो रही है । परन्तु अपने जीवन में उसका उपयोग नहीं किया जा रहा । डाक्टर होकर ऐसे आचरण या आहार-व्यवहार करते हैं कि जो विज्ञान के सर्वथा विपरीत हैं । इससे देश और जाति को हानि होती है । कोई ‘ऋत‘ यह नहीं बताता कि सिगे्रट पीना उपयोगी है। कोई ‘ऋत‘ यह आज्ञा नहीं देता कि स्त्रियाँ होठों को रंगा करें या कमर को इस प्रकार कसा करें कि उनके पेट की नसें निर्बल हो जाएँ या ऊँची एड़ी के जूते पहना करें । विज्ञान-समुन्नत देशों के आचार-व्यवहार बताते हैं कि यदि जंगली देशों ने ऋत का पालन नहीं किया तो यह उनके अज्ञान के कारण था । जब मनुष्य में ज्ञान की वृद्धि हो जाए, फिर भी जान-बूझकर ऋत से असहयोग किया जाए तो दण्डित होना ही पड़ेगा । (उत्तराखण्ड त्रासदी इसका सबसे बड़ा ताजा प्रमाण है-सम्पादक)
तीसरा गुण है दीक्षा । यजुर्वेद में कहा है-
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते । (यजुर्वेद 19.30)
’दीक्षा’ का अर्थ ऋषि दयानन्द ने ’उत्तम अधिकार’ किया है । जब मनुष्य शुभ कामों के लिए व्रत धारण करता है तो उसको उस काम के करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है । जब तक किसी देश में इस प्रकार के उच्च मनुष्य उत्पन्न नहीं होते जो नि:स्वार्थभाव से देशसेवा के लिए दृढ़-संकल्प हो जाएँ, उस समय तक देश की उन्नति सन्दिग्ध रहती है। जो लोकसभा या पार्लियामेंट के सदस्य चुने जाते हैं तो उनको शपथ लेनी होती है कि हम जो कुछ करेंगे केवल देशहित की दृष्टि से करेंगे, अपने व्यक्तित्व, परिवार, दल या सम्प्रदाय की भावनाओं को बीच में न आने देंगे । यह व्रत लेना ही उनकी दीक्षा है । व्रत के पश्चात् ही वे पार्लियामेण्ट की सदस्यता के अधिकारी होते हैं । उन्होंने दीक्षा भी ले ली और अधिकार भी प्राप्त हो गया, परन्तु यदि स्वार्थ या अज्ञानवश उन्होंने इसको निबाहा नहीं तो देश शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा । क्योंकि व्रत या शपथ का मुँह से लेना अथवा कागज पर हस्ताक्षर कर देना तो आसान है, परन्तु जब स्वार्थ और देशहित में विरोध आता है तो स्थिर रहने के लिए तीन और गुणों की आवश्यकता होती है- तप, ब्रह्म और यज्ञ की ।
’तप’ का अर्थ है कर्तव्यपालन करने में जो कठिनाइयाँ आएँ उनको सह सकना । अपने मन के अनुकूल बात होने पर तो सभी सच बोलते हैं, परन्तु जब सच बोलने से अपने स्वार्थ में बाधा पडती हो उस समय सच बोलना कठिन हो जाता है । स्वार्थ होते हुए न्याय तो सभी कर सकते हैं, परन्तु जो शत्रु के साथ न्याय करने में संकोच न करे वही देश का उद्धार कर सकता है । काम-क्रोध-लोभ-मोह के वशीभूत हुआ पुरुष कभी देश या जाति की रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकता । ’तप’ वही कर सकता है जो ब्रह्म अर्थात् अध्यात्म और यज्ञ अर्थात् आत्म-त्याग या आत्म-समर्पण में विश्वास रखता हो । अध्यात्म को भूलकर जो केवल भौतिकवादी हैं वे विषयों में शीघ्र फँस जाते हैं । मनुस्मृति में क्षत्रियों के लक्षण गिनाते हुए एक मुख्य लक्षण यह भी दिया है कि विषयों में आसक्ति न हो -
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत: ॥ (मनुस्मृति 179)
क्षत्रिय के संक्षेप में ये धर्म बताये हैं-
(1) प्रजानां रक्षणं=प्रजा की रक्षा, (2) दान, (3) इज्या=यज्ञ करना, (4) अध्ययन=वेद आदि शास्त्रों का पढना, (5) विषयेषु अप्रसक्ति=विषयों में न फँसना ।
राजे या शासक लोग शक्ति और अधिकार पाकर लोलुप और विषयी हो जाते हैं । इसीलिए वर्णाश्रम धर्म नष्ट होकर देश और जाति की अधोगति हो जाती है । देशों के इतिहासों पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि जब-जब बृहत् सत्य, उग्र ऋत, दीक्षा, तप आदि गुणों का अभाव हो गया तो समुन्नत देश भी रसातल को चले गये । शासन का कोई रूप क्यों न हो, एकाधिपत्य हो, प्रजातन्त्र हो, गणतन्त्र हो, कोई शासन-पद्धति सफल नहीं हो सकती जब तक कि देश के मनुष्यों की उच्च कक्षा के लोग इन गुणों से युक्त न हों । यह ठीक है कि देश के सभी व्यक्ति गुणी नहीं हो सकते, परन्तु यदि देश में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो जाए तो अराजकता फैल ही जाएगी । इसलिए वेदमन्त्र में उपदेश दिया है कि देश या पृथिवी को धारण करने-वाले मुख्यत: ये गुण हैं । इनके होते हुए अन्य ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ तो स्वयं ही आ जाती हैं ।
पृथिवी रत्नगर्भा है परन्तु उन्हीं के लिए जो रत्नों के अधिकारी हैं । अफ्रीका के दक्षिणी विभाग पर दृष्टि डालिए । सैकडों वर्षो से जंगली जातियाँ रहती थीं, नितान्त जंगली, एक-दूसरे से लड़नेवाली, किसी प्रकार की उन्नति के चिह्न न थे । जब बाहर से कुछ ज्ञान और श्रम से सम्पन्न लोग आ गये तो उस देश की वही पुरानी मिट्टी अंगूर, नारंगी, सेब आदि रत्न उगलने लग गई । अन्य देशों का भी यही हाल है । भौतिक सम्पत्ति की उत्पत्ति भी बिना सत्य आदि गुणों के नहीं होती और यदि उत्पत्ति हो भी जाए तो मनुष्य का कल्याण तो हो ही नहीं सकता, जब तक कि उत्पन्न वस्तु की रक्षा का उपाय न हो । खेती करनामात्र ही पर्याप्त नहीं है । उपज को चोरों से बचाने का भी तो प्रश्न है ।
जब तक देशवासियों में यज्ञ अर्थात् आत्म-समर्पण का भाव उत्पन्न नहीं होता, उस समय तक सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं होती। सामाजिक न्याय की भावना के न होने से हिंसा, असत्य और स्तेय का आधिक्य हो जाता है। पृथिवी को धारण करनेवाली दैवी शक्तियाँ तो हैं ही, जैसे सूर्य की ज्योति, वर्षा, पृथिवी की आकर्षण-शक्ति इत्यादि । परन्तु जबतक इन शक्तियों के साथ मन्त्र-कथित मानव-गुणों का सहयोग न हो, तो ये निरर्थक हैं । असभ्य और असंस्कृत देशों में भूमि उतनी ही उर्वरा होती है, धातुएँ सोना-चाँदी आदि बहुत रहती हैं । सूर्य के प्रकाश की कमी नहीं, वर्षा पुष्कल मात्रा में होती है। परन्तु मानव-गुणविहीन असभ्य देश उस समय तक उन्नति नहीं कर सकते जबतक मनुष्य-समाज अपना भाग प्रदान नहीं करता । भारतभूमि में परमात्मा ने बहुत-कुछ दिया है परन्तु जब-जब इस देश के मनुष्य धर्महीन, असत्य-प्रिय, स्वार्थी और तप-शून्य हो गये, देश परतन्त्र हो गया । भारत ही क्या, समस्त देशों का यही हाल है । वेद की शिक्षा सभी के लिए है।
जब देश में ऊपर दिये गुणों का आधिक्य होता है तो पृथिवी मनुष्य के भूत और भविष्य दोनों की ’पत्नी’ अर्थात् पालिका हो जाती है। भविष्य तो भूत का अनुगामी ही होता है। जिसने बोया नहीं वह काटेगा कैसे? जिस देश की पुरानी पीढियाँ गुणहीन रहेंगी उनकी नई पीढियों में गुण कहाँ से आएँगे? पितृ-वर्ग ही तो सन्तान के भविष्य का उत्तरदाता होता है । वेदमन्त्र में प्रार्थना है कि ऐसी पृथिवी हमको ’उरुलोक’ या मोक्ष की देनेवाली हो। मोक्ष की वर्षा अचानक ऊपर से नहीं होती। मोक्ष परमपद है, उसके लिए भौतिक और अभौतिक दोनों साधनों की आवश्यकता है। इन साधनों के लिए बृहत् सत्य, उग्र ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ अनिवार्य हैं, अत: प्रत्येक मनुष्य को ये गुण अपने में धारण करने चाहिएँ और समाज में उनका संचार करना चाहिए। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग - अगस्त 2013)
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