भारतीय संस्कृति के प्रतीक राम और कृष्ण सूर्य और चन्द्र की तरह अपने प्रकाश तथा जीवनी शक्ति से संसार की सभ्यता तथा संस्कृति पर अपना सनातन प्रभाव पैदा कर रहे हैं। ये दोनों महापुरुष भगवान विष्णु के अवतार समझे गए हैं। इन्हीं से वैष्णव धर्म का प्रसार हुआ है जो आज भी बहुत प्रभावकारी है। जब महात्मा गान्धी प्रातः सायं ‘‘रघुपति राघव राजाराम पतितपावन सीताराम’’ और ‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाणे रे’’ के गीत अपनी प्रार्थना सभा में गवाते, तो राम का आध्यात्मिक रूप व्यावहारिक स्तर पर भी मनमोहक हो जाता। इसी से समझा जा सकता है कि भारतीय तथा पूर्वी एशिया में राम का मानस राज्य या राम चेतना कितनी फैली हुई है। दुनिया में ऐसा राज्य आजकल स्वप्न बनता जा रहा है।
स्वाधीनता से कुछ दशक पूर्व कोलकत्ता में भारत की राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक महासम्मेलन हो रहा था। विशेष विषय था- भारत के स्वराज्य की मांग। स्वराज्य कैसा हो, क्या हो इस पर भिन्न-भिन्न नेता अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे थे। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने गरजते हुए कहा कि मैं स्वराज्य से मतलब भारत में सिर्फ भारतीयों का ही राज्य हो यही समझता हूँ। महात्मा गान्धी जी ने कहा कि मैं तो भारत में राम-राज्य चाहता हूँ। इस पर मुस्लिम नेता हसरत मोहानी ने कहा कि राम-राज्य क्या चीज है, हमें कुछ मतलब समझ नहीं आता। स्वराज्य का पूरा-पूरा रूप दिया जाना चाहिए। क्या हिन्दुओं का राज्य हो या मुसलमानों का राज्य हो या दोनों का मिला जुला राज्य हो.... वगैरह-वगैरह।
ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गान्धी एक आदर्श राज्य को ही राम-राज्य मानते थे। भारत में महान् सूर्यवंशी साम्राज्य के निर्माता महाराज रघु थे। अपने पितामह के इस महान् साम्राज्य के लिए 14 वर्ष के वनवास की तपस्या को समाप्त कर श्रीराम ने जब राज्य भार संभाला, उस समय के राम-राज्य का इतिहास महाभारत के शान्तिपर्व में वर्णित है।
महाभारत की लड़ाई के शुरू में जो विमोह और अवसाद अर्जुन को हो गया था, वैसा ही विमोह धर्मराज युधिष्ठिर को युद्ध जीतने के बाद राज्य-सिंहासन पर बैठने के समय हो गया था। उस समय युधिष्ठिर के सब भाईयों ने, द्रौपदी ने, महर्षि वेदव्यास ने और दूसरों ने भी बहुत समझाया, परन्तु युधिष्ठिर का अवसाद दूर न हुआ। तदनन्तर महर्षि वेदव्यास के कहने से श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को उपदेश दिया और महर्षि नारद द्वारा बताये गए पुराने भारतीय इतिहास को भी समझाया। इसी में राम-राज्य का वर्णन भी श्रीकृष्ण द्वारा प्राप्त होता है- रामे राज्यं प्रशासति।
जब राम राज्य का उत्तम रूप से शासन कर रहे थे तक राज्य कैसा था, प्रजा की क्या अवस्था थी, यह महाभारत के शान्तिपर्व के अनुसार संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है- मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम सदा प्रजा को अपने पुत्रों की तरह से पालते थे। अपने पिता की तरह ही वे सबका मर्यादापूर्वक शासन करते थे। राम के राज्य में कोई स्त्री विधवा न होती थी, सभी दीर्घायु थे। कोई भी कहीं अनाथ दिखाई न देता था। वर्षा ठीक समय पर होती थी, तदनुसार अन्न की उत्पत्ति भी ठीक समय पर भरपूर होती थी। जब राम राज्य करते थे तो कभी दुर्भिक्ष या अकाल न पड़ता था। कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण से अग्नि में जलकर या जल में डूबकर न मरता था। लोगों में कोई रोग न होता था, सभी स्वस्थ रहते थे। सभी दीर्घायु पाते थे। सभी के मनोरथ सिद्ध होते थे। उस समय न तो स्त्रियां आपस में लड़ती थीं और न पुरुष किसी से झगड़ा किया करते थे। सभी धर्म पर चलते थे। सभी मनुष्य सत्यनिष्ठ, निर्भय तथा स्वतन्त्र विचरते थे। वृक्ष-वनस्पति फूलों-फलों से लदे रहते थे। गौओं से दूध बड़ी मात्रा में मिलता था। उन्होंने अपने राज्यकाल में राज्य की सुख शान्ति एवं ऐश्वर्य के लिए अनेक अश्वमेध या राष्ट्रमेध यज्ञ किये थे। देवों की नगरी अयोध्या में दीर्घकाल तक राम अपना सुशासन चलाते रहे और प्रजा को सन्तुष्ट करते रहे। शरीर की दृष्टि से परम सुन्दर, बड़े कद वाले, स्वस्थ और सुन्दर कमलनयन, लम्बी-लम्बी भुजाओं वाले राम बहुत बलवान थे। इनके दर्शनमात्र से प्रजाजन गद्गद हो जाते थे। जिन गुणों को वे प्रजाजन में चाहते थे, उन सब गुणों का स्वयं पालन करते थे। धर्म, अर्थ, अनासक्ति तथा मोक्ष-ज्ञान के परम ज्ञाता थे, इत्यादि। यथा राजा तथा प्रजा। जैसा महान् राजा था वैसी ही महान प्रजा थी। यह है ऐतिहासिक दृष्टि से महाभारत में वर्णित राम-राज्य। आज ऐसे राज्य की कल्पना भी करना कठिन है, जबकि संसार में सर्वत्र, ईर्ष्या, द्वेष, झगड़े और नये-नये हथियारों से मनुष्य मात्र को नष्ट कर देने की दिशा में सब आगे जा रहे हैं। जो दैवी सम्पत्ति देवपुरी अयोध्या में पनपी थी, वह आज कहीं नहीं। परन्तु आसुरी सम्पत्ति की तरफ सब मनुष्य व जातियां तथा राष्ट्र बुरी तरह से आगे जा रहे हैं। मनुष्य देवता न बनकर राक्षस या निशाचर बनना अधिक पसन्द करते हैं। इसी से खाओ, पीओ और मजे करो की स्वार्थमयी सभ्यता फैल रही है।
आर्य हिन्दू जनता जब गाती है- ‘‘सदा चाहते हम दुनियां में राम-राज्य का लाना, सदा चाहते हम दुखियों के दुःख में हाथ बंटाना’’ तब स्वभावतः हम राम की सच्ची स्मृति को जागृत कर लेते हैं और राम चेतना में डूब जाते हैं। तब मनुष्य में दैवीय रूप उभर आता है। इसी को भगवान् का मानवदेह में दैवीय अवतरण कहा जा सकता है। दैवी सम्पत्ति से सम्पूर्ण राज्य फूले-फले इसी में सभी का कल्याण है। भारत की प्रार्थनाओं में भी यही कहा गया है और यही रामराज्य है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्। - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग- अप्रैल 2019)
In Ayodhya, the city of Gods, Rama continued his good governance for a long time and kept satisfying the subjects. From the point of view of body, Rama was very strong with a beautiful hands, big height, healthy and beautiful Kamalanayan, long and long arms. Due to his philosophy, the people used to become obsessed. The qualities which he wanted in the subjects, he followed all those qualities himself.
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