ओ3म् महत्सधर्स्थ महती बभूविथ महान्वेग एजथुर्वेपथुष्टे। महांस्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्।
सा नो भूमे प्ररोचय हिरण्यस्येव संदृशि मा नो द्विक्षत कश्वन॥ अथर्ववेद 12.1.18
अर्थ- हे मातृभूमि ! तू (महती) बड़ी है, और इसीलिये तू हम सबका (महत्) बड़ा (सधस्थम्) मिल कर रहने का आश्रय-स्थान (बभूविथ) बनी है (ते) तेरा (वेगः) वेग (एजथुः) चलना और (वेपथुः) हिलना (महान्) महान् है (त्वा) तुझे (महान्) महान् (इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली सम्राट और परमात्मा (अप्रमादम्) प्रभादरहित हो कर (रक्षति) रक्षित करता है (भूमे) हे मातृभूमि ! (सा) वह तू (नः) हमें (हिरण्यस्य इव) सुबर्ण के से (संदृशि) रूप में (प्ररोचय) चमका दे (कश्चन) कोई भी (नः) हमसे (मा) मत (द्विक्षत) द्वेष करे।
हे हमारी मातृभूमि ! तू महती है- बड़ी महान् है। सब दृष्टियों से तू महान् है। तेरे निवासी शारीरिक स्वास्थ्य और शक्ति की दृष्टि से महान् हैं। वे सांसारिक धन-वैभव की दृष्टि से महान् हैं। विद्या-विज्ञान की दृष्टि से महान् हैं और चरित्र की दृष्टि से भी महान् हैं। अपने निवासियों की महत्ता के कारण हे हमारी मातृभूमि ! तू भी महान् बन गई है।
ऐसी महान् हे मातृभूमि ! तू हम सबका महान् सघस्थ1 है। हम सबके मिलकर रहने का महान् स्थान है। तेरे ऊपर मिलकर रहते हुए राष्ट्र परस्पर के सहयोग और सहायता से अपने आपको सभी दृष्टियों से महान् बनाते हैं और स्वयं महान् बनकर तुझे भी महान् बनाते हैं।
इस प्रकार महान् बनी हुई हे हमारी मातृभूमि ! तेरा वेग तथा तेरा एजथु और वेपथु, तेरा चलना और हिलना, भी महान् हो गया है। तेरी सभी प्रकार की गतिविधि महान् हो गई है। तेरी सभी प्रकार की हरकतों और चेष्टाओं में महत्ता है, उदात्तता है, श्रेष्ठता है, ऊँचापन है। तेरी चेष्टाओं में किसी प्रकार की क्षुद्रता और तुच्छता नहीं होती है। तू शक्ति की दृष्टि से भी महान् है। तेरी शक्ति बड़ी प्रचण्ड है। तेरी उस शक्ति के कारण तेरी चेष्टाओं को, तेरी गतिविधि को कोई विरोधी शक्ति रोकने और उनमें बाधा डालने का साहस नहीं कर सकती।
महान् इन्द्र, हे हमारी मातृभूमि ! तेरी रक्षा करता है। हम प्रजाओं द्वारा चुना हुआ हमारा सम्राट् और उसके अधीनस्थ सारा राज्य-प्रबन्धन तेरी रक्षा करता है। और यह रक्षा कार्य हमारा वह इन्द्र प्रमादरहित होकर करता है।
अपने इस रक्षा कार्य में वह किसी प्रकार का प्रमाद, किसी प्रकार की सुस्ती, किसी प्रकार की ढील, किसी प्रकार की असावधानता नहीं आने देता। वह हर समय जागरूक, सतर्क, तत्पर और चौकन्ना रहकर तेरी रक्षा करता है।
हमारा वह इन्द्र महान् है। उसमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सभी प्रकार की योग्यतायें महान् हैं। महान् योग्यताओं वाले हमारे इन्द्र और उसके योग्य राज्याधिकारियों द्वारा निरन्तर चौकन्ने रहकर तेरी रक्षा किये जाते रहने का परिणाम यह होता है कि तू भी महान् बन जाती है। तेरे अन्दर महान् वेग उत्पन्न हो जाता है। तू उन्नति के मार्ग पर बड़े वेग से आगे बढने लगती है। तेरी सभी चेष्टायें और सभी गतिविधियाँ महान् हो जाती हैं। कोई विरोधी शक्ति तेरे महान् वेग और तेरी महान् गतिविधियों की राह में आकर खड़ी नहीं रह सकती।
महान् इन्द्र अर्थात् महान् परमात्मा भी हे हमारी मातृभूमि ! सदा तेरी रक्षा करता है। तेरे सारे निवासी परमात्मा में विश्वास रखते हैं। उसकी दोनों समय प्रेम में भरकर उपासना करते हैं। इस उपासना में उसके सत्य, न्याय, दया, उपकार, ज्ञान, बल और संयम आदि महान् गुणों का चिन्तन करते हैं और उसके इन गुणों का अपने साथ मिलान करते हैं। इस प्रकार अपने अवगुणों को त्यागने का तथा परमात्मा के गुणों को अपने में धारण करने का संकल्प करते हैं। परमात्मा के इन पवित्र गुणों को धारण करके अपने छोटे क्षेत्र में परमात्मा जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं। परमात्मा की उपासना द्वारा परमात्मा के गुण धारण करके परमात्मा जैसा बनने और उसकी आज्ञा मानकर चलने का परिणाम यह होता है कि हे हमारी मातृभूमि ! तेरे निवासी और तुम सभी महान् बन जाते हो। तुम्हारे महान् बनने के प्रयत्नों में परमात्मा तुम पर कृपा और तुम्हारी सहायता करते हैं।
ऐसी महान् और ऐसे महान् इन्द्र द्वारा रक्षित हे हमारी मातृभूमि ! तू हमें चमका दे, तेजस्वी और कान्ति वाली बना दे। तू हमें हिरण्य के सन्दर्शन में, सुवर्ण के रूप में चमका दे। सुवर्ण की सी मनोहर कान्ति वाला, सुवर्ण का सा तेजस्वी तू हमें बना दे। तू हमें सभी दृष्टियों से सुवर्ण का सा रूप दे दे। तू हमें सब श्रेष्ठताओं, सब गुणों का आगार सुवर्ण बना दे, कुन्दन बना दे।
हे माँ ! तू हमें ऐसा बना दे कि हमसे कोई भी द्वेष न कर सके। हमारा औरों के प्रति व्यवहार और आचरण ऐसा उदार, ऐसा सहानुभूति से पूर्ण, ऐसा मधुर, ऐसा मिठास और शहद से भरा बना दे कि हमसे कोई भी द्वेष न करे।
हमारे सभी मित्र बन जायें, हमारा कोई भी शत्रु न रहे। और हे माँ ! तू हमें वह प्रचण्ड शक्ति भी दे कि जिसके कारण हमारे प्रेम के व्यवहार को कोई विरोधी हमारी दुर्बलता समझकर हमसे द्वेष और दुर्भावना के साथ बरताव करने का साहस न कर सके। यदि कोई विरोधी हमारे उदारता के व्यवहार को हमारी दुर्बलता समझने की भूलकर के हमारे प्रति द्वेष का आचरण करने लगे तो हमारे पास उसका दमन करने के लिये इतनी पर्याप्त और प्रचण्ड शक्ति हो कि उसे पता लग जाये कि उसका पाला किसके साथ पड़ा है। ऐसा महान् और दुर्धर्ष शक्तिशाली हे माँ ! तू हमें बना दे।
मातृभूमि की इस महत्ता के वर्णन और उससे इस प्रार्थना द्वारा वेद ने यह उपदेश दिया है कि जो लोग अपने राष्ट्र को सब दृष्टियों से महान् बनाना चाहते हैं उन्हें परस्पर प्रेम से मिलकर रहना चाहिये। उन्हें महान् गुणों वाले व्यक्ति को अपना सम्राट बनाना चाहिये और ऊँचे गुणों वाले व्यक्तियों को ही अपना राज्याधिकारी बनाना चाहिये। उन्हें परमात्मा के विश्वासी भक्त और उपासक बनकर परमात्मा के गुण धारण करके परमात्मा जैसा पवित्र बनना चाहिये और इस प्रकार परमात्मा की कृपा प्राप्त करनी चाहिये। राज्याधिकारियों को प्रमादरहित होकर राष्ट्र की रक्षा का कार्य करना चाहिये। राष्ट्र निवासियों का बरताव ऐसा मधुर होना चाहिये कि उनसे कोई भी द्वेष करने वाला न रहे। राष्ट्र के पास शक्ति भी इतनी प्रचण्ड रहनी चाहिये कि कोई विरोधी उसके उदारता और प्रेम के बरताव को कमजोरी समझकर उससे शत्रुता करने तथा उसे हानि पहुँचाने का साहस न कर सके। राज्य-प्रबन्धन ऐसा उत्तम होना चाहिये कि सब प्रजा-जन सुवर्ण जैसी कान्ति वाले तथा कुन्दन जैसे गुणों वाले महान और श्रेष्ठ बन सकें।
सन्दर्भ- 1. सधस्थम् = सहस्थानम्। सधस्थे सहस्थाने। निरूक्त 3.15॥ सधमाधस्थयोश्छन्दसि (अष्टाध्यायी 6.3.90) इति सहस्य सधादेशः।
2. सन्दृशि = सन्दर्शने = स्वरूपे। - प्रियव्रत वेदवाचस्पति (दिव्ययुग - अप्रैल 2016)
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