विशेष :

मन की बात

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man ki baat

ओ3म् शिवास्त एका आशिवास्त एकाः सर्वा विभर्षि सुमनस्यमानः।
तिस्त्रो वाचो निहिता अन्तरस्मिन् तासामेका वि पपातानु घोषम्॥ अथर्ववेद 7.43.1॥

ऋषि: प्रस्कण्वः॥ देवता वाक् ॥ छन्दः त्रिष्टुप् ॥

विनय- हे मनुष्य ! जो तू वाणियाँ बोला करता है, उनमें कुछ तेरा कल्याण करने वाली होती हैं और कुछ अकल्याण करने वाली। जो वाणियाँ सच्ची और प्यारी होती हैं, जो दूसरे के हित के लिए, लाभ पहुँचाने के लिए, सत्य फैलाने के लिए बोली जाती हैं वे कल्याणकारिणी होती हैं और जिन वाणियों को तू छल-कपटपूर्वक, द्वेष व क्रोध के साथ, दूसरे को हानि पहुँचाने के लिए बोलता है उनसे तेरा भारी अकल्याण होता है। पर तू वाणियों के इस महान् भेद को न समझता हुआ इन सब प्रकार की वाणियों को बोलता जाता है। अच्छी-बुरी दोनों वाणियों को एक ही प्रकार प्रसन्नतापूर्वक बेखटके को बोलता जाता है। तू शायद समझता है कि तेरे बोले हुए शब्दों का जो उसी समय नष्ट होते दीखते हैं, तुझपर कुछ असर नहीं होता या नहीं हो सकता, पर तुझे पता नहीं कि तू वाणी को केवल बोलता नहीं है, किन्तु उसे धारण भी करता है। तू जो शब्दरूप में बोलता है वह तो वाणी का एक भाग (एक-चौथाई भाग) है, उस वाणी के शेष तीन भाग तो तेर अन्दर छिपे हुए पड़े होते हैं, तुझमें रखे हुए होते हैं। जो अभिप्राय तू शब्दों में (इस चौथी वैखरी वाणी में) बोलता है, वह अभिप्राय तेरे मन में (तीसरी माध्यमा वाणी के रूप में) समाया रहता है और मन में बोले जाने से भी पूर्व वह अभिप्राय तेरे अन्दर साकार व निराकार ज्ञान के रूप में रहता है (जिन्हें कि क्रमशः दूसरी और पहली, पश्यन्ती और परा वाणी कहते हैं)। इस प्रकार तेरी अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की वाणी तेरे अन्दर अपने तीन पाद रखे रहती है और चौथे पाद में वह बाहर शब्दरूप में दीखती है। यह शब्दरूप चौथाई वाणी चाहे तुझे अपने पर कुछ असर कर सकनेवाली न दीखती हो, पर वाणी के इस समूचे रूप पर, वाणी के अन्दर के इन तीनों रूपों पर जब भी तू ध्यान देगा तो तुझे दीखेगा कि सच्ची कल्याणकारिणी वाणी तुझमें परा, पश्यन्ती और मध्यमारूप में ठहरी हुई तुझपर कितना कल्याणकारी प्रभाव कर रही है और बुरे अभिप्राय से परा, पश्यन्ती और मध्यमारूप में धारण की हुई अकल्याणकारिणी वाणी अन्दर-ही-अन्दर से तेरा कितना भारी अकल्याण कर रही है।

शब्दार्थ- हे मनुष्य ! ते=तेरी एकाः= कल्याणकारिणी वाणियाँ हैं ते एकाःअशिवाः=और एक अकल्याणकारिणी हैं, पर तू सर्वाः=उन सबको सुमनस्यमानः= प्रसन्नचित्त से बिभर्षि=धारण करता है। वाणी के तिस्त्रः वाचः=तीन भाग अस्मिन् अन्तः निहिता=तेरे इस देह के अन्दर छिपे रखे हैं तासां एकाः=उनका एक हिस्सा ही घोषं अनु=शब्द व आवाज के रूप में विपपात=बाहर निकलता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- जनवरी 2016)

Mind Matter | Voice of Difference | Your Welfare | Fraudulently | Spite and Anger | Real or Formless Knowledge | Inside Speech | Speech of Distinction | Good and Bad Speech | Vedic Motivational Speech & Vedas Explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Mannargudi - Umri Pragane Balapur - Landhaura | दिव्य युग | दिव्ययुग |