ओ3म् उद् वयं तमसस्परि स्व:1 पश्यन्त उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥ यजुर्वेद 20.21॥
अन्वय- वयं तमस: परि (उपरि)2, स्व: (ज्योति:) पश्यन्त: सूर्य्यं उदगन्म। उत्तमं ज्योति: अगन्म। देवत्रा (देवेषु) उत्तमं ज्योति: पश्यन्त: देवं सूर्य्यं अगन्म।
अर्थ- (वयं) हम लोगों ने (तमस:) पाप या अन्धकार से (परि) ऊपर उठकर (स्व: पश्यन्त:=ज्योति: दृष्टवन्त:) प्रकाश को देखा और (देव: सूर्य्यम्) परम प्रकाशक ईश्वर को (उद्+अगन्म) पा लिया। (उत्तरम्) आगे बढकर देखा तो (उत्तरं ज्योति:) अधिक तेजवाले प्रकाश को पाया और आगे बढे तो (देवत्रा) हर प्रकाशक वस्तु में व्यापक (उत्तमम् ज्योति:) सर्वोत्कृष्ट ज्योति अर्थात् परम-प्रभु की प्राप्ति हुई।
व्याख्या- तमस: परि= तम के ऊपर। ‘तमस्‘ नाम है अँधेरे का और पापों का भी। साधारण मनुष्य का जीवन अन्धकार या पापों सेआच्छादित रहता है। खाने-पीने और संसार के बखेड़ो में लिप्त मनुष्य को परमात्म-तत्त्व के दर्शन नहीं होते। हमको रोटी तो दिखाई देती है परन्तु रोटी में व्यापक ईश्वर नहीं दीखता। पानी दीखता है परन्तु पानी में व्यापक ईश्वर दिखाई नहीं देता। जबतक हमारी आँखों के समक्ष अन्धकार का गुबार छाया हुआ है, सूर्य के दर्शन नहीं होते। जब अधिक कुहरा पड़ता है तो चमकता हुआ सूर्य भी दिखाई नहीं देता। संसार के साधारण व्यवहार कुहरे के समान प्रकाश को आच्छादित करते हैं। लोगों से पूछो कि क्या इस संसार में ‘आत्मतत्त्व‘ भी है? वे कहते हैं ‘‘कहाँ है दिखाओ?‘‘ तुम कहते हो कि फूलों में ईश्वर व्यापक है। हम फूल की हर पंख़ुडी को तोड़कर देखते हैं, कहीं ईश्वर तो दिखाई नहीं पड़ता। यदि ईश्वर प्रत्येक आँख को समानरूप में दिखाई पड़ जाता तो सभी मनुष्य समानरूप से आस्तिक और ईश्वर के श्रद्धालु होते तथा संसार में पाप, अन्धकार या क्लेश का नाम न होता। परन्तु ऐसी समान-दृष्टि हम सबको मिली नहीं। परमात्मतत्त्व की बात तो दूर रही, साधारण भौतिक पदार्थ भी हम सबकी आँखों को स्पष्टता से समान प्रतीत नहीं होते। एक सुशिक्षित वैज्ञानिक एक छोटे-से पत्ते को देखकर उसमें जितने गुण देख सकता है, वे गुण साधारण बच्चे को तो नहीं दिखाई पड़ते। साधारण मनुष्य की अपेक्षा माली की आँख अधिक तेज है और साधारण माली की अपेक्षा वनस्पतिशास्त्र-विशारद वैज्ञानिक की। इससे एक बहुत बड़ी बात यह सिद्ध हुई कि ‘आस्तिकता‘ जादू की भाँति सबको यकायक प्राप्त नहीं हो जाती। जैसे बच्चा एक-एक अक्षर पढते-पढते अन्त में परम विद्वान् हो जाता है, इसी प्रकार आत्म-दर्शन का भी विकास होता है। इसकी भी कक्षाएँ हैं। यदि आप सुयोग्य गणितज्ञ बनना चाहते हैं तो छूमन्तर से गणित का ज्ञान न होगा। एक और एक दो से लगाकर सैकड़ों मंजिलें तय करनी पड़ेंगी, तब कहीं जाकर आप गणित की उच्च कक्षा तक पहुँच सकेंगे। किसी विद्यार्थी के जीवन पर सावधानी के साथ दृष्टि डालिए। उसके क्रमश: विकास की परिगणना कीजिए। यदि गणित एक दिन में नहीं आता, यदि लिखना-पढना एक दिन में नहीं आता, यदि रोटी पकाना एक दिन में नहीं आता, यदि कपड़ा बुनना एक दिन में नहीं आता, तो यह कैसे सम्भव है कि इधर-उधर के दो भजनों को गा लेने या दो-चार उपदेशों को सुन लेने से आप आस्तिकता जैसी सर्वोत्कृष्ट विद्या के धनी बन जाएँ? प्रस्तुत वेदमन्त्र में क्रमश: इसी विकास की ओर संकेत किया गया है।
‘तमस: परि‘ पापों से ऊपर उठकर। किसी माघ के दिन प्रात: काल उठकर देखिए। सवेरा हो गया। सूर्योदय को हुए दो घण्टे हो गये, परन्तु सूर्य चमकते हुए भी दिखाई नहीं पड़ता। चारों ओर कुहरा छाया हुआ है। यह नहीं कि सूर्य न निकला हो, परन्तु कुहरे ने हमारी निगाह को कुण्ठित कर दिया है। उसी समय यदि आप किसी ऊँची पहाड़ी पर चढ जाएँ तो देखेंगे कि सूर्य चमक रहा है। क्यों? इसलिए कि आप कुहरे से ऊपर उठ गये। पुणे से मुम्बई जाते हुए जब रेलगाड़ी ऊँचाई पर चढती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि गाड़ी ऊपर है और बादल नीचे मँडरा रहे हैं। क्योंकि आप उस स्तर से ऊँचे उठ गये जहाँ बादलों का अन्धेरा था। जो बात भौतिक प्रकाश पर लागू होती है वही मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान पर भी लागू होती है। निरक्षर पुरुष को किताबों के पृष्ठ ऐसे प्रतीत होते हैं मानो किसी ने स्वच्छ कागज पर रोशनाई फैला दी हो। परन्तु जब मनुष्य निरक्षर से साक्षर होने लगता है तो अक्षरों की एक-एक रेखा अपूर्व ज्ञान की द्योतक होती है, क्योंकि शिक्षार्थी अन्धकार से ऊपर उठ जाता है।
इस क्रमिक विकास के लिए वेद में तीन सुन्दर शब्द दिये हैं- उत्, उत्तर, उत्तम। यह तरप् और तमप् (Comparative and Superlative) का प्रयोग सारगर्भित है। इसमें एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा है। ईश्वर के दर्शन के इच्छुक को ‘तमस:परि‘ अन्धकार या पापों से ऊपर उठना चाहिए। योगदर्शन में अष्टांग योग का वर्णन आता है।
योग कुछ साधारण श्वास-प्रश्वासों के नियन्त्रण या शारीरिक आसनों का नाम नहीं है। बहुत-से नट ऐसे विचित्र आसन करते हुए देखे जाते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि उन्होंने अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर कैसे आधिपत्य प्राप्त कर लिया! परन्तु वे योगी तो नहीं। वे आस्तिक्य, आत्मदर्शन या तत्त्वज्ञता में तो सर्वथा कोरे हैं।
योग के आठ अंगों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहवाला जो पहला अङ्ग है वह तो अन्धकार और पापों से ऊपर उठने के ही लिए है। पाप्मा वै तम: पाप्मानं एव अस्माद् अप हन्ति । (तैत्तिरीय संहिता 5.1.8.6) अहिंसा और सत्य की प्राप्ति क्षणभर में तो नहीं होती। जो अपने को साधु कहते हैं या जिनको संसार साधु कहता है उनको भी अहिंसा और सत्य की उपादेयता में सन्देह रहता है। जो लोग रात-दिन शास्त्रों में सत्य और अहिंसा के उपदेश सुनते और उनके आधार पर प्रतिदिन दूसरों को उपदेश देते हैं, वे भी यह कहते सुने जाते हैं कि सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर तो कुंजड़ा शाक-भाजी बेचने में भी सफल नहीं हो सकता, बड़ी-बड़ी योजनाओं की बात तो दूर रही। महात्मा गाँधी ने अपने सत्य और अहिंसा के परीक्षणों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मैंने यह सब लिखने की कोशिश इसलिए की है कि जिनको सत्य और अहिंसा की उपयोगिता में कुछ शंका है उनमें कुछ श्रद्धा उत्पन्न हो जाए।
योग और योगियों के पीछे दौड़नेवाले संसार में भरे पड़े हैं। बड़े-बड़े सेठ और सेठानियाँ नित्य ऐसे योगियों की खोज में रहते हैं जो धन की प्राप्ति का कोई सरल लटका बता सकें। वे योग के इच्छुक नहीं हैं। वे हिंसा और असत्य के तमस् या अन्धकार से ऊपर उठना भी नहीं चाहते, फिर उनको ‘सूर्य्यंम् उदगन्म‘ अर्थात् प्रभु के प्रकाश की झाँकी कैसे मिले! हाँ, यदि वे ऐसा अभ्यास डालें कि उनके जीवन से पाप की प्रवृत्तियाँ दूर हो जाएँ तो उनकी निगाह ऊँची उठ सकती है और कम-से-कम दूर से यह दिखाई पड़ जाता है कि किसी पहाड़ की चोटी पर सूर्य चमक रहा है। सूर्य का अभाव नहीं है, हमारे सिर पर न चमके न सही, दूसरों के सिर पर चमकता है। ये पहाड़ की चोटियाँ क्या हैं? महात्माओं के जीवन। वे हमको सांसारिक ‘तम:-पुञ्ज‘ से ऊपर उठे दिखाई पड़ते और हमको अपनी ओर बुलाते हैं कि ऊपर को आँख उठाओ और शनै:-शनै: पहाड़ी पर चढते जाओ-
Live of great men, all remind us, We can make our lives sublime. (Long Fellow's Psalm of Life)
महात्माओं के जीवन हमको स्मरण दिलाते हैं कि हम भी अपने जीवनों को उत्कृष्ट बना सकते हैं।
कब? जबकि हम ‘स्व: पश्यन्त:‘ स्वर्ग अर्थात् ऊपर की ओर देखें। ‘स्व:‘ का अर्थ यहाँ कोई विशेष स्थान नहीं। विषय-वासनाओं के कुहरे से उठते ही आत्मा को प्रकाश की प्राप्ति होने लगती है। सम्राट् अशोक का जीवन पापमय था। उसने मानव-संहार में कोई कसर उठा नहीं रक्खी। यकायक उसकी आँख उस अन्धकार से ऊपर उठ गई और उसको एक ऐसी ज्योति की किरण दिखाई दी कि उसका जीवन बदल गया। उसको सत्य और अहिंसा पर श्रद्धा हो गई। इसी प्रकार जब आपको प्रकाश की किरण सूझ पड़े तो उससे सन्तुष्ट न हूजिए। आगे अभ्यास करते जाइए। जब आप उत्तरोत्तर उन्नति करेंगे तो आत्मप्रकाश के भी अधिक दर्शन होंगे। हर एक बात अभ्यास से आएगी। पूर्ण अभ्यास होने पर ‘देवत्रा देवं पश्यन्त:‘ हर देव में परमात्मदेव के दर्शन हो जाते हैं, यह पराकाष्ठा है।
‘देवत्रा‘ ‘देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यो द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम्‘ इस पाणिनि (5-4-56) सूत्र से यहाँ ‘त्रा‘ प्रत्यय सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है। ‘देवत्रा‘ का अर्थ हुआ ‘देवों में‘। देव अर्थ है प्रकाशवान् पदार्थ का। देव तो बहुत-से हैं। सूर्य चमकता है, अत: देव है। चन्द्र चमकता है, अत: देव है। बिजली चमकती है, अत: देव है। अग्नि चमकती है, अत: देव है। जुगनू चमकता है, अत: देव है। बिजली का दीपक चमकता है, अत: देव है। गैस का हण्डा चमकता है, अत: देव है। मिट्टी का टिमटिमाता दीपक भी देव है, क्योंकि यह चमकता है। आपकी आँख चमकती है, अत: देव है। उल्लू की आँख चमकती है, अत: देव है। चींटी की आँख चमकती है, अत: देव है। परन्तु इन सब देवों से बड़ा और इन सबका मूलाधार परमात्मा महादेव है जो ‘उत्तमं ज्योति:‘ सबसे बड़ी ज्योति है। पापरूपी अन्धकार से उठकर जब मनुष्य का हृदय स्वच्छ होने लगता है तो जो प्रकाश पहले धुँधला-सा दिखाई पड़ता था वह अधिक स्पष्ट हो जाता है और हम अनुभव करने लगते हैं कि जहाँ और ज्योतियाँ छोटी-छोटी थीं वहाँ परमात्म-ज्योति सबसे बड़ी और सबसे उत्तम है और समस्त अन्य ज्योतियाँ उसी बड़ी ज्योति के आधार पर प्रकाशित हैं। उपनिषद् कहती है-
न तत्र सूर्य्यो भाति न चन्द्रतारकं, नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि:।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ (मुण्डक उपनिषद्, 2.2.10)
परमात्म-प्रकाश में सूर्य का प्रकाश काम नहीं देता, न चाँद का, न बिजली का, न इस भौतिक अग्नि का। जब परमात्म प्रकाश चमकता है तो ये अन्य सब प्रकाशक पदार्थ उसी के द्वारा चमकने लगते हैं। समस्त जगत् उसी एक प्रकाश से प्रकाशित है।
सूर्य को देखने के लिए कोई दीपक नहीं जलाता। दीपक में भी सूर्य की ही रोशनी है। इसी प्रकार परमात्मा की उत्तम ज्योति के प्रकाशित होने पर समस्त संसार प्रकाशित हो जाता है।
इस्लाम मत के कथानकों में एक कथानक ऐसा ही आता है जिससे ज्ञात होता है कि आस्तिकता का भाव क्रमश: उन्नति करता है। कहते हैं कि अँधेरी रात में एक तारा दिखाई दिया। मनुष्य ने समझा, यह बड़ा चमकदार है। यही संसार का मालिक होगा। वह कहने लगा, ‘हाजा रब्बी‘ (यही मेरा ईश्वर है)। थोड़ी देर में तारा डूब गया और चाँद निकल आया। तब उसके जी में आया कि वह तारा ईश्वर नहीं। ईश्वर कभी डूबता नहीं। तारे से अधिक प्रकाश तो चाँद का है इसलिए चाँद के प्रति सम्बोधन करके उसने कहा, ‘हाजा रब्बी- यही मेरा ईश्वर है।‘ चाँद भी डूब गया और सूर्य निकला। उपासक के मस्तिष्क में उसी प्रकार की फिर तर्कना हुई और उसने सूर्य के प्रति वही भाव प्रकट किये जो तारे के लिए किये थे- ‘हाजा रब्बी‘ (यही मेरा ईश्वर है)। परन्तु सूर्य को डूबते देखकर वह अज्ञान भी दूर हो गया और वह सोचने लगा कि ईश्वर वही है जो कभी अस्त न हो और जिसके सहारे ही समस्त देव देदीप्यमान होते हों।
संसार में करोड़ों ऐसे मनुष्य हैं जो हर चमकते पदार्थ को ईश्वर समझ बैठते हैं। आकाश में जब कभी कोई नया तारा दिखाई पड़ता है तो ग्राम के मूर्खों में उसके लिए भक्ति-भाव उत्पन्न हो जाता है। तारों की उपासना उसी अविद्या का परिणाम है। परन्तु जैसे-जैसे अविद्या मिटती जाती है, मनुष्य असली मालिक का अनुभव करने लगता है।
संसारभर के ईश्वर-उपासकों के इतिहास पर विचार कीजिए। पता चलेगा कि सब एक ही स्तर पर नहीं हैं, क्योंकि सबका विकास एक-सा नहीं है। अँधेरी रात के पश्चात् जब उषाकाल आता है तो प्रकाश की एक धीमी-सी रेखा प्रतीत होती है। वह सूर्य की किरण नहीं है, उसका आभास-मात्र है, परन्तु शनै:-शनै: वही रेखा अधिक होने लगती है और जब सूर्य निकलता है तो सारा जगत् प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार जब बच्चा सुनता है कि कोई ईश्वर जैसी चीज भी है तो उसको आश्चर्य होता है कि वह ईश्वर कैसा है, जिसे हम आँखों से नहीं देख सकते! उसको बताया जाता है कि ईश्वर ऊपर है। वह अपनी आँख उठाकर आसमान की ओर ताकने लगता है। बच्चों से पूछो कि ईश्वर कहाँ है तो वे हाथ ऊपर को उठा देते हैं। कोई कहता है कि बादलों में ईश्वर है। कोई कहता है बादलों के ऊपर है। बाइबिल में एक वाक्य आता है ‘माई फादर इन हैविन‘ (My Father in Heaven) इसका अर्थ हुआ कि ‘मेरा बाप जो स्वर्ग में है।‘ स्वर्ग के लिए ‘हैविन‘ कहा। अंग्रेजी में ‘हीव‘ (Heave) का अर्थ है ऊपर को उठना। लोगों ने समझा कि यह जो ऊपर उठा हुआ दिखाई पड़ता है अर्थात् आकाश, यही हैविन है और हमारे परमपिता परमात्मा उसी हैविन में रहते हैं। वस्तुत: यह बात है नहीं। ऊपर उठने का अर्थ है ‘तमसस्परि‘ या ‘तमस: उपरि‘ पापों से ऊपर उठना। ईश्वर का प्रकाश उसी हृदय में अधिक चमकता है जिसमें पापों का अन्धकार कम हो गया है। मैले दर्पण में तो सूर्य की किरण का आभास नहीं पड़ता। इसी प्रकार जिस हृदय में पापों का अन्धकार आच्छादित रहता है उसमें आत्म-प्रकाश की किरणें चमक नहीं पातीं। जब दर्पण निर्मल होता है तभी उपासक कहने लगता है- त्वमेव प्रत्यक्षम्। त्वमेव प्रत्यक्षम्। ओहो ! तू तो प्रत्यक्ष है। तू तो प्रत्यक्ष है। जब तक अँधेरा था तुझे देख नहीं पा रहा था। जब मेरी आँख की ज्योति बढी तो तू नजर आने लगा।
आस्तिक भावों की उन्नति भी क्रमश: होती है और अभ्यास से होती है। यही इस मन्त्र का रहस्य है।
सन्दर्भ-
1. ऋग्वेद में ‘ज्योति: पश्यन्त:‘ ऐसा पाठ है। अन्यत्र ‘स्व: पश्यन्त:‘ ऐसा पाठ है। ‘स्व:‘ और ‘ज्योति‘ पर्याय हैं। अर्थभेद नहीं।
2. ‘परि‘ का अर्थ है ‘उपरि‘। उकार का छान्दस लोप है। वेद में तीनों प्रकार के लोप मिलते हैं: (1) शब्द के पहले अक्षर का लोप जैसे उपरि के स्थान में परि, एकस्मै के स्थान में कस्मै। (2) मध्य के अक्षर का लोप जैसे प्रेम्णा के स्थान में प्रेणा। (3) अन्त के अक्षर का लोप जैसे आप्रात् के स्थान में ‘आप्रा‘। (दिव्ययुग - सितम्बर 2014)
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