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स्वतन्त्रता आन्दोलन के अजेय योद्धा : तिलक

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Bal Gangadhar Tilak copyजब भारत में वास्तविक राजनैतिक जागृति का प्रारम्भ हुआ, तो सबसे पहले तिलक ने ही स्वराज्य की आवश्यकता और उसके लाभों की ओर जनता का ध्यान खींचा था। तिलक ने ही सर्वप्रथम आन्दोलन करने के तरीकों, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं के प्रति अनुराग, राष्ट्रीय ढंग की शिक्षा, जनप्रिय संयुक्त राजनैतिक मोर्चे इत्यादि की खोज की, जिनके द्वारा स्वराज्य के लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण सहायता मिली।

ये विचार अमेरिकी अनुसन्धानकर्ता डाक्टर ‘थियोडर एलशे’ ने उस स्वाभिमानी, गम्भीर, उग्र तथा अदम्य साहस शक्ति सम्पन्न योद्धा के विषय में व्यक्त किये हैं, जिसने मृत्यु से पूर्व मूर्च्छावस्था में भी स्वराज्य का उद्घोष करते हुए कहा था ’‘यदि स्वराज्य न मिला तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता। स्वराज्य हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।’’ भारतीय राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात करने वाले बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को रत्नागिरि में हुआ था। इनका बचपन का नाम बलवन्त राव था। प्यार से इन्हें ‘बाल’ कहकर पुकारा जाता था। बचपन का यह प्यार का नाम ही उनके जीवन की धरोहर बन गया।
बलवन्त राव प्रारम्भ से ही धुन के पक्के और साहसी थे। अंकगणित और संस्कृत उनके प्रिय विषय थे। सोलह वर्ष की अवस्था में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने पुणे के डेक्कन कॉलेज में प्रवेश ले लिया।

तिलक को कॉलेज की बंधी-बंधायी अध्ययन-प्रणाली रुचिकर प्रतीत नहीं होती थी । अतः उन्होंने अपनी रुचि के विषयों को चुनकर उन्हीं का अध्ययन किया। कॉलेज में प्रवेश के समय तिलक दुबले-पतले सामान्य से युवक थे। एक दिन सहपाठी मित्रों ने उनकी कमजोर काया का काफी उपहास किया। तिलक को धुन सवार हो गयी शरीर को बलिष्ठ बनाने की तथा उन्होंने कॉलेज जीवन का प्रथम वर्ष स्वास्थ्यवर्धन में लगा दिया। सन् 1879 में तिलक ने कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। इतनी शिक्षा ग्रहण कर लेने के बाद भी तिलक ने न सरकारी नौकरी के लिए ही कोई प्रयास किया और न ही एक भी दिन किसी न्यायालय में वकालत की। अपने ज्ञान का सदुपयोग वे जरूरतमन्द लोगों को निःशुल्क सलाह देकर करते थे तथा उनके प्रार्थना पत्र भी लिख देते थे। तिलक ने सरस्वती की उपासना की थी इसलिए अपना जीवन लक्ष्मी की सेवा में न लगाकर देश एवं देशवासियों की सेवा में लगाया।

तिलक के सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ एक जनवरी सन् 1880 को ‘न्यू इंगलिश स्कूल’ नामक विद्यालय की स्थापना से हुआ। इस पुनीत कार्य में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर तथा आगरकर भी उनके सहयोगी बने। त्याग और निःस्वार्थ सेवा के आधार पर उनकी संस्था निरन्तर प्रगति-पथ पर अग्रसर होती रही। इसके साथ ही तिलक के मन में मराठी तथा अंग्रेजी भाषा में साप्ताहिक पत्र निकालने का विचार आया।

2 जनवरी सन् 1881 को ‘मराठा’ और 4 जनवरी 1881 को ‘केसरी’ का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। इन समाचार पत्रों ने जन जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तिलक तथा उनके मित्र आगरकर दोनों ही स्पष्टवादी स्वाभाव के थे और निर्भीकतापूर्वक पत्र का प्रकाशन कर रहे थे। इसी स्वभाव के कारण उन्हें कोल्हापुर के दीवान रायबहादुर बर्वे के द्वारा दायर मान-हानि के मुकदमें का शिकार होकर चार मास का कारावास दण्ड भोगना पड़ा। प्रो. पी.एम. लिमये ने ‘मराठा’ तथा ‘केसरी’ की प्रशंसा करते हुए कहा है- ’‘ये दोनों किसी भी जमी-जमाई बुराई या अन्याय पर चोट करने को सदा तैयार रहते थे, चाहे उसकी नींव कितनी भी गहरी क्यों न हो।’’

किन्तु तिलक का मन इतने से ही सन्तुष्ट न था। वे कुछ ऐसा करना चाहते थे, जिससे सम्पूर्ण राष्ट्र में नवजागृति आ जाए। अपनी इसी अभिलाषा से उन्होंने सार्वजनिक रूप से ‘शिवाजी उत्सव’ एवं ‘गणपति उत्सव’ मनाने की प्रथा प्रारम्भ की। गणपति उत्सव प्रारम्भ करने पर तिलक को मूर्तिपूजक, रूढ़िवादी और सनातनी कहकर उनकी खूब आलोचना की गयी।

तिलक के लिए धर्म रूढ़ि व परम्परा न होकर प्रेरणा का स्रोत था। गणपति उत्सव का आयोजन साम्प्रदायिक ताकतों को ठण्डा करने का एक माध्यम था। बम्बई और पूना के समय-समय पर भड़कने वाले साम्प्रदायिक दंगों के पीछे अंग्रेजों की घिनौनी राजनीति को तिलक ने बखूबी समझा और परखा था। अतः संगठित हिंसा का प्रतिकार सुसंगठित समाज के माध्यम से करने का उन्होंने आह्वान किया।

सन् 1897 में महाराष्ट्र में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। कृषकों के प्रति सरकार के अमानवीय व्यवहारों की तिलक ने समाचार पत्रों के माध्यम से कटु निन्दा की। कृषकों की ओर से आन्दोलन का सूत्रपात करते हुए उन्होंने जनता को, विशेषकर कृषकों को सरकार का निर्भीकतापूर्वक सामान करने की सलाह तथा प्रेरणा दी। इस हेतु अपने युवा सहयोगियों को सारे महाराष्ट्र में गाँव-गाँव प्रचार के लिए भेजा।

इसी दौरान पूना में ‘प्लेग’ महामारी का प्रकोप हुआ। सरकारी कुप्रबन्ध एवं अव्यवस्था के चलते एक लाख से अधिक लोग काल-कवलित हो गये। तिलक का पुत्र भी प्लेग की भेंट चढ़ा। तिलक गाँवों में घूम-घूमकर रोगियों की हालत देखा करते थे। उस दिन भी अविचलित हृदय से ‘केसरी’ में अग्रलेख लिखा। सरकारी रवैये से उत्पन्न विक्षोभ ने विस्फोट का रूप धारण कर लिया। दो नवयुवकों ने पूना के प्लेग कमिश्‍नर ‘रेण्ड’ तथा एक अन्य अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी। तिलक पर हिंसा तथा राजद्रोह भड़काने का आरोप लगाकर 27 जुलाई 1897 को बन्दी बना लिया गया। ड़ेढ वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनायी गयी। चार माह में ही तिलक का स्वास्थ्य गड़बड़ हो गया। अतः कारावास से मुक्त करवाने के लिए ब्रिटेन और भारत में आन्दोलन प्रारम्भ हो गए। परिणामतः 5 दिसम्बर सन् 1898 को उन्हें मुक्त कर दिया गया।

कारावास से मुक्त होकर तिलक ने पुनः सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। वे सतारा तथा लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए। तिलक ने कांग्रेस के स्वरूप को बदलने का प्रयास किया। तिलक कोरे आदर्शवादी नहीं थे। राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया। यही कारण है कि कांग्रेस में रहते हुए भी उन्होंने क्रान्तिकारियों की आलोचना नहीं की, अपितु उन्हें प्रोत्साहित ही किया। तिलक उदारवादियों के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे कि जब अंग्रेजों को विश्‍वास हो जाएगा कि भारतीय स्वशासन के योग्य बन गये हैं, तो वे स्वयं ही भारत को छोड़कर चले जाएंगे। उनका विश्‍वास था कि स्वतन्त्रता हमें छीनकर लेनी पड़ेगी। अतः वे गर्म दल के नेता माने गये।

ओजस्वी लेखों तथा भाषणों द्वारा क्रान्तिकारियों की प्रशंसा करने के फलस्वरूप 24 जून 1908 को तिलक को पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार तिलक को छह वर्ष की काले पानी की सजा दी गयी। उन्हें 23 सितम्बर 1908 को माण्डले जेल भेज दिया गया। यहीं उन्होंने ‘गीता रहस्य’ नामक ग्रन्थ की रचना की। जब वे कारावास में थे, तभी उनकी पत्नी का निधन हो गया।

छह वर्षों की अवधि के पश्‍चात् 16 जून 1994 को तिलक मुक्त कर दिए गए। कारावास से मुक्त होकर उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति के लिए होमरूल लीग बनाई तथा आन्दोलन चलाया। स्वराज्य के प्रचार के लिए तिलक ने ब्रिटेन की यात्रा भी की। इंग्लैण्ड से वापस आने पर स्वराज्य-आन्दोलन के अग्रदूत का भव्य स्वागत हुआ। भारत आकर वह अपने कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त रहे। उनका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था। 26 जुलाई, 1920 को वह भयंकर ज्वर से पीड़ित हो गये और एक अगस्त 1920 को भारत का निर्भीक देशभक्त चिरनिद्रा में सो गया।

तिलक एक संघर्षशील राजनेता थे। उनका सम्पूर्ण जीवन एवं व्यक्तित्व संघर्ष का संगठित स्वरूप है। इस समय भारत के अधिकांश राजनीतिज्ञ अंग्रेज सरकार की न्यायप्रियता की प्रशंसा कर रहे थे। स्वराज्य एवं स्वाधीनता की भावना सुप्त-प्राय थी। कांग्रेस के सदस्य भी उदारवादी रवैया अपनाकर अंग्रेज सरकार से समझौता करने को प्रस्तुत रहते थे। उन्होंने राजनीति में प्रस्ताव एवं प्रार्थनापत्र को महत्व न देकर पूर्णतः वीरोचित एवं स्वाभिमानपूर्ण रवैया अपनाया। अपने व्यक्तिगत जीवन के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि साहस और बलिदान से देश में नई चेतना जागृत की जा सकती है। - डॉ. माण्डवी दीक्षित

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