गौ तथा गोधन की अत्यधिक उपयोगिता होने से ही इसे अनेक नाम दिये गए है। वैदिक कोश ’निघण्टु’ में गाय के नौ नामों का परिगणन किया गया है-
अघ्न्या, उस्रा, उस्रिया, अही, मही, अदिति, इन्द्रा, जगती शक्वरी ।165
अघ्न्या का अर्थ निरुक्ताकर यास्क, निरुक्त टीकाकार दुर्ग एवं स्कन्द स्वामी, निघण्टु टीकाकार देवराज यज्वा आदि सभी ’अहन्तव्य’ कहते हैं । ’उस्रा’ तथा ’उस्रिया’ गाय के नाम इसी कारण हैं, क्योंकि उसके स्तनों से दूध की धार उत्सृत होती है । ’अही’ का अर्थ देवराज यज्वा ने अहन्तव्य किया है । ’मही’ शब्द पूजार्थक ’मह’ धातु से बनता है, अत: ’मही’ का अर्थ पूज्य है । ’अदिति’ का अर्थ निरुक्त के अनुसार अखण्डनीया देवमाता है। दूध-घी के परमैश्वर्यों से युक्त होने के कारण उसका नाम ’इन्द्रा’ है (इदि परमैश्वर्ये)। निर्भय होकर इतस्तत: घूमने के कारण वह ’जगती’ है । उसका दूध-घी शक्तिदायक होता है, अत: वह ’शक्वरी’ है ।166
यजुर्वेद में गोहत्यारे को प्राणदण्ड दिए जाने का उल्लेख है-
अन्तकाय गोघातम् ॥167
निम्न मन्त्रों से गौ का अतिशत महत्व परिलक्षित होता हैं-
रेवतीरमध्वमस्मिन्योनावस्मिन्गोष्ठेऽस्मिँल्लोकेऽस्मिन् क्षये । इहैव स्त मापगात ॥168
अर्थात् हे धनयुक्त गौओ ! इस स्थान में, इस गौशाला में, इस लोक (देश) में इस घर में आनन्द से रमो । यहीं रहो, दूर मत जाओ ।
संहितासि विश्वरूप्यूर्जामाविश गौपत्येन ॥169
हे गौ ! तू अनेक रूपों से युक्त होकर यज्ञ कार्य से संलग्न है । तू बल देने वाली होकर गोपालन के भाव से मुझमें प्रविष्ट हो ।
इड एह्यदित एहि काम्या एत । मयि व: कामधरणं भूयात् ॥170
हे अन्नरूप गौ ! यहाँ आओ ! हे अदीनता करने वाली गौ ! यहाँ आओ ! हे कामना की जाने योग्य गौओ ! यहाँ आओ । तुम्हारे अन्दर जो कामना को पूर्ण करने की शक्ति है, वह मुझे मिले ।
मनुष्यों के लिए पशुओं में सर्वाधिक उपयोगी पशु गाय है । गाय से ही मानव जाति का जीवन पालित एवं पोषित हो रहा है । समस्त संसार में दूध की समस्या का हल गाय से ही हो रहा है । एक ओर जहाँ वैदिक काल में गाय पञ्चगव्य के द्वारा जीवन की रक्षा करती थी वही उससे ही यज्ञ सम्पन्न होता था । पर्यावरण को शुद्ध एवं सुरक्षित रखने के लिए उसके गोबर के कण्डे की समिधा से प्रज्वलित अग्नि में उसी के घृत से आहुति देने का विधान है । गोमय से रोग प्रतिरोधी शक्ति का होना और गोमूत्र में अनेकविध रोगों को नष्ट कर देने की क्षमता विद्यमान होना वैज्ञानिकों द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया है । गाय के दही व तक्र की महिमा तो चिकित्साशास्त्र के ग्रन्थों में अमृत के तुल्य कहकर गायी गयी है। इस प्रकार जीवन रक्षा में गव्यों की अनुपम उपयोगिता है ।
गाय के बछड़े-बछड़िया बड़े होकर गाय, ऋषभ (साण्ड) तथा बैल बनते हैं । बैलों का कृषि में हल चलाने तथा वाहनादि हेतु प्रयोग होता है। बैल को अनड्वान् भी कहते हैं । अनड्वान शब्द से ही ज्ञान होता है कि अनो वहतीति अनड्वान अर्थात् जो गाड़ी खींचे उसे अनड्वान कहते है ।171
अश्व की अनुपस्थिति में बैल को ही गाड़ी में जोता जाता है, क्योंकि इसे अश्व का बन्धु कहा गया है-
यद्यश्वं न विन्देदप्यनड्वानेव स्यादेष हि एवानडुहो बन्धु: ॥172
गाय की तरह ही बैल भी अहन्तव्य अर्थात् न मारने योग्य है-
विमुच्यध्वघ्न्या देवयाना: ॥173
इस मन्त्र का विनियोग ’कात्यायन-श्रौत-सूत्र’ में बैलों को खोलकर अध्वर्यु को दान करने में किया गया है ।174
आचार्य महीधर ने भी यहाँ ’अहन्तव्य बैल’ अर्थ ही किया है-
अघ्न्या अहन्तव्या गावो बलीवर्दा: ॥175
भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही गौवंश अवध्य रहा है, रक्षणीय रहा है । वैदिक संस्कृति में जितना प्रयत्न गोपालन, गोसंवर्द्धन तथा गोरक्षण के लिए किया गया है, वह अनुपम है । वैदिक संस्कृति की यह विशेषता रही है कि उसने सम्पूर्ण गोवंश तथा गो-उत्पाद को उपयोगी बनाया । जैसे दूध से दही, मक्खन, पनीर, घी, मिठाइयाँ आदि खाद्यान्न प्राप्त किया, गोबर-गोमूत्र से औषधियाँ बनाई, खाद बनाया तथा कीटों को नियन्त्रित किया । गौ-ऊर्जा से चलने वाले कृषि-यन्त्र, सिंचाई-साधन, ग्रामोद्योग यन्त्र तथा उपकरण, परिवहन साधन आदि बनाए तथा उसकी स्वाभाविक मृत्यु होने पर शव से प्राप्त चमडा, हड्डी, चर्बी, बाल, सींग, खुर आदि से अनेक ग्रामाद्योगों का विकास किया ।
बैल अपने औसतन बीस वर्ष के जीवन काल में लगभग 17 वर्ष तक निरन्तर सेवा कार्य करता है । वह इतना उत्पादक है, इसीलिए प्राचीन मनीषियों ने उसकी हत्या को जघन्य पाप माना है । मादा गाय अपनी बीस वर्ष की आयु के अन्तिम तीन-चार वर्षो में न तो बछड़ा देती है तथा न दूध । परन्तु वह गोबर तथा गौमूत्र तो तब भी देती है । एक बूढे बैल या गाय पर किसान को जितना खर्च आता है, उससे अधिक मूल्य का तो उसे गोबर या गैस मिल जाती है ।
भारतीय कृषि-व्यवस्था जो परम्परागत ढंग से चली आ रही है, इस देश की संस्कृति के अनुरूप गोवंश (गाय और बैल) पर केन्द्रित है । परन्तु आज गौवंश के स्थान पर ट्रेक्टरों का उपयोग बढ रहा है तथा गौवंश की उपेक्षा हो रही है । खेतों में रासायनिक खाद का प्रयोग हो रहा है । क्योंकि प्राकृतिक खाद का स्रोत गौवंश तो कम हो रहा है तथा ट्रेक्टर खाद आदि दे ही नहीं सकते । अत: प्राकृतिक खाद के न होने से धरती की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे कम हो रही है ।
यह सब होते हुए भी वर्तमान सन्दर्भ में भी गौवंश की उपादेयता अत्यधिक है । यदि ग्रामीण परिवहन के सन्दर्भ में बात की जाए तो 50 प्रतिशत क्षेत्रों में पहुँच मार्ग ही नहीं हैं । वर्षा में तो ये शहर से कट ही जाते हैं । ऐसे में मात्र बैलगाड़ी या ऊँटगाड़ी ही सहारा बचती है । खेती में आज लगभग 65 प्रतिशत पशु शक्ति, 20 प्रतिशत मनुष्य शक्ति तथा मात्र 15 प्रतिशत यन्त्रशक्ति कार्य करती है । यदि पशुधन से काम लेना बन्द कर दिया जाए तो 40 लाख ट्रैक्टर तथा इनकी खरीदी के लिए 50 हजार करोड़ रुपये की पूंजी लगानी पड़ेगी । इस हेतु ईंधन की आवश्यकता होगी वह अलग।176 धरती को उर्वर रखते हुए कृषि का लाभ करा देना गोवंश की महिमा ही है । यन्त्रो से कृषि करने से पृथ्वी प्रदूषण, वायु प्रदूषण और आकाश (ध्वनि) प्रदूषण की सम्भावना सदा बनी रहती है । - आचार्य डॉ. संजयदेव
सन्दर्भ सूची
165. निघण्टु 2.11
166. आर्षज्योति, पृ. 218 पं. रामनाथ वेदालंकार
167. यजुर्वेद संहिता - 3.20
168. यजुर्वेद संहिता - 30.18
169. यजुर्वेद संहिता - 3.21
170. यजुर्वेद संहिता - 3.22
171. कल्पसूत्र कालीन भारत, पृ. 185 डॉ. नन्दकिशोर पाण्डेय
172. शतपथ ब्राह्मण - 2.1.4.17
173. यजुर्वेद संहिता - 12.73
174. आर्षज्योति, पृ. 221, पं. रामनाथ वेदालंकार
175. शुक्लयजुर्वेद संहिता, उव्वट महीधर भाष्य, पृ. 289
176. नईदुनिया, इन्दौर में 20.11.99 को
डॉ. संदीप नानावटी का ’भारत में ट्रैक्टर होंगे कितने उपयोगी’ शीर्षक आलेख - (दिव्ययुग - अगस्त 2013)
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