धरती को उर्वर रखते हुए कृषि का लाभ करा देना गोवंश की महिमा ही है। यन्त्रों से कृषि करने से पृथ्वी प्रदूषण, वायु प्रदुषण और आकाश (ध्वनि) प्रदूषण की सम्भावना सदा बनी रहती है।
यजुर्वेद वाङ्मय में गोपालन की तरह ही अश्वपालन का भी बड़ा भारी महत्त्व है। गौ, पुत्र, धन तथा अन्य पशुओं की कामना के साथ-साथ घोड़ों की कामना भी की गई है। अश्वों, गायों आदि पशुओं का होना गौरव का विषय समझा जाता था।
निम्न मन्त्रों में सम्राट् को अश्वों तथा गायों से युक्त कहा गया है-
अग्निं तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धेनव:।
अस्तमर्वन्त आशवोऽस्तं नित्यासो वाजिन इषं स्तोतृभ्य आ भर॥177
अर्थात् सम्राट् उसको मानता हूँ, जो सबको धन देने वाला है, जिसके घर में दुधारू गौवें होती हैं या जो दुधारू गौवों का आश्रय होता है, जिसके घर में शीघ्रगामी घोड़े होते हैं या जो शीघ्रगामी घोड़ों का आश्रय होता है तथा जिसके पास सदा ही अन्न तथा बल वाले लोग रहते हैं। (यहाँ शीघ्रगामी होने से घोडे का विशेषण ‘आशु‘) है।
सो अग्निर्यो वसुर्गुणे सं यमायन्ति धेनव:।
समर्वन्तो रघुद्रुव: सं सुजातास:॥178
अर्थात् सम्राट् वह है, जो सबको बसाने वाला है, जिसके पास दुधारू गौवें होती हैं तथा जिसके पास द्रुतगामी घोड़े रहते हैं और जिसके पास अच्छी प्रकार उत्पन्न किए गए विद्वान रहते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेखा है कि गाय दूध को धारण करती है, बैल बल को तथा अश्व गति अथवा तीव्रता को धारण करने वाला होता है-
धेनुर्दोग्ध्री जज्ञे। अनड्वान्वोढा जज्ञे। अश्व: सप्ति: जज्ञे।179
अश्व की उत्यधिक उपयोगिता के कारण इसको अनेक नामों से पुकारा जाता है। अश्व, मनुष्यों से ही नहीं अपितु देव, गन्धर्व तथा असुरों से भी सम्बन्धित है। इस कारण प्रत्येक से सम्बद्ध होकर विभिन्न नाम धारण कर लेता हैं-
हयो भूत्वा देवानवहद्वाजी गन्धर्वानर्वाऽसुरा- नश्वोमनुष्यान्।180
अर्थात् देवों से सम्बद्ध होने पर इसका नाम ’हय‘, गन्धर्वों से होने पर ’वाजी’, असुरों से होने पर ‘अर्वान्‘ तथा मनुष्यों से सम्बद्ध होने पर इसका नाम ‘अश्व‘ है।
इसके अतिरिक्त घोड़े के लिए सैन्धव, धान्याद, सप्ति:, आशु, पूर्ववह, प्रष्टि, दधिक्रा, दौर्गह, वडव आदि अनेक नामों का उल्लेख यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है।
अश्व को शक्तिशाली होने से वर्तमान में भी शक्ति का प्रतीक माना जाता है। यन्त्रों आदि की शक्ति के लिए हार्स पॉवर तथा अश्वशक्ति शब्दों का प्रयोग आज भी अश्व की शक्ति को प्रमाणित करता है। वैदिक काल में घोड़ो का ही वाहन के रूप में अधिकांशत उपयोग किया जाता था। युद्धों में घोड़ों का ही विशेष महत्त्व था।
ग्राम्य पशुओं में ‘अज‘ (बकरा-बकरी) का महत्त्व भी विशेष रूप में दर्शाया गया है। पर्यावरणीय दृष्टि से बकरी का विशेष महत्त्व यजुर्वेद में वर्णित है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि बकरी अग्नि के तेज से उत्पन्न हुई है- अजो ह्यग्नेरजनिष्ट।182
अग्नि में जैसे तेज है, वैसे ही बकरी में भी तेज है। अग्नि के तेज के दो चिन्ह हैं- एक तो अग्नि में गति पाई जाती है, वह स्वयं गति में रहती है तथा अन्य पदार्थों को भी गति देती है। दूसरे उसमें अपनी गरमी से मल को भस्म करके वस्तुओं को शुद्ध करने की शक्ति है। बकरी में ये दोनों बातें पाई जाती हैं।182
बकरी में एक विशेष प्रकार की गति होती है, जो दूसरे प्राणियों में नहीं होती। वह ऐसे विकट स्थानों में जाकर भी घास तथा अपने खाद्य के पत्ते आदि चर लेती हैं, जहाँ दूसरे पशु जाने का साहस नहीं कर सकते। ढूंढकर घास तथा पत्ते चरने में जितनी पुरुषार्थी तथा गतिशील बकरी होती है, उतने दूसरे पशु नहीं होते। अग्नि का यह गति देने वाला तेज बकरी में पाया जाता है। बकरी के नाम ‘अज‘ का धात्वर्थ भी इस बात को प्रकट करता है। ‘अज‘ शब्द ‘अज गतिक्षेपणयो‘183 इस धातु से बनता है। बकरी को अज इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें गति है तथा अपने शरीर का क्षेपण अर्थात् इधर-उधर संचालन करने अथवा फेंकने की शक्ति है। बकरियों को पहाड़ों के ऊँ चे तथा अत्यन्त तंग स्थानों में चरते देखकर इनकी विशेष प्रकार की गति तथा क्षेपण का अच्छी प्रकार अनुभव किया जा सकता है। जिन ऊँ चाईयों तथा उन पर बने पैर रखने के अत्यन्त छोटे स्थानों को देखने मात्र से मनुष्य काँप जाता है, गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँ ट आदि पशु जहाँ पहुँचने का नाम नहीं ले सकते, बकरी वहाँ खड़ी होकर भी चर आती है।
विविध प्रकार के पौधों की पत्तियों तथा औषधियों को खाने के कारण बकरी का दूध उत्तम माना जाता है- अजायै पयसाऽऽच्छणत्ति। अजा ह सर्वा ओषधीरत्ति॥184
अग्नि के तेज दोष को दूर करने की शक्ति भी बकरी में है। कहते हैं कि बकरी के दूध में क्षय रोग को दूर करने की बड़ी भारी शक्ति है। क्षय रोगी के शरीर में गरमी नहीं रहती। उसकी पाचक अग्नि मन्द पड़ जाती है। उसे भूख नहीं लगती तथा खाया पिया हजम नहीं होता। बकरी का दूध इस रोग में एक औषध का काम करता है। रोगी के शरीर के दोषों को दूर करके उसमें शुद्धता लाता है तथा उसकी पाचक अग्नि को तीव्र करता है, जिससे उसे भूख लगने लगती है और इस प्रकार उसमें फिर से जीवाग्नि का संचार होने लगता है।185
यजुर्वेद वाड्मय में अनेक पशुओं के नामों तथा उनके विविध उपयोगों का उल्लेख प्राप्त होता है। यजुर्वेद के 24 वें अध्याय में अनेक प्रकार के पशुओं के गुण-धर्मों का वर्णन किया गया है।
यजुर्वेद वाड्मय में आए प्रमुख ग्राम्य तथा आरण्य पशुओं के नाम ये हैं- गौ(गाय), ऋषभ,(साण्ड), अनड्वान (बैल), अश्व (घोडा), अश्वतर (खिच्चर), रासभ (गधा), अज (बकरा) या छाग, अजा (बकरी), अवि तथा मेष (भेड़), उष्ट्र (ऊँ ट), श्वान (कुत्ता), हरिण, व्याघ्र, ऋषीक (रीछ), वृक (भेड़िया), श्रृगाल (गीदड़), शरभ (सिंहघातक), एडक (आरण्य मेष), किंपुरुष (वानर), मयु (वन मानुष), गोमृग (नीलगाय), शश (खरगोश)।
पशुओं की हिंसा न करने तथा रक्षा करने सम्बन्धी अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं-
इमं मा हिंसीर्द्विपादं पशुम् ॥186
इमं मा हिंसीरेकशफम्॥187
इममूर्णायुं मा हिंसी:।188
घृतेनाक्तौ पशूंस्त्रायेथाम्॥189
अर्थात् दौ पैर वाले, दो खुर वाले, एक खुर वाले, घृत-दूधादि देने वाले, ऊ न देने वाले पशुओं की हिंसा मत करो। उनकी रक्षा करो।
पशुओं की रक्षा एवं पालन करने वालों के प्रति आदर प्रकट किए जाने का उल्लेख भी यजुर्वेद में प्राप्त होता है- पशूनां पतये नम:॥190
यजुर्वेद वाड्मय में ‘ग्राम्य‘ तथा ‘आरण्य‘ इन दो श्रेणियों में पशु विभक्त हैं। ग्राम्य पशुओं की बड़े ध्यान तथा प्रेम से रक्षा होनी चाहिए तथा आरण्य पशु यदि हानिकारक हों तो उनको दूर तथा अलग रखना चाहिए।
घरेलू पशुओं में केवल कुत्ता ही मांसभक्षी होता है। घर आंगन में कुत्ता एवं बिडाल (बिल्ली) रहते हैं तथा इनसे किसानों की सुरक्षा ही होती है। गीदड़ आदि का कुत्तों के कारण भय नहीं रहता और चूहों का भय बिल्ली से दूर हो जाता है। यह घर परिवार की सुरक्षा में ही कुछ अंशों तक सहारा होेते हैं।
वैदिक मनीषी प्रत्येक प्रकार के जीवन का आदर करने वाले थे। इस नियम का उल्लंघन उसी समय होता था, जब कोई प्राणी दूसरे प्राणी के साथ अन्याय करता तथा उसके जीवन को संकट में डाल देता था। उनको मारा जा सकता था, परन्तु अन्यों को बचाने के लिए।191 स्वयं जीओ तथा दूसरों को जीने दो। जब तक तुम दूसरों को जीने देते हो, तब तक यदि तुम्हें कोई व्यक्ति सताता है, तो वह तुम्हारे साथ अन्याय करता है। यही अहिंसा है जिसका प्राय: अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता है। यह अहिंसा विश्व-बन्धुत्व की भावना पर आश्रित विश्व-प्रेम से ओत-प्रोत होती है।192
इस प्रकार यजुर्वेद वाङ्मय में विविध पशुओं का उल्लेख किया गया है। पशुओं के द्वारा मानवीय जीवन प्रभावित था। वैदिक युग में आवागमन, कृषि, यज्ञ एवं संयम सबमें पशु धन का उपयोग होता था। पशुपालन समाज में प्रचलित था। जहाँ वैदिक पुरुष पशुओं से अपने जीवनोपयोगी आरोग्य कारक द्रव्यों का संग्रह करते या उपयोग करते थे वही वे उनकी रक्षा का भी विधान करते थे। गाय और बैल को तो अहिंस्य ही मानते थे। गाय को तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी, क्योंकि सर्वत्र यज्ञ का प्रचार था। गाय के बिना यज्ञ की कल्पना ही व्यर्थ थी।
दुग्ध में सम्पूर्ण भोजन की वैकल्पिकता होना भी यही प्रमाणित करता है कि यदि गाय परिवार में है तो भोजन (पोषण) द्वारा जहाँ शरीर की रक्षा होती थी, वहीं यज्ञ द्वारा बाह्य पर्यावरण भी शुद्ध और पवित्र रहता था। इस वातावरण में रोगप्रतिरोधक क्षमता रहती थी । जीवन के रोधी प्रसंग नहीं आ पाते थे । इसी से दीर्घ जीवन होता था। समग्र वैदिक जीवन पवित्रता एवं शुद्धता की प्रेरणा से संचालित होता था। पशु की विष्ठा, मूत्र आदि उर्वरा का काम करते थे और उनकी उर्वरा से उपजाऊ धरती में पैदा हुआ अन्न आरोग्य कारक और बलकारक हुआ करता था। इसी प्रकार बैल या अश्व के वाहन रूप में प्रयोग करने पर एक संवेदना का भाव सदा विद्यमान रहता था और पर्यावरण की रक्षा के लिए मनुष्य सचेष्ट हो जाता था।
यान्त्रिक जीवन में व्यक्ति संवेदनशील नहीं रहता हुआ जहाँ खनिज तैलों के धुएँ से वातावरण को प्रदूषित कर डालता है वहीं संवेदना की चिन्ता किए बिना अनेक रोगों को पैदा कर लेता है। यद्यपि भौतिक समृद्धि की वैज्ञानिक प्रगति में हमें बहुत आगे बढने की शीघ्रता है, परन्तु आज भी जीवन के संकट होने पर पशुओं के बीच वैदिक जीवन जीना ही पड़ता है, अन्यथा आरोग्य की पूर्णत: सुरक्षा सम्भव नहीं हो पाती और शतायुजीवन की अपेक्षा हम अल्पायुजीवन पाते हैं। साथ ही अनेकाविध नए-नए रोगों की सम्प्राप्ति होने लगी है।
सन्दर्भ सूची
177. यजुर्वेद संहिता 15.41
178. यजुर्वेद संहिता 15.42
179. शतपथ ब्राह्मण 13.1.9.3-5
180. शतपथ ब्राह्मण 10.6.4.1
181. यजुर्वेद संहिता 13.51
182. वेदों के राजनैतिक सिद्धान्त-खख (अभ्युदय काण्ड) पृ. 108, आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
183. धातुपाठ
184. शतपथ ब्राह्मण 6.5.4.16
185. वेदों के राजनैतिक सिद्धान्त-खख (अभ्युदय काण्ड) पृ. 109, आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
186. यजुर्वेद संहिता 13.47
187. यजुर्वेद संहिता 13.48
188. यजुर्वेद संहिता 13.50
189. यजुर्वेद संहिता 6.11
190. यजुर्वेद संहिता 16.17
191. यजुर्वेद संहिता 13.47 से 13.50
192. वैदिक संस्कृति, पृ. 102,
- पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग- जनवरी 2014) देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध